Friday, September 26, 2008

धिन ! क्यूं खलोती है ? [बकलमखुद-73]

gse_multipart14460 ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने  गौर किया है। ज्यादातर  ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल  पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी, अरुण अरोरा , हर्षवर्धन त्रिपाठी , प्रभाकर पाण्डेय अभिषेक ओझा को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के तेरहवें पड़ाव और इकहत्तरवें सोपान पर मिलते हैं रंजना भाटिया से । कुछ मेरी कलम से  नामक ब्लाग चलाती हैं और लगभग आधा दर्जन ब्लागों पर लिखती हैं। साहित्य इनका व्यसन है। कविता लिखना शौक । इनसे हटकर एक ज़िंदगी जीतीं हैं अमृता प्रीतम के साथ...अपने ब्लाग  अमृता प्रीतम की कलम से  पर । आइये जानते हैं रंजना जी की कुछ अनकही-
शादी के बाद यहाँ आते ही जो बदलाव आया वह था भाषा का ..माहोल का ....वहां मेस पार्टी और आर्मी माहोल यहाँ उस से एक दम अलग ....और वहां बोलते थे हम ज्यादातर हिन्दी या इंग्लिश यहाँ मुल्तानी | वहां जिन्हें छोड़ कर आई थी , मम्मी पापा ...दो छोटी बहने , और एक प्यारा छोटा भाई जो मेरी शादी के वक्त बहुत छोटा था .और दीदी , दीदी कहते हुए शादी होते हुए पूरे समय तक मेरा दुपट्टा पकड़े रहा था | दीदी के साथ नही रह पायेगा अब वह यह बात उसको समझ में नही आ रही थी ,उसी से दूर होने का दुःख मुझे भी सबसे अधिक था |
हाँ ससुराल में दो ननदे और मम्मी पापा थे | पर माहौल बिल्कुल ही अलग था | मायके में जो दिल में आता था वही किया ..खाना बनाना आता था ,पर उतना ही जितना जरुरी था ..बहुत आजादी वहां भी नही थी .पर यह समझ में आ गया था कि अब यहाँ कोई शैतानी नही की जा सकती है ...क्यूंकि यहाँ का माहौल बहुत डरा हुआ सा और सहमा हुआ सा लगा ...शायद यही फर्क होता है ससुराल और मायके का :) शादी के अगले दिन सासू माँ बोली की ""जा धा घिन''....जी कह कर मैं दूसरे कमरे में ....फ़िर मुझे यूँ ही खडे देखा तो फ़िर बोली रंजना धा घिन ....क्यूँ खलोती हैं [ क्यूँ खड़ी हुई है इस तरह ][कुछ इसी तरह का वाक्य ] मुझे आज तक नही आई यह भाषा :) हैरान परेशान क्या करू ....मेरा मासूम दिल समझ रहा था कि वह कुछ घिन घिन कह रहीं शायद वह किसी तरह के डांस की कोई रस्म से तो जुडा नही है ....बाबा रे !! यह शादी की रस्मे क्या मुसीबत है यह .......ईश्वर ने साथ दिया राजीव [मेरे पति देव ] सामने दिखे ....पर नई नवेली बहू अब पति को कैसे बुलाए .....आँखों में पानी ....कि करूँ तो क्या करूँ ....तभी यह अन्दर आए तो मेरी जान में जान आई ..पूछा की क्या करना है इस धा घिन का .....पहले देखते रहे और फ़िर जोर से हंस के बोले कि इस का कुछ नही करना जा कर नहा लो ...तौबा !! तो इसका यह मतलब था ...
फ़िर रसोई में पहली बार कुछ बनाना होता नई बहू को ...हलवा अच्छे से सीख के आई थी .[.जो कि पिक्चर में देखा करते थे अक्सर ].पर यहाँ बोला गया कि कढी और खीर बनाओ .... और मेरी हालत जो उस वक्त हुई वह आज भी नही भूलती ..सासू माँ बहुत अच्छी थी ,समझ गई बच्ची बुद्धू राम है इस.. मामले में ..कहा मैं बनाती हूँ तुम सिर्फ़ चम्मच से हिला दो खीर और कढी को रस्म हो गई ...यहाँ एक बात और अलग थी अभी तक आर्य समाजी माहौल देखा था यहाँ मम्मी कृष्ण जी की पूजा बहुत जोर शोर से करती थी | मथुरा ,गोकुल .यहाँ से अकसर आना जाना होता था | ससुर आर्य समाज जाते हैं | पर दोनों पूजा और हवन घर में अक्सर होते हैं | यही से कृष्ण राधा प्रेम की लगन लग गई इतनी कि आज तक मेरी हर बात उनसे होती है चाहे वह लड़ाई हो या और कोई बात उनसे ही शिकायत होती है | गायत्री मन्त्र तो जो रात को बोलने की सीख नाना जी ने डाली थी वह भी आज तक है और बच्चो में डाल दी है | फ़िर कुछ समय बाद लगा कि कुछ आगे पढ़ना चाहिए ..लिखने पढने का शौक है यह पति देव जान चुके थे | उनसे वादा लिया यही मैंने कि मुझे पढने लिखने से कभी नही रोकेंगे ।

