Sunday, May 4, 2008

गुण्डे की सबसे गुणी परिभाषा [बकलमखुद-27 ]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं।
शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि और शिवकुमार मिश्र को पढ़ चुके हैं। इस बार मिलते हैं अफ़लातून से । अफ़लातूनजी जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं, अध्येता हैं। वे महात्मा गांधी के निजी सचिव रहे महादेवभाई देसाई के पौत्र है। यह तथ्य सिर्फ उनके परिवेश और संस्कारों की जानकारी के लिए है। बनारस में रचे बसे हैं मगर विरासत में अपने पूरे कुनबे में समूचा हिन्दुस्तान समेट रखा है। ब्लाग दुनिया की वे नामचीन हस्ती हैं और एक साथ चार ब्लाग Anti MNC Forum शैशव समाजवादी जनपरिषद और यही है वो जगह भी चलाते हैं। आइये जानते हैं उनके बारे में कुछ अनकही बातें जो उन्होनें हम सबके लिए लिख भेजी हैं बकलमखुद के इस सातवें पड़ाव के लिए ।


आपातकाल की यादें

आपातकाल की औपचारिक घोषणा के पहले भी सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा पत्र-पत्रिकाओं पर नकेल कसना शुरु हो चुका था । सेन्सरशिप न होने के बावजूद सरकारी विज्ञापन और अखबारी कागज के कोटे आदि के द्वारा यह अंकुश रखा जाता । इसी दौर का एक प्रसंग बता रहा हूँ । धर्मवीर भारती की प्रसिद्ध कविता मुनादी ,एक छोटी साहित्यिक पत्रिका कल्पना में प्रकाशित हुई । मैंने उन्हें लिखा कि व्यापक पाठक समूह तक पहुँचाने के लिए मुनादी को धर्मयुग में छापा जाए । भारतीजी के उत्तर का चित्र पाठक देख सकते हैं । कुछ ही समय बाद आपातकाल लागू हुआ । भारती जी और सचेत हो गए । भवानीप्रसाद मिश्र ने आपातकाल के खिलाफ़ प्रतिदिन तीन कविताएं लिख कर त्रिकाल सन्ध्या का संकल्प पूरा किया । १९७७ में जनता पार्टी के जीतते ही धर्मयुग ने आपातकाल पर विशेषांक निकाला जिसके बीच के पृष्ट पर एक तरफ़ जेपी द्वारा चण्डीगढ़ जेल में लिखी कविता ( जीवन विफलताओं से भरा है , सफलता जब कभी आईं निकट,दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से।.....) और दूसरी तरफ़ मुनादी छापी गयी । ' आत्म प्रचार ' तब आवश्यक हो गया था । संकट के दौर में ही बड़े बड़ों की औकात का पता चल पाता है ।

