Sunday, June 29, 2008

मायानगरी से परिचय [बकलमखुद-53]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी और अरुण अरोरा को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के दसवें पड़ाव और चालीसवें सोपान पर मिलते हैं खुद को इलाहाबादी माननेवाले मगर फिलहाल मुंबईकर बने हुए हर्षवर्धन त्रिपाठी से। हर्षवर्धन पेशे से पत्रकार हैं और मुंबई में एक हिन्दी न्यूज़ चैनल से जुड़े हैं। बतंगड़ नाम से एक ब्लाग चलाते हैं जिसमें समाज,राजनीति पर लगातार डायरी-रिपोर्ताज के अंदाज़ में कभी देश और कभी उत्तरप्रदेश के हाल बताते हैं। जानते हैं बतंगड़ की आपबीती जो है अब तक अनकही-


साल भर से ज्यादा का देहरादून का मेरा समय अब तक की पत्रकारिता का सबसे यादगार समय रहा है। कई बड़ी खबरें ब्रेक कीं। ये, अलग बात है कि टीवी और दिल्ली, मुंबई में न होने की वजह से ब्रेकिंग न्यूज लाने वाले रिपोर्टर का तमगा नहीं मिल सका।

टीवी की नौकरी

लेकिन, इंसान की फितरत होती है कि कितना भी मिले उससे ज्यादा चाहिए। टीवी की नौकरी और ज्यादा पैसे कमाने का मन अखबार की नौकरी पर भारी पड़ गया। टीवी चैनलों के चक्कर लगाए। और, नौकरी जनरल न्यूज चैनल में काम करने निकला था। नौकरी मिली अनोखे कॉन्सेप्ट वाले चैनल सीएनबीसी आवाज में। जब अप्वाइंटमेंट लेटर मिला तो, बस ये पता था कि टीवी एटीन हिंदी में कुछ अलग सा शुरू कर रहा है, चैनल का नाम भी नहीं पता था। चैनल शुरू होने के बाद आज चार साल बाद कंज्यूमर नाम की बला से इतना परिचित हो गया हूं कि अब लगता है इसी में कुछ खास करूं। इकोनॉमिक्स में एमए करते वक्त सोचा भी नहीं था कि कभी ये नौकरी की योग्यता में शामिल होगा। वैसे, अभी भी राजनीति और अपराध की रिपोर्टिंग खूब लुभाती है। आठ साल से ज्यादा समय इलाहाबाद से बाहर रहते हो गया नहीं तो, पहले तो पूर्वी उत्तर प्रदेश के ज्यादातर विधानसभा-लोकसभा के जातीय-सामाजिक-राजनीतिक समीकरण जुबानी याद थे।

मुंबई अब भी बहुत अपनी नहीं लगती

ब 2004 में नौकरी ज्वाइन करने आया तो, तीन घंटे देर से आई फ्लाइट और होटल के रास्ते में सड़क किनारे भरी पड़ी झुग्गियों ने मन मार दिया। मायानगरी की मन में बसी छवि चकनाचूर कर दी। इससे पहले बचपन में एक बार मैं मुंबई आया था। मन में मुंबई की छवि फिल्मी टाइप की थी। लेकिन, दिखा ट्रैफिक जाम, लोकल की मारामारी, हर जगह लंबी कतार, मुश्किल से मिलती छत और वो, भी बेहद महंगी। लगा जीवनस्तर कभी यहां बहुत अच्छा हो ही नहीं पाएगा। जितना तनख्वाह बढ़ती, उससे तेज अनुपात में मकान का किराया बढ़ जाता। एक फिल्म अगर दो लोग साथ देखें तो, हजार रुपए की चपत पड़ जाती है। तय किया 6 महीने से ज्यादा इस शहर में नहीं रहूंगा। खैर, उस 6 महीने के आठ सेमेस्टर बीत गए लेकिन, मुंबई की पढ़ाई पूरी नहीं हो पाई है। अब मुंबई ठीक लगने लगी है लेकिन, इतने समय तक यहीं रहने के बाद भी बहुत अपनी नहीं लग पा रही है। बंबई न आता तो, पता नहीं अभी तक ब्लॉगिंग कर रहा होता या नहीं लेकिन, मुंबई में आने के बाद लगा कि यहां नहीं आता तो, जिंदगी के कई फलसफे अधूर रह जाते। मुंबई ने टीवी का उस्ताद (खुद को लगने लगा है, पता नहीं अभी कितने उस्तादों से पाला पड़ना है) बना दिया। और, यहीं शशि सिंह से मुलाकात के बाद ब्लॉगिंग का चस्का लगा। मैंने ब्लॉग बनवा दिया (अब तो, मेरी भी गिनती शायद कुछ अच्छे ब्लॉगर्स में होने लगी हो, वैसे धुरंधरों के आगे टिकना बड़ा मुश्किल है। यहां भी बड़ा मुकाबला है, भई)।

हनीमून से निकली पहली ब्लॉग पोस्ट लगती

ड़ी मजेदार बात है कि, मेरी पहली ब्लॉग पोस्ट मेरे हनीमून से लौटने के बाद तैयार हुई। इसे पढ़ने के बाद मेरे कुछ मित्रों ने कहा- बिजनेस चैनल में हो तुम्हें हर जगह बिजनेस और बाजार ही दिखता है। शादी के बाद माताजी ने कहा वैष्णोदेवी जरूर हो आओ। देवीजी का आशीर्वाद लेकर आओ। गोवा, पोर्ट ब्लेयर कैंसिल हुआ। और, हनीमून के लिए देवी दर्शन के बाद श्रीनगर जाना तय हुआ। श्रीनगर, गुलमर्ग घूमने के दौरान वहां की आबोहवा में दिखे बदलाव को शब्दों में बदल दिया और शुरू हो गया ब्लॉगिंग का सफर। फिलहाल, जिंदगी एकदम से पटरी पर तो नहीं कह सकता वो, जद्दोजहद तो बनी रहेगी। लेकिन, घर-परिवार, दोस्तों का अच्छा साथ और अब अपने मन के मुताबिक पत्नी, कुल मिलाकर जिंदगी अच्छी ही चल रही है। अब तक का सफर तो यही है। फिर कभी किसी मोड़ पर आगे की दास्तान। और, तो जिंदगी का सफर है वो, तो चलता ही रहेगा ... [समाप्त] अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Friday, June 27, 2008

झीनी झीनी बीनी चदरिया ....

मैं जिसे ओढ़ता, बिछाता हूं
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूं


स मशहूर शेर में दुश्यंत कुमार अपने शायराना मिज़ाज की बात कह रहे हैं। मगर बात अगर पहेली में बदली जाए कि ऐसी कौनसी चीज़ है जो ओढ़ी भी जाती है और बिछाई भी जाती है तो सभी की ज़बान पर चादर लफ्ज़ ही आएगा। चादर हिन्दी का एक आमफ़हम शब्द है जिसका मतलब होता है कंधे या सिर के ऊपर से ओढ़ा जा सकने वाला कपड़ा, बिस्तर पर बिछाया जाने वाला पटका, धातु के चौड़े पत्तर या पानी की मोटी धार आदि। राजस्थानी में किसी बांध या टंकी के ओवरफ्लो होने की स्थिति को चादर चलना कहा जाता है । हिन्दी के अलावा चादर शब्द उर्दू, फारसी और अरबी में समान रूप से मौजूद है फर्क सिर्फ इतना है कि वहां इसका अर्थ बुर्का या नक़ाब होता है । जो भी हो, काम तो जिस्म को ढकने का ही हो रहा है।

चादर संस्कृत मूल से निकला शब्द है। संस्कृत की एक धातु है छद् जिसका मतलब होता है ढकना , छिपाना , पर्दा करना आदि। छद् से ही बना है छत्रः , छत्रकः या छत्रकम् इन्ही शब्दों से बने हैं छाता , छत्री छतरी जैसे शब्द जो जिसका मतलब होता है ऐसा आवरण जिससे सिर ढका रहे, छाया बनी रहे। राजाओं के सिंहासन के पीछे लगे छत्र से भी यह साफ है । छत्रपति, छत्रधारी जैसे शब्द इससे ही निकले हैं। मंडपनुमा इमारत भी छतरी ही कहलाती है। राजाओं की याद में भी पुराने ज़माने में जहां उन्हें दफनाया जाता था , छतरियां बनाईं जाती थीं। कहावत है कि चाहरदीवारी को ही घर नहीं कहते । सही है क्यों कि अगर चाहरदीवारी पर छत नहीं होगी तो आश्रय अधूरा माना जाएगा और घर यानी सम्पूर्ण आश्रय । छद् के चादर में तब्दील होने का क्रम कुछ यूं रहा होगा - छत्रकः> छत्तरअ > छद्दर > चद्दर > चादर
चादर में समाए ओढ़ने, बिछाने, ढकने, छुपाने के भावों ने कविता और मुहावरों में दार्शनिक-लाक्षणिक अर्थ ग्रहण किये हैं मसलन –
ते ते पांव पसारिये, जेती चादर होय ।