lastscan6 छोटी बहन मंजू के साथ आगरा में

lastscan2 

राजीव के साथ ताजमहल के सामने

हाँ, पिक्चर वो नही देखते तो मैंने भी वह शौक त्याग दिया ... .वैसे भी पिक्चर देखने से अच्छा मुझे कुदरत और किताबों का साथ अच्छा लगता है|..एक शौक बहुत मिलता जुलता रहा हम दोनों में वह था घुमने का ...जब तक बच्चे छोटे रहे कई जगह घूमे ...हर छ महीने के बाद दो तीन के लिए कहीं भी निकल जाते थे ..दिल्ली के आस पास .शिमला .जयपुर बहुत बार गए |और रही बात पढने की तो आज तक न कभी किताबे लेने और न कभी पढने के लिए रोका उन्होंने ..| यह जान कर कि मैं आगे पढ़ाई पत्रकारिता की दिशा में करना चाहती हूँ तो वह फॉर्म भरवा दिया | पर इकलौती बहू होने के कारण सासू माँ नही चाहती थी कि नौकरी करू और उस वक्त कोई ख़ास जरुरत भी महसूस नही हुई सो बस पढ़ाई चालू रखी ..| इस के बाद एमए हिन्दी के फॉर्म भी भरे पर पेपर नही दे पायी ...उसी वक्त पहली बिटिया आ गई और उसके तीन साल बाद दूसरी | उसके बाद का समय बस इन्ही दो बेटियों की देख रेख में गुजरने लगा | लिखना पढ़ना भी तभी कुछ कम हुआ ..| वक्त की उंच नीच साथ साथ हर जिंदगी के चलती है .|
बीच के कुछ साल बहुत ख़राब निकले ..सबसे अधिक नुक्सान हुआ जो मेरी ससुराल में सबसे बड़ी सपोर्टर रहीं मेरी सासू माँ का अचानक से चले जाना | यह माँ के जाने के बाद मेरी ज़िन्दगी का दूसरा बड़ा नुकसान रहा | फ़िर ....राजीव जी की कुछ समय तक जॉब न रहना और घर में कई परेशानी जैसे एक दम से आ गयीं ..| तब महसूस हुआ कि अब मेरी भी नौकरी करने का वक्त आ गया है | बच्चियां अभी दोनों छोटी थी ....सो अध्यापिका की नौकरी ही बेहतर रहेगी | घर और जॉब दोनों साथ साथ चल सकेंगे | उस वक्त एक छोटे से स्कूल में तो नौकरी मिल गई पर अच्छे स्कूल में नौकरी के लिए बी .एड का होना जरुरी था | स्कूल के साथ साथ उसी वक्त रोहतक यूनिवर्सिटी से पत्राचार में बी .एड भी कर लिया | कभी अपनी माँ को इस तरह बच्चो के साथ पढ़ते देखा था ..आज मैं भी वही जिंदगी की ज़ंग लड़ रही थी :) वक्त भी कैसे रंग दिखाता है | पर यह बहुत अच्छा हुआ , और उस के बाद मैंने १२ साल एक अच्छे स्कूल में पढाया | यहाँ पढाने के साथ साथ हिन्दी सिखानी थी अफगानी बच्चो को जो उस वक्त अपने वतन से उजड़ कर यहाँ आए थे ..|
ह एक मजेदार अनुभव था .. इस में २२ साल के बच्चे भी थे और उसी क्लास में १० साल के हिन्दी सीखने वाले भी | लाल गुलाल बच्चे पर अपने देश से बेहद प्यार करने वाले | उनके पास जब उनके घर की फोटी देखती थी तो हैरानी होती थी कि कितने बड़े बड़े घर यह वहां समान समेत छोड़ कर भाग आए हैं यहाँ जान बचाने के लिए | पर क्या किया जा सकता था ..वो तो हिन्दी बोलने लायक ही सीखे पर मैं उस वक्त उनकी भाषा संस्कृति से बहुत कुछ नया जान सकी | इन्ही दिनों में साथ साथ प्रूफ़ रीडिंग का काम और घर ट्यूशन पढाने का काम भी किया | इस बीच शाम को कुछ घंटे मधुबन पब्लिशिंग के साथ पार्ट टाइम जॉब करने का मौका भी मिला | यही पर प्रेमचंद के नावल "वरदान "पर भी काम करने का मौका मिला | जिंदगी बदलते अंदाज में हर पल कुछ नया सिखाती है और आगे बढती चली जाती है | मुझे लगता है कि जिंदगी का यह मुश्किल समय ही बहुत तगडे अनुभव दे जाता है | लेखन का काम मेरे मनपसंद का था ...फ़िर यही काम अच्छा लगने लगा .... और स्कूल छोड़ दिया | जारी

24 कमेंट्स:

PD said...

