Friday, May 30, 2008

पुलिस और ग्राहक !!!

गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय।
जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग सब गुनै अपावन।।
कह गिरधर कविराय,सुनो हो ठाकुर मन के।
बिन गुन लहै न कोय,सहस नर गाहक गुन के।।


हाकवि गिरधर की इस कुंडली में गुणों का बखान करते हुए कहा गया है कि सबको गुण प्यारे हैं, अवगुण नहीं। इसमें जो गाहक शब्द आया है वह निराला है। गाहक यानी ग्राहक। इस ग्राहक की महिमा सचमुच निराली है । कहीं यह खरीदार के अर्थ में आता है तो कहीं यह पारखी और क़द्रदां के अर्थ में। मगर भाव एक ही है और वह है पाने का , ले जाने का, पकड़ने का, ग्रहण करने का ।

ग्राहक बना है संस्कृत के ग्रहः शब्द से जिसके मूल में है ग्रह् धातु जिसमें पकड़ना, थामना, लपकना, प्राप्त करना आदि भाव समाए हैं। इसीलिए ग्राहक शब्द का अर्थ हुआ पाने वाला, लेने वाला, खरीदार आदि। इससे ही बना है हिन्दी का ग्राहकी या गाहकी जैसा शब्द जिसमें दुकानदारी, बिक्री जैसी बातें भी आ जाती है। दिलचस्प बात ये कि पकड़ने आदि जैसे अर्थों में संस्कृत के ग्राहक का मतलब पुलिस अधिकारी भी होता है क्योंकि वह भी तो अपराधी को धर दबोचता है। ये अलग बात है कि आज के दौर में भी यह अर्थ सही बैठ रहा है । पुलिस थाने खरीदे बेचे जाते हैं। पुलिस वाले कभी बेचते हैं तो कभी खुद बिकते हैं।

न हालात में गांधीजी का सत्याग्रह शब्द हमेशा याद आता है। सत्याग्रह शब्द गांधी जी ने चलाया था जिसका अर्थ था अन्याय के प्रतिकार के लिए विरोधी को कष्ट पहुंचाए बिना स्वयं कष्ट उठाकर न्यायमार्ग पर चल कर विजय हासिल करना। यह बना है सत्य+आग्रह से अर्थात् न्याय के लिए सत्य और अहिंसा पर टिके रहना। गांधीजी ने इस शब्द का सबसे पहले प्रयोग दक्षिण अफ्रीका में गोरों के खिलाफ अपने संघर्ष के लिए किया था।

आग्रह शब्द का आमतौर पर हिन्दी में इस्तेमाल अनुरोध , जोर देना , हठ आदि के अर्थ मे होता है। आग्रह की अधिकता ही ज़िद कहलाती है। साफ है कि आग्रह में एक किस्म का दबाव या बल तो काम कर रहा है। यह बना है संस्कृत के आग्रहः से जिसका मतलब है संकल्प , ग्रहण करना, अथवा पकड़ना आदि। आग्रहः यानी आ+ग्रह् । संस्कृत धातु ग्रह् से बने हैं ये सभी शब्द। गौरतलब है कि इन तमाम अर्थों के लिए मूलतः वेदों की भाषा अर्थात वैदिकी या छांदस् (संस्कृत नहीं) में ग्रह् नहीं बल्कि ग्रभ् शब्द है (देखें आप्टे कोश)।

भाषाविज्ञानियों ने अंग्रेजी के ग्रास्प (grasp) या ग्रैब (grab) जैसे शब्दों के लिए इसी ग्रभ् को आधार माना है। बस, उन्होंने किया यह कि प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार से एक काल्पनिक धातु ghrebh खोज निकाली है जो इसी ग्रभ् पर आधारित है और जिसमें पकड़ना, छीनना , झपटना, लपकना आदि भाव छुपे हैं।

ग्रह् से ही ग्रहण यानी स्वीकार करना जैसा शब्द भी बना है। अंतरिक्ष के पिंडों के लिए ग्रह शब्द भी के मूल में भी यही है। आग्रह स्वीकार हो जाए तो उसे अनुग्रह कहा जाता है। इकट्ठा करना, नियंत्रित करना, संकलन करना अथवा जोड़ना या कोश बनाने को संग्रहण कहते हैं। इससे ही संग्रह बना है। जब पेट में मरोड़ उठे और पेचिश लगे तो उसे ग्रहणि या संग्रहणि कहते हैं।

[कुछ अन्य संदर्भ अगली कड़ी में ]

6 कमेंट्स:

दिनेशराय द्विवेदी said...

ग्रह बहुत व्यापक है, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण भी इसी बने हैं।

Udan Tashtari said...

आभार इस जानकारी के लिए.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

सारगर्भित शब्द विन्यास विश्लेषण से हम अनुग्रहित हुए अजित भाई -

बालकिशन said...

आभार.

Arun Arora said...

जब पुलिस वाले पोस्टिंग या थाना खरीद्ते है तो ग्राहक ही होते है और बाद मे गिराह हक यानी लोगो की गिरह पर उनका हक होता है जी :)

Dr. Chandra Kumar Jain said...

गुण के गाहक कभी नाहक जो छले जाते हैं ,
सत्याग्रह के पथ पर वो चले जाते हैं !
काग जब कोकिला को गान सिखाने आए ,
सिद्ध स्वर के सभी तब हाथ मले जाते हैं !
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शब्दों की गहन पड़ताल .....
चिंतन के वातायन भी खोल देती है......
हम तो अजित-सफ़र-गुण-गाहक हैं भाई !
आभार
डा.चंद्रकुमार जैन

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