बीर की झीनी झीनी बीनी चदरिया तो सब दुखों से मुक्ति का रास्ता बताती है और चिन्तामुक्ति के बाद मनई को चादर तान कर ही सोना चाहिये । फारसी होते हुए जब यह चादर अरबी में पहुंची तो वहां के सामाजिक संस्कार इसमें समा गए और खासतौर पर इसका मतलब हो गया शरीर को ढकने का वस्त्र, नकाब या बुर्का । इसका प्रयोग भी विशेष रूप से महिलाओं के संदर्भ में होने लगा। भारत में मुस्लिम शासन के दौरान इस किस्म के प्रयोग यहां भी होने लगे जो मुहावरों में नज़र आते हैं जैसे चादर डालना या चादर ओढ़ाना जिसका मतलब होता है किसी विधवा को घर में डाल लेना या उससे विवाह कर लेना। भाव आश्रय देने का ही है मगर लाक्षणिकता साबित करती है कि इसमें पुरुषवादी सोच पैठी है। यूं देवताओं को छत्र छढ़ता है तो मज़ारों पर चादर चढ़ती है। दोनों मूलतः एक ही हैं और श्रद्धास्वरूप किए जाने वाले अनुष्ठान हैं।

आपकी चिट्ठियां

फर के पिछले पांच पड़ावों- छिनाल का जन्म , छप्पन छुरी और असली छुरी, ऊंची अटरिया में ठहाके, कैसे कैसे अड्डे और अड्डेबाज , हाथी ने दिखाई हाथ की सफाई पर सर्वश्री समीरलाल, ज्ञानदत्त पांडेय, लावण्या शाह , डॉ चंद्रकुमार जैन, कुश ,संजय पटेल , घोस्ट बस्टर, डॉ अनुराग आर्य, अभिषेक ओझा, ममता, शिवनागले, दिनेशराय द्विवेदी, ई गुरूमाया, बोधिसत्व, संतराम यादव, अरुण , तरुण, प्रभाकर पांडे, आलोक पुराणिक, नीलिमा, पल्लवी त्रिवेदी, अभिजित, रंजना , अभय तिवारी, पल्लव बुधकर , संजय शर्मा, प्रशांत प्रियदर्शी, आभा, शिवकुमार मिश्र, डॉ अमरकुमार, अनामदास, राजेश रोशन , सजीव सारथी, अशोक पांडेय , अफ़लातून, मीनाक्षी , आशीष कुमार अंशु, स्मार्ट इंडियन और अशोक पांडे की टिप्पणियां मिलीं । आपका बहुत बहुत शुक्रिया।

@अनामदास-आपने अट्ट से अट्टालिका वाली पोस्ट में आए लाफ्टर के हवाले से लॉफ्टी, लॉफ्टर, लॉफ्ट जैसी ऊंचाई को इंगित करती जो जानकारियां दी उनसे सचमुच अट्टहास और अट्टालिका की ही रिश्तेदारी सामने आती दिखी। बाद में सोचा तो लगा कि लिफ्ट भी इसी मूल का शब्द है। शुक्रिया ।

@संजय शर्मा, पल्लव बुधकर, अरुण
आप सभी का शुक्रिया कि अट्टापीर वाली शब्द चर्चा में हिस्सा लिया।

@अभय तिवारी
भाई, लगता तो है कि खुखरी शब्द भी क्षुर् या खुर की देन है। अलबत्ता ईंट शब्द इष्टिका से बना है । अट्ट से इसकी रिश्तेदारी नहीं है।

खास बात-

साथियों ,
इस ब्लाग पर आपका आना बहुत अच्छा लगता है । अनुरोध ये है कि अगर कोई शब्द जो आपके भाषायी क्षेत्र से ताल्लुक रखता है, आपको कुछ संदर्भ याद दिलाता है तो कुछ समय निकालकर उसके बारे में मुझे ज़रूर लिखें।
एक निवेदन यह भी कि कृपया अपनी टिप्पणियों में ऐसे विशेषण न दें जिन्हें स्वीकारने में मुझे संकोच हो। ये मेरा शौक है और आप सबसे साझा कर रहा हूं। ज्ञानी-ध्यानी नहीं हूं, बस जो हूं आपके बीच से हूं। पढ़ रहा हूं और तलाश रहा हूं। जो मिल रहा है उसे सबसे बांट रहा हूं । अरुण जी ने ठीक कहा, इसे तो अड्डा ही समझिये।
अन्यथा न लें। बस, निवेदन ही मानें।
आपका ,
अजित

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Thursday, June 26, 2008

मेरी बरबादी की भविष्यवाणी [बकलमखुद-52]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी और अरुण अरोरा को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के दसवें पड़ाव और तिरतालीसवें सोपान पर मिलते हैं खुद को इलाहाबादी माननेवाले मगर फिलहाल मुंबईकर बने हुए हर्षवर्धन त्रिपाठी से। हर्षवर्धन पेशे से पत्रकार हैं और मुंबई में एक हिन्दी न्यूज़ चैनल से जुड़े हैं। बतंगड़ नाम से एक ब्लाग चलाते हैं जिसमें समाज,राजनीति पर लगातार डायरी-रिपोर्ताज के अंदाज़ में कभी देश और कभी उत्तरप्रदेश के हाल बताते हैं। जानते हैं बतंगड़ की आपबीती जो है अब तक अनकही-

बरबाद हो जाएगा मैनेजर साहब का लड़का

विश्वविद्यालय की राजनीति में पहले से सक्रियता, घूमने-टहलने से सामान्य छवि पर असर पड़ने लगे। हर कोई सामने तो सलीके से बात करता। लेकिन, कुछ-कुछ लोग ये भी कहने लगे कि मैनेजर साहब का लड़का अब कुछ नहीं कर पाएगा। बस, नेताओं के पीछे घूमता रहता है। विश्वविद्यालय में पढ़ाई पूरी करने के बाद ये लगने लगा कि जरूरतें पूरी करने के लिए कुछ पैसे तो चाहिए ही होंगे। एक बहुत ही नजदीकी मित्र के पिताजी (लोक निर्माण विभाग में इंजीनियर) के साथ ठेकेदारी शुरू कर दी। ज्यादा हल्ला नहीं किया लेकिन, ऐसी बातें छिपती कहां हैं। फिर तो मेरी बरबादी की भविष्यवाणियां और तेज हो गईं।


मैं पत्रकारिता के लिए ही बना था


इंजीनियरों और बाबुओं के सामने कमीशन के निपटान करते और किसी तरह घाटे को मुनाफे में बदलने की जुगत के लिए 100रुपए में से 40 रुपए का काम कराना मेरे जमीर को धक्का देने लगा और मुझे ये अच्छे से समझ में आने लगा था कि मैं ठेकेदारी जैसा काम नहीं कर पाऊंगा। मैंने ठेकेदारी को नमस्ते कर दिया। और, ये बहुत अच्छा लगता है कि मेरे बाद ठेकेदारी का काम शुरू करने वालों ने करोड़ो रुपए भले कमाए। लंबी गाड़ियों और असलहों के साथ घूमते हैं लेकिन, रोत रहते हैं कि यार, तुम्हारा काम बड़ा इज्जत वाला है।

चुनाव लड़वाना चाहते थे...

विश्वविद्यालय के दौरान की गतिविधियों से एकाध बार लोगों ने मुझ पर चुनाव लड़ने का भी दबाव डाला। लेकिन, मेरा मन पढ़ने-लिखने के काम में ज्यादा लगता था। और, मुझे ये भी लगता था कि मैं चुनाव का बहुत अच्छा मैनेजर हूं, सबको बांधकर रख सकता हूं लेकिन, शायद चुनाव लड़ना मेरे बस की बात नहीं। पढ़ने-लिखने की रुचि और लोकतंत्र के चौथे खंभे के प्रति मेरी रुचि ने मुझे पत्रकार बना दिया।

महाकुंभ में तगड़े सबक मिले

छिटपुट अखबारों में अपने ही शहर में काम करता था। कुछ थोड़ा बहुत फीचर, कैंपस पेजेज के लिए लिख देता था। 2000-2001 में इलाहाबाद में महाकुंभ होना था। इसी बीच पता चला कि प्रतापजी वेबदुनिया के साथ जुड़कर महाकुंभ पर कुछ अलग सा करने वाले हैं। उनके पास पहुंचा तो, उन्होंने दो विषयों में से किसी एक पर कुछ लिखने को कहा। माघमेला और इलाहाबाद विश्वविद्यालय। इलाहाबाद विश्वविद्यालय पर तो, मैं कभी भी कितना भी लिख सकता था। लेकिन, मुझे लगा कि महाकुंभ में काम करना है तो, माघमेले पर लिखना चाहिए। मेरे बाबा (हम दादू कहते थे) तब जीवित थे। उनसे पूछकर संगम, माघमेला, प्रयाग के कई श्लोक अपने लेख में जोड़ दिए। लेख को देखने के बाद प्रतापजी की वो, बात – कि तुम्हारी कॉपी 5-7 साल की पत्रिकारिता कर चुके लोगों से बेहतर है, मेरे लिए जिंदगी भर का संबल बन गई।