बदलाव की बयार चलने लगी थी

व्यापक जन - आन्दोलन के दौरान बहुत कुछ गतिशील हो जाता है । जो परिवर्तन व्यापक पैमाने पर होने में बरसों का समय लेते हैं , जन आन्दोलन के दौर में चुटकी बजाते पूरे होते हैं । सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन में लड़कियों की व्यापक भागीदारी हुई और फलस्वरूप पटना में देर रात तक महिलाओं का आना जाना मुमकिन हो पाया , छेड़खानी की घटनाएं कम हो गयीं । पड़ोसी सूबा होने के कारण उत्तर प्रदेश तक बयार पहुँची थी । अफ़सरों द्वारा सरकारी वाहनों के दुरुपयोग पर हम ऐसे वाहनों को घेर कर थाने ले जाते , प्राथमिकी दर्ज होने के बाद उसे छोड़ा जाता । घूस न देने का संकल्प इतनी गहराई से दिल में उतरा कि आज भी ट्रेन में टीटी यह संकल्प सुनने के बाद घूस 'छोड़' देते हैं ।
एक बात और इस दौर में गले उतरी । तरुणों में दो तरह की तड़प हो सकती है । पहली , ' मैं इस व्यवस्था का हिस्सा नहीं हूँ ' - इसकी तड़प । दूसरी तड़प इस समझदारी के साथ होती है कि- ' यह व्यवस्था ज्यादातर लोगों को खपा न पाने की क्षमता रखती है , लिहाजा इसे बदलना है ' । पहले प्रकार की तड़प खुद के व्यवस्था का हिस्सा बनते ही शान्त हो जाती है । १९८० में पहली बार जेल जाना करीब हफ़्ते भर के लिए । इन्दिरा गाँधी विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करने परिसर में आने वाली थीं और हम लोगों का ऐलान था कि यह किसी वैज्ञानिक द्वारा होना चाहिए । बहरहाल उनके आने के तीन दिन पहले ही 'शान्ति भंग की आशंका' में गिरफ़्तारी हो गयी । पिताजी ने ' नए साल पर नया अनुभव पाने की खुशी में ' मुझे एक डायरी भेंट दी । इन २५-२७ बरसों में सियासत में एक बड़ा परिवर्तन यह आया है कि राजनैतिक कार्यकर्ताओं का जेल जाना बन्द हो गया है । 'जेल भरो' के तहत उसी दिन शाम पुलिस लाइन से छुट्टी हो जाया करती है । जेल के अनुभवों पर अलग से एक शृंखला हो सकती है ।

छात्र राजनीति में भ्रष्टाचार ...

विश्वविद्यालय में समता युवजन सभा की बुनियाद ' जाति - पैसे - गुण्डागर्दी ' की राजनीति को परास्त करने के लिए रखी गयी । इकाई की स्थापना बैठक में साथी किशन पटनायक ने अपनी अनूठी शैली में जाति-पैसे-गुण्डागर्दी की व्याख्या की । ' जाति - एक बन्द गली जिसमें जन्म , विवाह और मृत्यु के बाद तक के तरीके तय हो जाते हैं । 'गुण्डा'' - वह जो अपने से कमजोर को सताता है और मजबूत के पाँव चाटता है । किशन पटनायक ने उस सभा में कहा था कि यदि ऐसा चलता रहा तो छात्रसंघों की अस्मिता पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा । अलग - अलग वर्गों और जाति से आने के बावजूद छात्र-युवा जमात के जो सामान्य गुण हैं उनकी चर्चा भी हुई । पिछली पीढ़ी की बातों को आँखें मूँद कर न मानना , जोखिम उठाने का साहस और सीमाओं को तोड़ना आदि । आगे के वर्षों में छात्रसंघों के बारे में किशनजी की कही बात सही साबित हुई ।
छात्रसंघ जो हमारे दिलों की धड़कन थे उसे लगातार बीमार होते सुना गया । विश्वविद्यालय प्रशासन और छात्र राजनीति के भ्रष्ट तत्वों की मिली-भगत देखी गयी ।

जन राजनीति की शुरुआत

प्रशासन द्वारा लोकतांत्रिक अधिकारों की कटौती , फीस वृद्धि , सीट कटौती और उच्च शिक्षा के अभिजात्यीकरण के प्रयासों के विरुद्ध छात्र आन्दोलन का 'मास्टर माइन्ड'माना गया । एक बार दो वर्ष निलंबित रहा,उच्च न्यायालय के जज के समक्ष अपनी पैरवी कर निर्दोष साबित हुआ । दूसरी बार हमेशा के लिए निकाला गया । शिक्षा शास्त्री और मानवाधिकारवादी प्रो. अमरीक सिंह ने विश्वविद्यालय प्रशासन से कहा , 'आजीवन कारावास भी जब आजीवन न हो कर एक सीमित अवधि का होता है तब लोकतांत्रिक तरीके से आन्दोलन करने के आरोप में निष्कासन - ' हमेशा के लिए ' क्यों ? छात्र जीवन के दौरान परिसर से सटे गाँवों और परिसर के सफ़ायी कर्मचारियों के बच्चों को पढ़ाना भी होता था । जन राजनीति में कदम रखा परिसर के दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों और पटरी व्यवसाइयों को संगठित कर ।
छात्र राजनीति के किस्से सृजनात्मक लेखन का हिस्सा बन सकते हैं । स्व . शिवप्रसाद सिंह ने अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन की पृ्ष्टभूमि में 'गली आगे मुड़ती है' नामक उपन्यास लिखा । कभी कथाकार काना सिंह के कथाकार शोधछात्र डॉ. देवेन्द्र ने कहा था कि उसके गुरु मुझ पर केन्द्रित कहानी लिखने की सोच रहे हैं। इस विश्वविद्यालय का स्थापना दिवस वसन्त
पन्चमी को है -इस तथ्य को ध्यान में रख कर कवि राजेन्द्र राजन द्वारा समता युवजन सभा को समर्पित इस कविता को प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