एक बात कहूं रंजना जी? आप स्माईली के पीछे अपना दर्द छिपाना चाह रही हैं.. मैं भी अक्सर किया करता हूं.. मेरा ब्लौग पढने वाले भी यही समझ कर वाह-वाही कर आते हैं कि ये बच्चा बहुत खुश है.. :)

Satish Saxena said...

अच्छा लगा रंजना जी के बारे में जानकर !शुक्रिया अजित जी !

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर। बहादुर ब्लागर। आगे की कथा का इंतजार है।

दिनेशराय द्विवेदी said...

जो जंग जीत लेता है वही सूरमा है,रंजना जी भी कम नहीं

Anita kumar said...

ओह तो आप मुलतानी परिवार में आ गयीं, मेरे ख्याल से आप की सासू जी ने कहा होगा ना घिन ( नहा लो)…:) आप की कहानी कुछ हद्द तक अपनी कहानी सी लग रही है। हमें भी शादी से पहले खाना बनाना बहुत कम आता था और मलयालम समझना तो आज भी टेड़ी खीर है, ऐसे में ससुराल वाले ही इंगलिश में बोल कर हमारी परेशानी दूर कर देते थे। बहुत अच्छा लग रहा है अगली कड़ी का इंतजार है।

Anita kumar said...

हा हा! अजीत जी आखिर हमने आप के चिठ्ठे की नाराजगी तोड़ ही ली।

अजित वडनेरकर said...

@अनिता कुमार
ये अच्छा हुआ कि नाराजगी दूर हो गई वर्ना हमें भी सफर में आपकी टिप्पणियों की कमी खल रही थी और बकलमखुद वाली मेहमान को भी...

Asha Joglekar said...

बहुत अचछा लग रहा है रंजू जी । आपका ना घिन या धा घिन सुन कर मुझे कलकत्ते की याद आ गई जहाँ भीड भरी बस में से उतरते हनए लोग जोर जोर से नापते दीन बोलते थे । मतलब उतरने दीजीये ।

Asha Joglekar said...

हनए को हुए पढें ।

Udan Tashtari said...

यह पहलू भी जाना..बहुत डूब कर पढ़ा...जारी रखें. इन्तजार है आगे सुनने का!!

Arvind Mishra said...

अब जिंदगी पटरी पर आती नजर आ रही है .....कौन कहता है की मनुष्य की ज़िंदगी बस थोड़ी सी होती है -इतनी उथल पुथल आपाधापी ,रंग बदरंग ,कही अनकही और बेबसी का एक अंतहीन सा सफर ! जिंदगी किस पैमाने पर छोटी सी हुई ?

Manvinder said...

bahut achcha laga jaan kar

Ashok Pande said...

अच्छा चल रहा है यह सफ़र. वाक़ई.

रंजना said...

आपकी यादों के कारवां का सहयात्री बनाना ,बड़ा ही सुखद लग रहा है.चलती रहें,मंत्रमुग्ध हम भी साथ चल रहे हैं.

L.Goswami said...

aage jaldi likhiye..itna padha kar aage ke liye intizar krwa rahin hai..buri baat

Anonymous said...

behatarin laga aapke anubhav ka sathi bankar.
ALOK SINGH "SAHIL"

दिवाकर प्रताप सिंह said...

अच्छा लगा आप के बारे में जानकर! अगली कड़ी का इंतजार है।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

ऐसा लगा मानोँ आप हमेँ सच्ची बातेँ, आमने सामने कह रही हैँ..जीवन सँघर्ष का दूसरा नाम है
आपकी इस कडी को पढ आगे की उत्सुकता हो गई..बहुत अच्छा लिखा है
स्नेह,
-लावण्या

Ashok Pandey said...

बहुत अच्‍छा लग रहा है, रंजू जी आपके बारे में जानना। सचमुच मंत्रमुग्‍ध हो जा रहे हैं हम पढ़कर।

जितेन्द़ भगत said...

आपके जीवन की खट्टी-मीठी बातों से रूबरू होने का मौका मि‍ल रहा है; जुझारू जीवन का रोचक वृतांत है, जारी रखें।

Nitish Raj said...

ये सफर सचमुच बेहतरीन है और आप के साथ चलना भी। अगले के इंतजार में। आपने तो बहुत काम भी किया है। लाजवाब।

devesh said...

रंजना जी, पढ़ कर अच्छा लगा
आप कविता तो अच्छी लिख ही लेती थी, संस्मरण भी अच्छा लिख रही है. ख़ुद के बारे में इतने खुलासे से लिखने के लिए हिम्मत चाहिए... जो दिख रहा है के आप में है. कीप उप थे गुड वर्क

कंचन सिंह चौहान said...

jivan me aye ye dhundhalke bhi shayad zaruri hi hai, yahi to vyakti ko samvwedanshil, practical aur philosopher banate hai..! man ko chhu raha hai aap ka ye atmakathan

Abhishek Ojha said...

रंजना जी की गाथा और इस ब्लॉग पर.... देर से आने के लिए क्षमा.
हाँ पढ़ जरूर पहले ही लिया था, वो भी मोबाइल पर बड़ी मुश्किल से... रंजना जी को तो पता ही है की उनका लिखा मैं नहीं छोड़ता :-)

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