नेताओं-बाबाओं से मुलाकात
गड़ी ट्रेनिंग हुई- सुबह सात-आठ बजे से रात के दस बजे तक काम करता था। इसी दौरान रामजन्म भूमि आंदोलन के लिए जोर लगाने वाले विहिप के अशोक सिंघल, स्वर्गीय महंत रामचंद्र परमहंस दास (जिन्हें उस समय लगना शुरू हो गया था कि भाजपा के नेता इस मुद्दे पर सिर्फ राजनीति चमका रहे हैं) और महंत नृत्य गोपालदास से भी मुलाकात हुई। बाबाओं का सकारात्मक प्रभाव, बाबाओं की राजनीति और बाबाओं का पाप इन सारी चीजों के दर्शन उन छे महीनों में हो गए। गोविंदाचार्य से लेकर हेमामालिनी और नागा सन्यासिनों तक से मुलाकात हुई। महाकुंभ में लोकल पत्रकारों के लिए नीला छोटा कार्ड बना था जबकि, बाहर से आए नेशनल और इंटरनेशल पत्रकारों को गुलाबी रंग का थोड़ा बड़ा कार्ड मिला था। जिसे लटकाए हम लोग खुश रहते थे और इलाहाबाद के अखबारों में काम करने वाले कुछ बुढ़ाते पत्रकार चिढ़ते भी थे।

पत्रकारिता से देश दर्शन

र, इलाहाबाद से शुरू हुआ मेरा सफर दिल्ली पहुंचा। दिल्ली में इंडियाज मोस्ट वांटेड में कुछ दिन काम किया लेकिन, निहायत बकवास काम लगा। फिर, कानपुर जागरण में डेस्क की नौकरी का जुगाड़ लगा तो, कानपुर पहुंच गया, वैसे दिल्ली छोड़ना नहीं चाहता था। कुछ समय तो मजा आया। काफी कुछ सीखा लेकिन, फिर एडिट पेज की मात्रा, व्याकरण सुधारते, फीचर पेज के लिए बेतुके आर्टिकल लिखते (संगिनी के लिए कहीं से उड़ाकर एक सलाह ये भी लिखी थी कि सुहागरात का मजा बढ़ाने के लिए चादर को फ्रिज में रखें और फिर उसे बिस्तर पर बिछा दें। अब इस सलाह पर हंसी आती है) और जागरण डॉट कॉम की साइट संवारते मन ऊबने लगा। और, पहुंच गया देहरादून।


चारधाम यात्रा


देहरादून में अमर उजाला के लिए जमकर रिपोर्टिंग की। इंडियन मिलिटरी एकेडमी की पासिंग आउट परेड से लोकसभा चुनाव तक। साल भर से ज्यादा का देहरादून का मेरा समय अब तक की पत्रकारिता का सबसे यादगार समय रहा है। कई बड़ी खबरें ब्रेक कीं। ये, अलग बात है कि टीवी और दिल्ली, मुंबई में न होने की वजह से ब्रेकिंग न्यूज लाने वाले रिपोर्टर का तमगा नहीं मिल सका। चारधाम यात्रा के समय करीब डेढ़ महीने अमर उजाला का ऋषिकेश ब्यूरो चीफ भी रहा। ऋषिकेश, चारधाम यात्रा और वहां के लोगों के लिए कितनी बढ़ीं सुविधाएं- इस पर की गई मेरी खबरों की तर्ज पर सभी संस्करणों को वैसी ही खबर करने को कहा गया। त्रिवेणी घाट और परमार्थ निकेतन में शाम का समय अब भी याद आता है। [जारी] अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

उफ , ये तनबदन और तुनुकमिज़ाजी !

रीर या देह के लिए हिन्दी में एक शब्द आमतौर पर बोला जाता है तन-बदन । इन दोनों ही शब्दों का अर्थ एक ही है मगर यह शब्द-युग्म मुहावरे का असर पैदा करता है। वैसे इस शब्द का हिन्दी में प्रयोग उर्दू की देन माना जाता है । ये शब्द फारसी अरबी में भी मौजूद है और माना यही जाता है कि इनकी आमद इन्हीं भाषाओं से हुई है मगर ऐसा है नहीं। ये शब्द आर्यभाषा परिवार के हैं और बरास्ता संस्कृत होते हुए फारसी से अरबी में पहुंचे हैं।

संस्कृत में एक धातु है वद् जिसका मतलब होता है कहना , बोलना आदि । इस धातु से हिन्दी में अनेक शब्द बने हैं । गौरतलब है कि वद् यानी कहने-बोलने की क्रियाएं मुख से ही संपन्न होती है इसलिए इससे बने वदनम् का अर्थ हुआ मुख , चेहरा , मुखड़ा आदि। इससे ही श्रीगणेश के लिए गजवदन (हाथी के मुख वाले) चंद्रवदन(चांद सा चेहरा) कमलवदन (कमलमुख) जैसे नाम प्रचलित हुए हैं। वदनम् से ही प्राचीन फारसी में वदन शब्द प्रचलित हुआ जिसका अर्थ भी देह, शरीर , मुख आदि है। फारसी के प्रभाव में कई मुहावरे भी इससे बने जैसे (तन) बदन मे आग लगना, बदन हरा होना ,बदन टूटना , बदन सूखना ( या सूख कर कांटा होना आदि। यही शब्द अरबी में देह/जिस्म के अर्थ में बदन बन कर ढल गया । बदन से अरबी-फारसी में बदनसाज़ी जैसा शब्द भी चला है जिसका मतलब होता है शरीरसौष्ठव, बॉडी बिल्डिंग आदि। बदन शब्द इंडोनेशिया की भाषाओं में भी जस का तस है। स्पैनिश में एक पोशाक का नाम है अल्बदेना जो कि शरीर पर चिपकी (स्किनटाइट) रहती है, जाहिर है इसी बदन से आ रही है और बदन पर छा रही है ।

ब आते हैं तन पर । इसका जन्म भी संस्कृत धातु तन् से हुआ है जिसका मतलब होता है खींचना, लंबा करना , पतलापन आदि । शरीर का गुण है वृद्धि । समय के साथ शरीर खिंचकर ही युवा होता है । इससे बने हैं तनु अर्थात् सुकुमार यानी दुबला, कुमार। तन् के खिंचाव वाले भाव बखूबी उजागर हो रहे हैं प्राचीन भारोपीय धातु ten में जिसका मतलब भी होता है खिंचाव। तम्बू यानी टेंट इससे ही बना है। गौर करें की तंबू को खींच कर ही ताना जाता है। साफ है की तानना भी तन् से ही आ रहा है। इसी तरह ऊंचे सुरों में लयकारी को संगीत की भाषा में तान कहते हैं जो इसी से उपजी है। पतले सूत्र,तार या धागे को तन्तु कहते है जिसका मूल यही है। यही तन् फारसी में कुछ अर्थविस्तार के साथ पहुंचता है तुनुक बनकर। बात बात पर तन जाने वाला यानी स्वभाव का खिच्चड़ हुआ तुनुकमिज़ाज। तो साफ है कि तन चाहे देह की परिभाषा में सही साबित हो रहा हो मगर बदन तो चेहरा ही है। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Wednesday, June 25, 2008

दरोगाजी से हाथापाई...[बकलमखुद-51]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी और अरुण अरोरा को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के दसवें पड़ाव और बयालिसवें सोपान पर मिलते हैं खुद को इलाहाबादी माननेवाले मगर फिलहाल मुंबईकर बने हुए हर्षवर्धन त्रिपाठी से। हर्षवर्धन पेशे से पत्रकार हैं और मुंबई में एक हिन्दी न्यूज़ चैनल से जुड़े हैं। बतंगड़ नाम से एक ब्लाग चलाते हैं जिसमें समाज,राजनीति पर लगातार डायरी-रिपोर्ताज के अंदाज़ में कभी देश और कभी उत्तरप्रदेश के हाल बताते हैं। जानते हैं बतंगड़ की आपबीती जो है अब तक अनकही-

पहुंचे इलाहाबाद विश्वविद्यालय

खैर, अगले साल मैंने बीकॉम में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। दाखिला बीकॉम में था लेकिन, दोस्त बीए में थे इसलिए इकोनॉमिक्स की क्लास अटेंड करता था। शायद यही प्रेम था कि बाद में इकोनॉमिक्स से ही एमए की डिग्री ली। कोचिंग के दौरान शुरू हुआ छात्रनेताओं का मेल विश्वविद्यालय में आने के बाद बढ़ गया। 50-60 लड़कों की अच्छी गोल होने से सारे नेता अपने साथ रकने को आतुर रहते। मजा आने लगा। यूनियन पर ही मेरी मोटरसाइकिल लगने लगी। यूनियन गेट से लेकर रजिस्ट्रार और वीसी ऑफिस तक का चपरासी नमस्ते भइया करने लगा।

तुम तो सींकिया पहलवान हो...