काशी विश्वविद्यालय


यही है वह जगह
जहां नामालूम तरीके से नहीं आता है वसंतोत्सव
हमउमर की तरह आता है
आंखों में आंखे मिलाते हुए
मगर चला जाता है चुपचाप
जैसे बाज़ार से गुज़र जाता है बेरोजगार
एक दुकानदार की तरह
मुस्कराता रह जाता है
फूलों लदा सिंहद्वार
इस बार वसंत आए तो जरा रोकना उसे
मुझे उसे सौंपने हैं
लाल फीते का बढता कारोबार
नीले फीते का नशा
काले फीते का अम्बार
कुछ लोगों के सुभीते के लिए
डाली गई दरार
दरार में फंसी हमारी जीत - हार
किताबों की अनिश्चितकालीन बन्दियां
कलेजे पर कवायद करतीं भारी बूटों की आवाजें
भविष्य के फटे हुए पन्ने
इस बार वसंत आए तो जरा रोकना उसे
बेतरह गिरते पत्तों की तरह
ये सब भी तो उसे देने हैं .
अरे , लो
वसंत आया
ठिठका
चला गया
और पथराव में उलझ गए हमारे हांथ
फिर उनहत्तरवीं बार !
किसने सोचा था
कि हमारे फेंके गये पत्थरों से
देखते - देखते
खडी हो जाएगी एक दीवार
और फिर
मंच की तरह चौडी .
इस पर खडे लोग
मुंह फेर कर इधर भी हो सकते हैं
और पीठ फेर कर उधर भी
इस दीवार का ढहना
उतना ही जरूरी है
जितना कि एक बेहद तंग सुरंग से निकलना
जिसमें फंस कर एक जमात
दिन - रात बौनी हो रही है .
किताबों के अंधेरे में
लालीपॊप चूसने में मगन
हमें यह बौनापन
दिखाई नहीं देगा .
मगर एक अविराम चुनौती की तरह
एक पीछा करती हुई पुकार की तरह
हमारी उम्र का स्वर
बार-बार सुनाई यही देगा
कि इस अंधेरे से लडो
इस सुरंग से निकलो
इस दीवार को तोडो
इस दरार को पाटो.
और इसके लिए
फिलहाल सबसे ज्यादा मुनासिब
यही है वह जगह .
— राजेन्द्र राजन
प्रिय अनूप शुक्ला के आग्रह पर 'यही है वह जगह' नामक चिट्ठा शुरु किया । [जारी]

पिछली कड़ी (भाग एक)

21 कमेंट्स:

मैथिली गुप्त said...

आपके संस्मरण काफी प्रभावी हैं. अपनी छात्र राजनीति के किस्सों पर एक श्रंखला शुरू क्यों नहीं करते.
अब आगे आने वाली कड़ी की प्रतीक्षा है

Sanjeet Tripathi said...

वाकई!!
मैथिली जी से सहमत हूं!!

Anonymous said...