काउंटर पर बिना लाइन के फॉर्म जमा होने लगा। दो साल बाद हुए 1995 के चुनाव में हम लोगों की गोल के समर्थित सारे नेता अध्यक्ष से लेकर उपमंत्री तक का चुनाव जीत गए, सिवाय प्रकाशनमंत्री के। जाने-अनजाने कब हम लोगों ने विश्वविद्यालय के लफंगों से लड़ने का बीड़ा ले लिया पता ही नहीं चला। मारपीट में मैं सबसे आगे रहता। किसी की लड़ाई होती तो, वो मुझे साथ लेकर जाता। लेकिन, मेरा एक दोस्त कहता था कि तुम सींकिया पहलवान हो कोई तुमसे थोड़े न डरता है, डरते तो, सब तुम्हारी गालियों से हैं जो, तुम एक सांस में दे जाते हो (गालियां याद अब भी हैं लेकिन, अब देता नहीं, अच्छा है ना)।

छात्र आंदोलनों में सबसे आगे

जब का मजा आता था आंदोलन करने में। शुरुआत में तो, ये भी पता नहीं होता था कि किसी आंदोलन में क्यों शामिल हूं। लेकिन, 2-3 सालों में जब समझ में आने लगा और तवज्जो मिलने लगी तो, फिर विश्वविद्यालय के आंदोलनों के फ्रंट के अगुवा लोगों में शामिल हो गया। जब सब परीक्षाएं टलवाने के लिए आंदोलन करते थे। हमने परीक्षाएं सही समय पर करवाने के लिए छात्रनेताओं से ही लड़ाई लड़ी। हम लोगों को ढेर सारे छात्रनेताओं और ज्यादातर छात्रों का समर्थन मिला। एक बार हम लोगों ने छात्रसंघ भवन पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया था लेकिन, इसी बीच शुरू हो गए छात्र आंदोलन की वजह से पुलिस ने छात्रसंघ भवन पर इकट्ठा होने पर रोक लगा दी।

चार फोटो में हीरो

म लोग पहुंचे तो, यूनियन के चपरासी ने बताया कि भैया दरोगाजी ने कहा यूनियन हॉल में भी ताला लगा दो। तब तक ताला लगाने की बेहूदा इच्छा रखने वाले दरोगाजी भी आ ही गए। मैं और मेरे मित्र मनीष थे। दरोगा से हाथापायी हो गई। हम लोगों को भी दो-चार झापड़ पड़े हमने दरोगा का मुंह नोच लिया। जबरदस्ती पीएसी के सिपाहियों की मदद से उठाकर हम दोनों को जीप में डाल दिया गया। खैर, छात्रों के दबाव की वजह से पुलिस को हमें आधे घंटे में ही छोड़ना पड़ गया। लेकिन, दूसरे दिन के अखबारों में पुलिस से मारपीट करती एक साथ छपी चार फोटो ने हीरो बना दिया।

विद्यार्थी परिषद से जुड़ाव

छात्रसंघ चुनावों (1995 के)में हम लोगों की क्षमता देखकर कई नेता हम लोगों को साधने की मुहिम में लग गए। लेकिन, इसमें सफल हुए विद्यार्थी परिषद के तब के संगठनमंत्री। हम लोगों के बीच के एक नेता को उन्होंने परिषद के बैनर पर लड़ाने के लिए पटाने की मुहिम चलाई और हम सारे दोस्तों से बात-व्यवहार शुरू कर दिया। हम सभी दोस्तों को परिषद से लड़ने का फैसला सही लगा और हम सारे लोग परिषद में पहुंच गए। परिषद के पुराने कार्यकर्ताओं में हमारी छवि थोड़ी बदमाश किस्म की थी। उन्होंने कहाकि ये लोग संगठन खराब कर देंगे (ये अलग बात है कि हमारे समय में ही परिषद दो दशकों में सबसे मजबूत दशा में थी)।

आने लगे भाषणों के बुलावे

खैर, परिषद में काम करना मेरे लिए एक शानदार अनुभव रहा। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में मैं भाषण देने के लिए बुलाया जाने लगा। बनारस के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में संविधान समीक्षा पर पेश मेरे प्रस्ताव ने खूब तालियां बटोरीं और अगले दिन के अखबारों में 4-5 कॉलम की सुर्खियां भी। इलाहाबाद में भी कई बड़े सेमिनार वगैरह कराए। कुल मिलाकर परिषद में आने के बाद कई रचनात्मक गतिविधियों से जुड़ा। विश्वविद्यालय के अंदर, छात्रावासों में और विश्वविद्यालय मार्ग पर सैकड़ो पेड़ लगवाए। हरे पेड़ों के बहाने महिला छात्रावास में भी अच्छी छवि बनी। बेहद कम समय परिषद में काम करके ही नेशनल टीम में शामिल हो गया। मुझे होलटाइमर निकालने की भी कोशिश हुई लेकिन, मैंने साफ कहाकि कोई भी काम आधे मन से मैं नहीं कर सकता। ये अलग बात है कि जब तक मैंने परिषद में काम किया होलटाइमर की ही तरह किया।

अति बर्दाश्त नहीं

विश्वविद्यालय में ही हम लोगों की टीम विश्वविद्यालय में बेवजह लफंगई करने वाले लड़कों के खिलाफ मुहिम चलाई। कई बार तो, हमसे सीधे लड़ाई न होने के बाद भी हम उनसे जा भिड़ते थे। इलाहाबाद और इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने ऐसा गढ़ दिया कि इसी जज्बे में हमने इलाहाबाद में शहर पश्चिमी के माफिया विधायक अतीक अहमद (अब जेल में बंद सांसद) के खिलाफ जमकर प्रचार किया। जबकि, हमारी विधानसभा शहर उत्तरी में पड़ती है। एक बार जी न्यूज के एक जनता अदालत टाइप के कार्यक्रम में मैंने अतीक से सीधे सवाल कर डाला था कि आपके ऊपर इतनी हत्याओं का आरोप है और इसी डर से कोई आपके खिलाफ नहीं बोलता। अब, लगता है कि वो जवानी का जोश ज्यादा था। [जारी]


पिछली कड़ी- मैं चपरासी तो नहीं बनूंगा अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Tuesday, June 24, 2008

मैं चपरासी तो नहीं ही बनूंगा...[बकलमखुद-50]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी और अरुण अरोरा को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के दसवें पड़ाव और पचासवें सोपान पर मिलते हैं खुद को इलाहाबादी माननेवाले मगर फिलहाल मुंबईकर बने हुए हर्षवर्धन त्रिपाठी से। हर्षवर्धन पेशे से पत्रकार हैं और मुंबई में एक हिन्दी न्यूज़ चैनल से जुड़े हैं। बतंगड़ नाम से एक ब्लाग चलाते हैं जिसमें समाज,राजनीति पर लगातार डायरी-रिपोर्ताज के अंदाज़ में कभी देश और कभी उत्तरप्रदेश के हाल बताते हैं। जानते हैं बतंगड़ की आपबीती जो है अब तक अनकही-

बेंच पर खड़े हो जाओ

क और घटना केपी कॉलेज की जो, मुझे कभी नहीं भूलेगी। केपी कॉलेज के सबसे दबंग अध्यापकों में से थे- एम एम सरन। सरन साहब का आतंक ये था कि कॉलेज के बदमाश से बदमाश लड़के को भी वो गुस्से में जमकर डंडे से पीटते थे और लड़का सिर झुकाकर अपनी गलती मान लेता था। सरन सर हम लोगों की फिजिक्स पढ़ाते थे। फिजिक्स लेक्चर थिएयर (PLT) कॉलेज के पीछे के हिस्से में लग इमारत में था। एक क्लास में मैं बगल के लड़के से कुछ बात कर रहा था कि उनकी नजर मेरे ऊपर पड़ गई। गुस्से से लाल सरन सर ने मुझे बेंच पर खड़े होने को कहा। मैं चुपचाप सिर झुकाए खड़ा रहा लेकिन, बेंच पर नहीं चढ़ा। गुस्से में सरन सर ने पूछा- तुम्हारे पिताजी क्या करते हैं। मैंने जैसे ही कहा- मैंनेजर हैं। सरन सर ने और गुस्से में पलटकर कहा- तुम चपरासी भी नहीं बन पाओगे। डरने के बावजूद मैंने तुरंत कहा- सर, मैं चपरासी तो नहीं ही बनूंगा।

पिताजी का भरोसा

खैर, मैंने ये बात घर जाकर पिताजी को बताई तो, रात को आठ बजे बैंक के बाद यूनियनबाजी करके लौटे पिताजी तुरंत फिर से तैयार हो गए। यजदी मोटरसाइकिल निकाली और कहा चलो सरन के यहां। किसी तरह खोजकर हम लोग सरन सर के घर पहुंचे। पिताजी पहुंचते ही वहां फट पड़े। बोले- आप अध्यापक हैं गलती पर इसे मार सकते हैं-डांट सकते हैं लेकिन, ऐसे कैसे बोल सकते हैं कि तुम चपरासी भी नहीं बनोगे। पिताजी के आक्रमण के आगे सरन सर थोड़ा बैकफुट पर चले गए। अच्छी बात ये रही कि इंटरमीडिएट में फिजिक्स में मेरे 74/100 नंबर आए। मैंने सरन सर को मार्कशीट दिखाई और, सरन सर ने मेरी पीठ ठोंकी।

इंजीनियर बनाना चाहते थे पिताजी

पिताजी को मुझ पर पूरा भरोसा था लेकिन, उस समय मैं उनकी इच्छा पूरी नहीं कर सका। वैसे अब मुझे लगता है कि पिताजी शायद अब ज्यादा खुश होंगे। उत्तर प्रदेश के ज्यादातर पिताजी लोग अपने बच्चों को इंटर के बाद इंजीनियर-डॉक्टर और बीए के बाद पीसीएस-आईएएस बनाना चाहते थे। इंजीनियर बनाने की चाह लिए मेरे पिताजी ने भी मेरा दाखिला शहर की मशहूर कृष्णा कोचिंग में करा दिया। यहीं पर मुझे वो, मित्रमंडली मिली जो, अब तक मेरे साथ है। विश्वविद्यालय के ठीक सामने कृष्णा कोचिंग थी। इस वजह से विश्वविद्यालय के तब के महामंत्री से दुआ-सलाम होने लगा तो, हवापानी बन गई। जबकि, मेरा दाखिला सीएमपी डिग्री कॉलेज में बीएससी में हुआ था। खैर, मुझे न तो इंजीनियर बनना था और न मैं बना।

नेतागीरी थोड़ी थोड़ी

वैसे, अच्छा ये था कि अपनी सारी इच्छाओं के बावजूद पिताजी ने मुझे कभी कुछ करने से रोका नहीं। बल्कि, यूं कहें कि आज मैं जो कुछ भी हूं वो, पिताजी के मुझ पर और मेरे खुद पर भरोसे की ही वजह से है। बीएससी और इंजीनियरिंग की परीक्षाओं के ठीक पहले यजदी मोटरसाइकिल से मैंने एसएसपी ऑफिस के सामने के बिजली के खंभे को टेढ़ा करने की कोशिश की। खंभे का कुछ नहीं बिगड़ा मैं बिस्तर पर पहुंच गया। और, इस एक्सीडेंट के बाद मेरी मित्रमंडली मेरे और नजदीक आ गई। पूरे तीन महीने बिस्तर पर, उसके बाद हॉकी स्टिक के सहारे दो लोगों के बीच में बैठकर स्कूटर-मोटरसाइकिल से इलाहाबाद भ्रमण। इस तरह के भ्रमण ने थोड़ा नेता भी बना दिया था। [जारी]

पिछली कड़ी - बतंगड़ की बतकही अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Monday, June 23, 2008

हाथी ने दिखाई, हाथ की सफाई !!

हाथी को चाहे मनुश्य से भी अधिक बुद्धिमान माना जाता हो, वह कितना ही पूजनीय हो मगर उसकी गणना पशुओं में ही होती है अर्थात हाथी के चार पैर ही होते हैं । अब ये कहने की बात नहीं कि मानव शरीर को गतिशील बनाने वाली जो चार प्रमुख संरचनाएं (अंग)नज़र आती हैं वे दो हाथ और दो पैर होते हैं। पशुओं को मनुष्य से अलग करनेवाले कई कारणों में एक कारण यह भी है कि पशुओं के शरीर पर नज़र आते ये चार अंग पैर होते हैं और इसीलिए उन्हें चौपाया कहा जाता है।

गर कहा जाए कि हाथी के पास भी हाथ होता है तो शायद कोई यकीन नहीं करेगा मगर हाथी के नामकरण के पीछे उसकी सूंड का ही हाथ है। दरअसल हाथी की सूंड ही उसका हाथ होती है । जितनी सफाई से इसके जरिये असंभव लगनेवाले काम करता है, इन्सान को उन्हें करने के लिए भारीभरकम मशीनों की ज़रूरत पड़ती है। संस्कृत में हाथ के लिए हस्तः शब्द है। हिन्दी का हाथ इससे ही बना है। हाथ कंधे से लेकर अंगलियों की पोरों तक समूचे हिस्से को कहते हैं। हाथ के अगले हिस्से के लिए हथेली शब्द हस्त+तल से बना है।

नुश्य पैरों की बनिस्बत हाथों से ही अधिकांश कार्य व्यापार संपन्न करता है सो रोज़मर्रा की कुछ वस्तुओं के नाम भी इसी मूल से उपजे हैं जैसे हथोड़ा, हथोड़ी । किसी उपकरण की मूठ को हत्था या हत्थी भी कहा जाता है। हथियार,हथकरघा वगैरह भी इसी कड़ी में गिने जा सकते हैं। हाथ की महिमा मुहावरों में नज़र आती है । जितनी कहावतें या मुहावरे रूप को लेकर नहीं बने हैं उससे ज्यादा हाथ से बने हैं मसलन हाथ की सफाई ,हाथ से निकलना, हाथ लगना , हाथ आना, दो-दो हाथ करना , हाथ आज़माना, हाथ डालना , हाथ खाली होना, हाथ खुला होना , हाथ पीले होना आदि।

स्तः से ही बना है हस्तिन् जिसका मतलब हुआ हाथ जैसी सूंडवाला। गौरतलब है कि वो तमाम कार्य , जो मनुष्य अपने हाथों से करता है , हाथी अपनी सूंड से कर लेता है इसीलिए पृथ्वी के इस सबसे विशाल थलचर का हाथी नाम सार्थक है। हस्तिन् का एक अर्थ गणेश भी होता है जो उनके गजानन की वजह से बाद में प्रचलित हुआ। हस्तिनी से बना हथिनी शब्द। श्रंगाररस के तहत साहित्य में जो नायिकाभेद बताए गए हैं उनमें से एक नायिका को हस्तिनी भी कहते हैं। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Sunday, June 22, 2008

बतंगड़ की बतकही [बकलमखुद-49]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून ,बेजी और अरुण अरोरा को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के दसवें पड़ाव और उनपचासवें सोपान पर मिलते हैं खुद को इलाहाबादी माननेवाले मगर फिलहाल मुंबईकर बने हुए हर्षवर्धन त्रिपाठी से। हर्षवर्धन पेशे से पत्रकार हैं और मुंबई में एक हिन्दी न्यूज़ चैनल से जुड़े हैं। बतंगड़ नाम से एक ब्लाग चलाते हैं जिसमें समाज,राजनीति पर लगातार डायरी-रिपोर्ताज के अंदाज़ में कभी देश और कभी उत्तरप्रदेश के हाल बताते हैं। जानते हैं बतंगड़ की आपबीती जो है अब तक अनकही-


मेरा अब तक का सफर


हली बार समझ में आया कि खुद के बारे में लिखना कितना मुश्किल होता है अजितजी ने जब ये कॉलम शुरू किया था तो, सोच ये थी कि ज्यादातर लोगों ने ब्लॉग पर अपने प्रोफाइल में अपने बारे में बहुत ही कम लिखा है। और, ब्लॉगर्स एक दूसरे से परिचित हो सकें इसके लिए बकलमखुद अच्छा जरिया बन रहा है। वैसे लिखा तो, मैंने भी अपने प्रोफाइल में लिखा तो बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन, सच्चाई यही है कि जितना लिखा है वही मेरा अब तक का सफर है। ब्लॉग प्रोफाइल एक लघु उत्तरीय प्रश्न का जवाब है जिसे, अब मैं दीर्घ उत्तरीय बनाने की कोशिश कर रहा हूं।

शर्मीला बचपन


मेरी खुद की बात करें तो, बचपन से अब तक का सफर मेरे व्यक्तित्व में गजब के परिवर्तन की कहानी है। मैं बचपन में बेहद शर्मीला था (कृपया इसका ये सार न निकालें कि अब मैं बेशर्म हो गया हूं)। शायद तब ज्यादातर लड़के, साथ की लड़कियों से थोड़ा शरमाते ही रहे होंगे। हो सकता है तब के पाठ्यक्रम में सेक्स एजुकेशन शामिल नहीं होना! इसकी बड़ी वजह रही हो। मुझे याद है कि पांचवीं कक्षा में मेरे दोस्त ने मुझे जानबूझकर (बदमाशी में) साथ की लड़कियों के आसपास से गुजरते धक्का दे देते थे और मैं तेजी से वहां से भाग खड़ा होता था। पढ़ने-लिखने में टॉपर नहीं था लेकिन, कक्षा के अच्छे बच्चों में गिनती होती थी। साल के अंत में परीक्षा परिणामों के बाद कुछ किताबें इनाम में मिल जाती थीं जो, मेरे अच्छे छात्र होने का सबूत बन जाती थीं।

संस्कृत का प्रकांड विद्वान!