संजीत ,
यह बताना रह गया था कि मेरे पिता श्री नारायण देसाई '४५ में सेवाग्राम के खादी विद्यालय में थे । माँ , उत्तरा चौधरी भी वहीं छात्रा थी।माँ ४२ में करीब दो वर्ष जेल रह कर निकली थीं।
मतलब, आपके पूज्य पितजी से यह दोनों परिचित रहे होंगे।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

अफलातून जी ,
आपके छात्रावास का समय, स्वतँत्र भारत मेँ हो रहे बदलावोँ की सँघर्षयात्रा जैसा प्रतीत हुआ -
आप विस्तार से लिखेँ, बहुत कुछ सामने आयेगा जिससे शायद आनेवाली नस्लोँ को भी बहुत
कुछ नया सीखने को मिलेगा.
श्रीमती इँदीरा गाँधी जी के आपातकालीन समय मेँ, कई लोगोँ को सतया गया था - सत्ता किसी को
मदाँध करती है,ये भी पता चला ~
जारी रखियेगा ..-- लावण्या

Unknown said...

अफ़लातूनजी ने ब्लॉग में बहुत बार अपनी कवितायें नहीं ड़ाली हैं। अनुरोध है कि इस समय से गुजरते समय उन्होने जो लिखा उसमें से कुछ कविताओं से हमें साझा करायें।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

एक पीछा करती हुई पुकार की तरह
इस पोस्ट ने अपने समय से
हमारे समय को जैसे बाँध लिया हो.
===========================
छात्र जीवन के संघर्ष और जन-सेवा के व्रत की
पहली पायदान पर ही मेहनत-मशक्कत कर
रोटी का रोज़ाना जुगाड़ करने वालों और
पटरी-पटरी व्यवसाय कर
जीवन की गाड़ी चलाने वालों को
एकजुट करने वाले अफ़लातून जी !
आपका यह ज़िंदगीनामा पढ़कर
सफ़र में यक़ीनन लग रहा है कि
यही है वह जगह.......मुक़म्मल
और मुनासिब जहाँ पर
कहने और करने का फासला ख़त्म होता है.
लेकिन है यह ज़वाबदारी और ज़ोख़िम का काम.
=================================
अजित जी,कितनी दुआएँ बटोरेंगे आप !
हर बार नई झोली साथ रखिएगा.
आभार
डा.चंद्रकुमार जैन

Udan Tashtari said...

बड़ा अच्छा लगा आपके संस्मरण पढ़ना और इस कविता को बांटने के लिये बहुत आभार.

Anonymous said...

aap sae millee hun per aapkae baarey bahut kam jaantee thee
ab aap kae vyktitav kaa asli parichay mila haen

Batangad said...

छात्र राजनीति सचमुच बहुत गर्त में जा चुकी है। लेकिन आज भी मेरा मजबूत भरोसा है कि बिना मजबूत छात्रसंघ के मजबूत लोकतंत्र या संपूर्ण लोकतंत्र की बात बेमानी है। इसलिए जरूरी है कि छात्रसंघों के सही स्वरूप की बात लोगों तक पहुंचे।

VIMAL VERMA said...

अफ़लतूनजी,८२ के छात्र संघ चुनाव में हम दस्ता मंडली के साथ बनारस में थे और तब आपको देखा भी था...अब इसकी बात बाद में पर आपका संस्मरण बहुत रोचक लग रहा है.....अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा

Abhishek Ojha said...

सुना रोचक संस्मरण है, बहुत कुछ सिखने को मिल रहा है, अगली कड़ी का इंतज़ार है.

Unknown said...

एक विचार मन में आया आपका लेख बांच कर. मैने भी इंदिरा गाँधी का आपातकाल झेला है. क्या आपातकाल की घोषणा होने पर ही हम आपातकाल है ऐसा मानेंगे? क्या आज भी आपातकाल नहीं है? हमारे मन में, हमारे परिवार में, हमारे पड़ोस में, हमारे शहर में, प्रदेश में, देश में, मुझे तो हर जगह आपातकाल नजर आता है. पहले एक अकेली इंदिरा का आपातकाल था, अब तो हर आदमी अपना आपातकाल लिए घूम रहा है.

अनूप शुक्ल said...