ढ़ाई इलाहाबाद के अल्लापुर मोहल्ले में सरस्वती शिशु मंदिर में हुई। इसकी वजह से ढेर सारे श्लोक मुंहजबानी रटे हुए थे। गर्मियों की छुट्टी में जब गांव जाना होता (अब तो , शायद ही पूरा कोई श्लोक याद हो, गांव अभी 5 साल बाद होकर लौटा हूं।) तो, हर जगह से श्लोक सुनाने की फरमाइश होती और मैं पूरे उत्साह से एक साथ 30-40 श्लोक सुना डालता और जमकर वाहवाही लूटता। ब्राह्मण परिवार में जन्म की वजह से इन संस्कारों पर कुछ ज्यादा ही शाबासी मिलती थी। यहां तक कि मुझे ब्याह-तिलक के समय द्वारचार पर पंडितों के बगल में ही बिठा दिया जाता। शादी के भी काफी मंत्र याद थे अब तो, करीब साल भर पहले हुई अपनी शादी के कई मंत्र समझ में भी नहीं आए। लेकिन, बचपन की नादानी थी कि अगर कोई मुझे रुपए देता तो, मैं उसे छोड़कर सारे सिक्के ही लेता।

कॉलेज से व्यक्तित्व बदलने की शुरुआत

र्मीला स्वभाव और कुछ गिने-चुने दोस्त। मैं पहुंच गया इलाहाबाद के केपी कॉलेज में। केपी कॉलेज की इमारत शहर की बेहतर इमारतों में शुमार की जाती है लेकिन, यहां पढ़ाई का माहौल कुछ बदमाश लड़कों की वजह से बेहद खराब था। या यूं कह लें कि, इस कॉलेज में आकर भी लड़के कुछ बदमाश हो जाते थे। शहर का सबसे बड़ा मैदान भी हमारे ही कॉलेज का था। यूपी रणजी टीम के खिलाड़ी अकसर वहां खेलते (प्रैक्टिस या मैच) रहते थे। इसी मैदान मैं एक बार बैठकर बहुत रोया था। हुआ यूं कि मैं अपने दोस्त के साथ साइकिल पर बैठकर कॉलेज आ रहा था। पता नहीं कैसे मेरा पैर किसी से रास्ते चलते लग गया। थोड़ी देर बाद वहां के आसपास के दो-तीन दूध बेचने वाले आए और मुझे गालियां दीं और एक झापड़ रसीद दिया। मैं और मेरा दोस्त रोते हुए कॉलेज के मैदान में चले गए। जबकि , इसमें मेरी कोई दलती नहीं थी। लेकिन, उस झापड़ ने मुझे बदल दिया। उस दिन मुझे लगा कि ऐसे तो, कोई भी मुझे राह चलते बिना गलती के पीट देगा। और, उस दिन के बाद मैंने ही लोगों को पीटने का एजेंडा बना लिया-बस पिटने का काम खत्म हो गया (फिलहाल अब मारपीट लगभग बंद, गुस्सा आता भी है तो, दबा लेता हूं)। [जारी]

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Saturday, June 21, 2008

कैसे कैसे अड्डे और अड्डेबाज !

अट्टा बाज़ार के बहाने कुछ और शब्दविलास

संदर्भः ऊंची अटरिया में ठहाके


ट्ट पर पिछली कड़ी में हुई चर्चा में कई साथियों ने इसके पीछे से झांक रहे नोएडा के अट्टा बाज़ार को देख लिया है। इस सिलसिले में पल्लव बुधकर ने एक बहुत काम की जानकारी दी है कि अट्टा बाज़ार तो अट्टापीर नाम के किसी सूफ़ी के नाम पर मशहूर हुआ है। यहां हमें भी कुछ बातें सूझ रही हैं।

ट्ट से ही बना है हिन्दी के सर्वाधिक प्रयोग होने वाले शब्दों में एक अड्डा । सचमुच अड्डे की महिमा निराली है। अट्ट में निहित ऊंचाई, जमाव, अटना जैसे भाव जैसे सार रूप में अड्डे में समा गए हैं । आज अड्डा शब्द का प्रयोग ज्यादातर इकट्ठा होने की जगह के तौर पर ही किया जाता है चाहे वह बस अड्डा हो या हवाई अड्डा । गुंडों का अड्डा हो या शराबियों नशेड़ियों का । ये अलग बात है कि समाज ने सभी अड्डों को सुविधानुसार
सभ्य बना दिया है मसलन शराबियों का अड्डा बार कहलाता है, पत्रकारों का अड्डा प्रेस क्लब कहलाता है, पतुरियों मनचलों का अड्डा डांसबार कहलाता है तो व्यापारियों का अड्डा सीआईआई या फिक्की जैसे नामों से जाना जाता है। रंगकर्मियों-संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों के अड्डे अब भारतभवन, जवाहरकला केंद्र, मंडी हाऊस, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर आदि कहलाते हैं और इन तमाम क्षेत्रों के लोगों का सर्वाधिक सम्मानित अड्डा दिल्ली में है जहां वे कभी पांच तो कभी छह साल के लिए जम जाते हैं और वहां के स्थायी सदस्य कहलाते हैं। अड्डे से ही बना है अड्डेबाज और वहां अड्डे का शगल कहलाता है अड्डेबाजी । इसी तरह सूफ़ी-फ़कीरों के डेरे भी अड्डा ही कहलाते थे।

बेशक अट्टा शब्द का मतलब बाज़ार ही होता है । नोएडा के अट्टा बाज़ार में जब हम घूमे तो यही व्युत्पत्ति दिमाग़ में आई थी । आप्टे कोश में भी अट्ट का अर्थ बाज़ार या मंडी ही है। मज़ेदार बात यह कि बाज़ार के लिए हिन्दी में कहीं ज्यादा प्रचलित शब्द है हाट और वह भी इसी अट्ट की देन है। सवाल यह है कि नोएडा के अट्टापीर का नामकरण अट्ट वाले हाट से हुआ है या अट्ट वाले अड्डे से हुआ है। संभव है किसी वक्त वहां सचमुच सूफी का डेरा रहा हो और श्रद्धालुओं के आने जाने के लिए इक्के तांगे वाले वहां अपना अड्डा लगाने लगे हों । दूर गांव से आनेवाले लोगों के लिए वह जगह अड्डापीर या अड्डेवाले पीर का स्थान के रूप में पहचानी जाने लगी हो।

हालांकि संस्कृत में अट्ट की तर्ज पर हट्टः शब्द भी है जो बाज़ार, मेला , मंडी के अर्थ में ही है। बाज़ार से चीज़े उठाने वाले को उठाईगीर या उठाईगीरा बोलते हैं इसी तरह प्राचीनकाल में भी चोरों के वर्गीकरण के तहत बाज़ार से सामान चुरानेवाले के लिए हट्टचौरकः शब्द है। प्राचीनकाल में (और आज भी कहीं कहीं) नगर के समृद्ध बाज़ार में ही कोठे भी होते थे जहां मुजरे से लेकर देह व्यापार तक होता था। अट्ट के मेले वाले अर्थ पर गौर करें तो दूर गांव और परदेस के मुसाफिर जहां खरीदारी करते थे वहीं रंगीले रतन, मनचले और दिलफेंक तवायफों के डेरों पर भी पसरने के लिए पहुंच जाते थे । जाहिर है कारोबार की जगह पर ही दीगर व्यापार की राह भी खुलती है। आप्टेकोश में हट्टविलासिनी शब्द भी मिलता है जिसका मतलब होता है वारांगना, वेश्या या तवायफ़ जो बाज़ार में बैठकर ठाठ से कमाती है। हाट में दुकानदारी करनेवाला हटवार कहलाता है। अब हाट में तो सामान अटा ही रहता है सो अटना, अटकना , अटकाना जैसी बातें आम हैं । ये शब्द इसी मूल से जन्मे हैं। इसी तरह अड़ना अड़ाना जैसे रूप भी सामने आए।

ट्टः या अट्ट से बने हाट के भी कुछ रूप हैं जैसे पंजाबी में हट्टी का मतलब दुकान होता है। मशहूर मसालेवाले जो अब बड़े कार्पोरेट हो गए हैं – एमडीएच, वो दरअसल महाशियां दी हट्टी है अर्थात् महाशय जी की दुकान । कई गांवों शहरों के नाम भी बाज़ारों की जमावट या व्यापार केंद्र के रूप में इस शब्द की वजह से बन गए जैसे गौहाटी जो गुवाहाटी भी कहलाता है। हाट पीपल्या या अटारी । गुवाहाटी नामकरण के पीछे गूवा यानी सुपारी और हाटी यानी हाट या बाज़ार है। गौरतलब है कि असम में सुपारी की पैदावार होती है।


[दिल्ली गाजियाबाद नोएडावालों से अनुरोध है कि अट्टापीर के बारे में प्रामाणिक जानकारी हो तो ज़रूर भेजें या अपने ब्लाग पर छापें। ]
आपकी चिट्ठियां अगली कड़ी के साथ। कुछ ज़रूरी बातें भी करनी हैं आपसे। अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Friday, June 20, 2008

ऊंची अटरिया में ठहाके

ज लॉफ्टर का ज़माना है और यह टीवी शो की बदौलत है वर्ना पूरी दुनिया में हम हिन्दुस्तानी सबसे कम हंसनेवालों में बदनाम हैं। एक ओढ़ी हुई गंभीरता हम सबके स्वभाव में समा गई है। हंसी मज़ाक और उन्मुक्त हास्य तो सिर्फ पंजाबवालों के लिए छोड़ दिया गया है कि भई खुद भी हंस लो , और हमें भी हंसा दो !! लाफ्टर यानी उन्मुक्त हास्य अर्थात ठहाका।

भी सोचा है कि ठहाकों और ऊंची इमारतों में कोई रिश्तेदारी हो सकती है ? दुनियाभर में अब बहुमंजिला इमारतों का दौर है । अक्सर इन्हें स्काईस्क्रैपर, आकाशचुंबी या गगनचुंबी इमारत कहा जाता है। उर्दू में भी इसके लिए फ़लकबोस शब्द प्रचलित है। मगर प्राचीनकाल में बहुमंजिला इमारतों के लिए अट्टालिका शब्द था और आज भी हिन्दीवाले इससे अपरिचित नहीं हैं।