अच्छा है। इसे पढ़ते हुये बी.एच.यू. के दिन याद आ गये। अफ़लातून जी के ही आवाहन् पर हम आसपास की बस्ती के मुसहर जाति के बच्चों को बच्चों को पढाने भी जाते थे। शायद किशन पटनायक के बारे में भी वहीं जाना। ये जो नया चिट्ठा अफ़लातून जी ने हमारे कहने पर शुरू किया था अभी उसके साथ् पूरा न्याय होना बाकी है। गुंडे की एक परिभाषा जयशंकर प्रसाद जी ने भी तो दी है। वैसे गुंडे आजकल क्यों नहीं होते बनारस में।

Arun Arora said...

आप के गुजरे समय का लेखा जोखा ,जिसमे हम जैसो के लिये जानने सॊखने को बहुत कुछ है,इतने कम शब्दो ना समेटे जी :)

चंद्रभूषण said...

अफलातून दा, 1986 में हुए बीएचयू के छात्र आंदोलन के समर्थन में हम लोगों ने इलाहाबाद में भयंकर बमचक मचाया था। क्या आपका निष्कासन उसी आंदोलन के संदर्भ में हुआ था?

Anonymous said...

भाई चन्द्रभूषण, ८६-८७ में छात्र संघ बहाली के समर्थन में आप लोगों का समर्थन मिला था।हत्या के प्रयास,आगजनी आदि धाराओं में २१ मुकदमे थे , मुझ पर। अखिलेन्द्र ,चित्तरंजन भाई और बाद में कमल और धीरेन्द्र प्रताप आते थे-इलाहाबाद से।
हमेशा के लिए निष्कासन हुआ आनन्द प्रधान के जमाने में। आनन्द और सुभाष गाताड़े का दो वर्षों के लिए उसी बार हुआ था जब हमें मास्टर माइन्ड मान कर forever expelled किया था।

काकेश said...

बहुत रोचक लग रहा है आपको जानना. यह और भांग वाला दोनों किस्से मजेदार रहे. मैं भी मैथिली जी की बात से सहमत हूँ.

ghughutibasuti said...

आपने व आपसे पहले आपके परिवार ने जो राह चुनी वह विरले ही चुन सकते हैं। आपका यह कहना कि 'बहरहाल उनके आने के तीन दिन पहले ही 'शान्ति भंग की आशंका' में गिरफ़्तारी हो गयी। पिताजी ने ' नए साल पर नया अनुभव पाने की खुशी में ' मुझे एक डायरी भेंट दी।'
ऐसे पिता की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। माता पिताजी के समय की बात तो छोड़िये, साधन सम्पन्न होते हुए भी हम अपने बच्चों को ऐसी कठिन राह चलने को कहने की हिम्मत नहीं रखते। हम तो सदा यही चाहेंगे कि वे वह राह चुनें जो सरल हो व जहाँ रास्ते में फूल बिखरे हुए हों। तभी तो कभी लगता ही नहीं कि जीवन में कुछ भी किया।
घुघूती बासूती

Priyankar said...

आपके साथ-साथ आपके समय का भी बहुमूल्य दस्तावेज़ बन गया है यह आत्मकथ्य . विश्वविद्यालय/छात्र-राजनीति के दिनों पर और विस्तार से लिखिए . आपके ही माध्यम से राजेन्द्र राजन मेरे प्रिय कवियों में शुमार हो गए हैं .

जयशंकर प्रसाद के 'गुंडे' में सामंती रूमान भरपूर है पर गुंडे की किशन जी की परिभाषा सटीक लगी .

Anita kumar said...

घुघुती जी की बात से सहमत,आप के माता पिता को सलाम्। आप के संस्मरण तो हमारे लिए एक नयी दुनिया में खुलती खिड़की की तरह हैं , और जानने की इच्छा है।

Yunus Khan said...

अदभुत लग रहा है आपको पढ़ना । हमें अंदाज़ा नहीं था कि आपने इतना बीहड़ और साहसिक जीवन जिया है । राजनीतिक अनुभवों पर आपको विस्‍तार से लिखना ही होगा । कुछ महीनों पहले राजेंद्र राजन मुंबई आए । उस समय हम बाहर थे । अफसोस विविध भारती में उनसे मुलाकात नहीं हो पाई ।
सुंदर कविता ।
उन तक हमारी बधाई पहुंचे ।

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