ट्टालिका शब्द बना है सस्कृत धातु अट्ट से जिसका मतलब होता है सीमा लांघना, ऊंचा, निरंतर। गौर करें कि अट्टालिका उसी इमारत को कहा जाता है जो सामान्य से काफी ऊंची हो। यानी सामान्य ऊंचाई का सीमोल्लंघन तो अट्टालिका में होता ही है। अट्टालिका से ही बने हैं अटारी, अटरिया जैसे लोक संस्कृति की महक में रचे-पगे शब्द जो न जाने कितने लोक गीतों में समाए हैं। सूनी अटरिया , ऊंची अटरिया में सांवरिया की
गैरमौजूदगी का उल्लेख अक्सर हिन्दी की तमाम बोलियों के विरह गीतों में सुना जाता है। अमृतसर भारत-पाक सीमा चौकी है अटारी । गौरतलब है कि आज चाहे ये दो देशों को जोड़ने वाला मार्ग है मगर किसी ज़माने में इसके नामकरण के पीछे अट्टालिका शब्द से जुड़ी समृद्धि ही झांक रही है। यूं अटारी का मतलब ऊपरी मंजिल, बालकनी , छत, कोठी, गुंबद या मीनार भी होता है। संस्कृत में आलय यानी आश्रय, निवास, घर या मकान को कहते हैं। अट्ट यानी ऊंचा सो अट्टालिका के ऊंचाई से संबंध से जाहिर है कि एक के ऊपर एक शिलाओं (ईंटों) के जमाव से बने मकान को ही अट्टालिका कहेंगे।

हिन्दी में सामान के अंबार को अटाला भी कहते हैं। गौरतलब है कि अब तो कबाड़ या फालतू चीज़ों के ढेर के लिए ही अटाला शब्द प्रचलित है। ये अटाला भी अट्ट से ही आ रहा है । अट्ट यानी ऊंचा। एक पर एक रखा हुआ। ठसाठस। यानी अटाला ऐसी जगह है जहां सामान अटा पड़ा हो। ऊंची अटारियों में जब सामान के अंबार लगेंगे तो अटाला भी होगा ही। और जहां सामान अटा पड़ा हो तो वहां से गुज़रना तो मुश्किल होगा ही सो अटकते अटकते ही जाना होगा। साफ है कि यह अटकना या अटकाना भी अट्ट की वजह से ही हो रहा है। ऊंचे चूबतरे के लिए मालवी राजस्थानी में ओटला शब्द भी है जो इसी मूल से आ रहा है।

ट्टालिका में अटकते-भटकते अट्टहास भी सुनाई पड़ते हैं। अट्ट यानी ऊंचा और हास् यानी हंसी अर्थात ऊंचे सुर वाली हंसी हुई अट्टहास । अट्टहास का ही विपर्यय हुआ ठहाके में। क्रम कुछ यूं रहा होगा। अट्टहास>अट्ठहास>ठहास>ठहाक>ठहाका । तो साफ है कि ऊंची अटरिया और ठहाकों में क्या रिश्तेदारी है। हालांकि ये तो सिर्फ बात पैदा करने वाली बात है ठहाकों की रिश्तेदारी ग़रीब की झोपड़ी या अमीर की अटारी से नहीं बल्कि इंसान की ज़िंदादिली और खुशमिजाज़ी से है।


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Thursday, June 19, 2008

छप्पन छुरी और असली छुरी

किसी रूपगर्विता के लिए छप्पन छुरी शब्द हम सबने खूब सुना है। यह मुहावरा देशी ज़बान में खूब बोला जाता है। कहानियों और फिल्मों में भी नाज़ो-अंदाज़ वाले स्त्री पात्रों के चरित्र को उभारने के लिए इस विशेषण का प्रयोग होता रहा है। इसका मतलब होता है अपने रुप से पुरुषों पर गहरा वार करने वाली रमणी। इस मुहावरे में छुरी शब्द का अर्थ तो स्पष्ट है मगर छप्पन का अर्थ अज्ञात है। संभव है वर्ण साम्य और मुख-सुख के आधार पर छुरी के साथ छप्पन जैसा संख्यावाची शब्द जोड़ लिया गया हो। अलबत्ता ये माना जा सकता है कि यह मुहावरा राजाओं-नवाबों के दौर की ही देन है जब तवायफ़ों और रूपजीवाओं का जोर था। लोग मनोरंजन के लिए मेलों-ठेलों में मुजरा और नौटंकी देखने जाते थे। ऐसे में न जाने कितनी नायिकाओं के हुस्नो अंदाज़ के बारे में चर्चाएं आम होती थीं। उन्ही की जलवागरी से किसी वक्त छप्पन छुरी जैसे मुहावरे ने जन्म लिया होगा जो तवायफ़ों का वक्त खत्म होने के साथ ही आम बोलचाल में भी उन्हीं अर्थों में समा गया ।

हरहाल, छप्पन छुरी के बहाने से हम बात छप्पन की नहीं बल्कि छुरी और उसकी रिश्तेदारी वाले दूसरे शब्दों की करना चाहते हैं। छुरी यानी छोटा चाकू जिसे बंद भी किया जा सकता हो । कष्ट देना, सताना वाले अर्थों में छुरी चलाना, छुरी फेरना जैसे मुहावरे भी पैदा हुए हैं। छुरी या छुरा शब्द बने हैं संस्कृत की क्षुर् धातु से जिसका मतलब है काटना , खुरचना , गोड़ना आदि। इससे ही बना है क्षुरः शब्द जिसका मतलब होता है उस्तरा, चाकू आदि। क्षुरी या क्षुरिका का रूपांतर हुआ छुरी में।

क्षुर् से बने और भी कई शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं। जानवरों के नाखूनों या सुम के लिए खुर शब्द भी इसी मूल से निकला है। संस्कृत में क्षुरिन् नाई को ही कहते हैं और हजामत के लिए क्षौर शब्द है। जाहिर सी बात है कि नाई का काम बाल काटना है और इसे वह उस्तरे से ही करता है जो एक प्रकार से छुरी (क्षुरिका) ही है।

खेती-किसानी के औज़ारों में खुरपी और खुरपा भी प्रमुख हैं। ज़मीन की निराई-गुड़ाई के लिए लोहे से बने इन्हीं उपकरणों का प्रयोग किया जाता है। खरपतवार काटने, उखाड़ने के लिए भी खुरपी ही काम आती है ये सभी शब्द बने हैं क्षुरप्रः से जिसका मतलब होता है अर्धचंद्राकार धारदार उपकरण। हिन्दी के ही एक और बोलचाल के शब्द खुरदरा या खुरदरापन की भी इससे ही रिश्तेदारी है। खुरदरा का मतलब होता है असमान सतह वाला, उबड़-खाबड़ आदि। गौर करें कि कटी-फटी चीज़ की सतह भी असमान ही होती है। सो क्षुर् से ही खुरदरा भी जन्मा है। अब खुरदरी सतह को हमवार करने के लिए खुरचना ज़रूरी होता है सो साफ है कि खुरचन शब्द भी इसी धातु की देन है। वैसे खुरचन (खुरचनमलाई) एक मशहूर मिठाई भी है। देवनागरी के क्ष वर्ण की विशेषता यही है कि देशज रूप में कभी यह ध्वनि में बदलता है और कभी उच्चारा जाता है।

गौरतलब है कि संस्कृत की धातु क्षः में मूलतः हानि, नाश, खेत, किसान आदि अर्थ समाहित हैं और इससे बने तमाम शब्दों में इसी की भाव उभरता है जैसे क्षर यानी पिघलना, नष्ट होना, क्षत यानी चोट लगना , क्षति यानी नुकसान आदि। जाहिर है कि क्षुर् भी इसी श्रृंखला की कड़ी


[इसे भी देखें- यूं ही नहीं आखर अनमोल]
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Wednesday, June 18, 2008

छिनाल का जन्म

हिन्दी में कुलटा , दुश्चरित्रा, व्यभिचारिणी या वेश्या के लिए एक शब्द है छिनाल । आमतौर पर हिन्दी की सभी बोलियों में यह शब्द है और इसी अर्थ में इस्तेमाल होता है और इसे गाली समझा जाता है। अलबत्ता पूरबी की कुछ शैलियों में इसके लिए छिनार शब्द भी है ।

छिनाल शब्द बना है संस्कृत के छिन्न से जिसका मतलब विभक्त , कटा हुआ , फाड़ा हुआ, खंडित , टूटा हुआ , नष्ट किया हुआ आदि है। गौर करें चरित्र के संदर्भ में इस शब्द के अर्थ पर । जिसका चरित्र खंडित हो, नष्ट हो चुका हो अर्थात चरित्रहीन हो तो उसे क्या कहेंगे ? जाहिर है बात कुछ यूं पैदा हुई होगी- छिन्न + नार > छिन्नार > छिनार > छिनाल

छिन्न शब्द ने गिरे हुए चरित्र के विपरीत पुराणों में वर्णित देवी-देवताओं के किन्ही रूपों के लिए भी कुछ खास शब्द गढ़े हैं जैसे छिन्नमस्ता या छिन्नमस्तक । इनका मतलब साफ है- खंडित सिर वाली(या वाला)। छिन्नमस्तक शब्द गणपति के उस रूप के लिए हैं जिसमें उनके मस्तक कटा हुआ दिखाया जाता है। पुराणों में वर्णित वह कथा सबने सुनी होगी कि एक बार स्नान करते वक्त पार्वती ने गणेशजी को पहरे पर बिठाया। इस बीच शिवजी आए और उन्होंने अंदर जाना चाहा। गणेशजी के रोकने पर क्रोधित होकर शिवजी ने उनका सिर काट दिया। बाद मे शिवजी ने गणेशजी के सिर पर हाथी का सिर लगा दिया इस तरह गणेश बने गजानन ।

सी तरह छिन्नमस्ता देवी तांत्रिकों में पूजी जाती हैं और दस महाविद्याओं में उनका स्थान है। इनका रूप भयंकर है और ये अपना कटा सिर हाथ में लेकर रक्तपान करती चित्रित की जाती हैं। हिन्दी में सिर्फ छिन्न शब्द बहुत कम इस्तेमाल होता है। साहित्यिक भाषा में फाड़ा हुआ, विभक्त आदि के अर्थ में विच्छिन्न शब्द प्रयोग होता है जो इसी से जन्मा है। छिन्न का आमतौर पर इस्तेमाल छिन्न-भिन्न के अर्थ में होता है जिसमें किसी समूह को बांटने, विभक्त करने , खंडित करने या छितराने का भाव निहित है। छिन्न बना है छिद् धातु से जिसमें यही सारे अर्थ निहित है। इससे ही बना है छिद्र जिसका अर्थ दरार, सूराख़ होता है। छेदः भी इससे ही बना है जिससे बना छेद शब्द हिन्दी में प्रचलित है। संस्कृत में बढ़ई के लिए छेदिः शब्द है क्योंकि वह लकड़ी की काट-छांट करता है।

आपकी चिट्ठियां

फर की पिछली तीन कड़ियों-चितकबरी चितवन और चांटे, हम सब भ्रष्ट हैं और कपड़े पहनो चीथड़े उतारो पर सर्वश्री समीरलाल , दिनेशराय द्विवेदी, अभय तिवारी, लावण्या शाह,घोस्ट बस्टर, डॉ अनुराग आर्य, माला तैलंग, बालकिशन,मीनाक्षी , डॉ चंद्रकुमार जैन, पल्लवी त्रिवेदी, ज्ञानदत्त पांडे, अभिषेक ओझा, ममता और विजय गौर की प्रतिक्रिया मिली। साथियों , आपकी हौसला अफ़जाई से सफर लगातार जारी है। बहुत बहुत शुक्रिया... अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Tuesday, June 17, 2008

कपड़े पहनो, चीथड़े उतारो, !

ज़िदगी की बुनियादी ज़रूरतों को उजागर करता रोटी, कपड़ा और मकान का मुहावरा हर वक्त सबकी ज़बान पर रहता है। यूं तो हिन्दी में पोशाक के लिए वस्त्र जैसा शब्द भी है मगर इस अर्थ में बोलचाल में सर्वाधिक जो शब्द इस्तेमाल होता है वह है कपड़ा । वस्त्र शब्द में जहां पोशाक यानी सिले हुए परिधान का भाव शामिल है वहीं कपड़े में ऐसा नहीं है। हिन्दी में सिली हुई पोशाक के लिए भी कपड़ा शब्द का इस्तेमाल कर लिया जाता है और बिना सिली के लिए भी। आमतौर पर कपड़े पहनना या कपड़े उतारना या कपड़े सिलवाना जैसे वाक्य प्रयोग एक साथ कई अर्थों में बोले सुने जाते हैं। किसी वक्त अपने मूल रूप में इस शब्द का मतलब जीर्ण-शीर्ण वस्त्र ही था।

प्राचीनकाल से ही कपड़े की कपास यानी रुई से गहरी रिश्तेदारी है। कपास यानी एक पौधा जिसके फल पकने पर शुभ्र-धवल-रेशेदार फ़सल मिलती है जिसे कातने पर सूत बनता है और फिर बुनकर उससे कपड़ा तैयार करता है। कपास बना है संस्कृत के कर्पासः से जिसका मतलब होता है वह पौधा जिसके डोड़ें से रुई निकलती है। इसी तरह एक अन्य शब्द है कर्पटः या कर्पटम् जिसका मतलब है फटा-पुराना, जीर्ण-शीर्ण कपड़े का टुकड़ा , थेगली लगा वस्त्र आदि। कर्पटः का ही बिगड़ा रूप है कपड़ा जो हिन्दी में अपने मूलार्थ की तुलना में सुधर गया और सामान्य वस्त्र के अर्थ में ढल गया। कर्पासः और कर्पटः दोनों ही बने हैं कृ धातु से । यह वही कृ धातु है जिससे संस्कृत हिन्दी में कई तरह के शब्द बने हैं । कृ का मतलब होता है करना, निर्माण करना, बनाना, रचना, धारण करना , पहनना, ग्रहण करना आदि। रुई की धुनाई, कताई ,सुताई से लेकर कपड़ा बनाने और फिर वस्त्र निर्माण सम्पन्न होने से लेकर उसे धारण करने तक की क्रियाओं में ये सभी अर्थ स्पष्ट हो रहे हैं। गौरतलब है कि कपड़े का मराठी-गुजराती रूप कापड़ होता है। व्यवसाय आधारित समूदायों की पहचान वाले समाज में कपड़ा बेचनेवाले के लिए कपाड़िया या कापड़िया सरनेम चल पड़ा जो बाद में गुजराती वणिकों के एक वर्ग में प्रचलित भी हुआ। यह ठीक वैसे ही हुआ जैसे वसन(वस्त्र) से वस्सन होते हुए बजाज शब्द बन गया अर्थात जो कपड़े का व्यवसाय करे। [विस्तार से देखें यहां]

ब आते हैं कपड़े यानी कर्पटः के मूल अर्थ यानी जीर्ण-शीर्ण और फटे हुए वस्त्र पर । हिन्दी में आमतौर पर ऐसे कपड़ों के लिए एक शब्द खूब प्रचलित है चीथड़ा अर्थात फटा – पुराना, थिगले-पैबंद लगा हुआ वस्त्र। ज्यादा इस्तेमालशुदा वस्त्र या पुराना वस्त्र आमतौर पर इसी गति को प्राप्त होता है। यह बना है संस्कृत के छिद्र से जिसका मतलब होता है दरार, सूराख, कटाव, दोष या त्रुटि आदि। यह बना है छिद् से जिसमें काटना, खंड-खंड करना और नष्ट करना जैसी क्रियाएं शामिल हैं। जाहिर सी बात है ये सब लक्षण जीर्ण-शीर्ण अवस्था ही जाहिर करते हैं। कपड़े के सन्दर्भ में छिद्र ने छिद्र > छिद्द > चिद्द > चीथ आदि रुप बदले होंगे।
[कुछ अन्य मिलते जुलते संदर्भों पर अगली कड़ी में चर्चा] अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Sunday, June 15, 2008

हम सब भ्रष्ट हैं !!!

घुमक्कड़ी का भ्रष्टाचार से भला कोई रिश्ता हो सकता है ? दूर की कौड़ी लाई जाए तो कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचारी व्यक्ति, पुलिस से बचने के लिए इधर-उधर मारा-मारा फिरता है [ये अलग बात है कि पुलिस खुद ही भ्रष्ट है और भ्रष्टाचारी को छुपने के तरीके बताती है]। चलिये, जानते हैं भ्रष्ट और भटकन की रिश्तेदारी ।
घूमने-फिरने से संबंधित शब्दावली में यूं तो सैलानीपन, सैरसपाटा, घुमक्कड़ी, यायावरी, पर्यटन, बंजारापन और तो और आवारगी जैसे शब्द खूब इस्तेमाल होते हैं। घूमने फिरने की शब्दावली का ही एक शब्द है भटकन या भटकना । घुमक्कड़ी या सैरसपाटा यूं तो सौद्धेश्य ही होता है और अंत में ज्ञानार्जन ही होता है। मगर निरुद्धेश्य सी घुमक्कड़ी भी कई बार होती है जिसे आवारगी भी कह सकते हैं। मगर भटकन का अर्थ इन तमाम व्याख्याओं से भी हटकर है। भटकन में व्यर्थ का घूमना-फिरना तो शामिल है मगर खास बात यह कि निरुद्धेश्य तो मनुश्य अपनी मर्जी से भी घूम सकता है मगर भटकने में सिर्फ उसका ही दोष नहीं होता।

टकन शब्द का सही भाव है गुमराह होना, रास्ता भूल जाना। इसी तौर पर भटकों को रास्ता दिखाने वाला मुहावरा भी कहा जाता है। यानी भटका वही है जो रास्ता भूल चुका है। यह शब्द बना है संस्कृत के भ्रष्ट से। संस्कृत का यह शब्द बोलचाल की हिन्दी में रोज़ाना इस्तेमाल होने वाले सर्वाधिक शब्दों में एक है। भ्रष्ट शब्द बना है संस्कृत धातु भ्रंश से जिसका मतलब होता है गिरना, टपकना, विचलित होना आदि। इससे बने भ्रष्ट में भी इन तमाम अर्थों समेत गुमराह, विचलित , गिरा हुआ, दुश्चरित्र, पतित, बर्बाद जैसे अर्थ भी शामिल हो गए। कुल मिलाकर भ्रष्ट वह है जो अपने मार्ग, स्थान, पद, गरिमा व चरित्र के मद्देनज़र उचित व्यवहार न करे। जो अपने इन गुणों से वंचित हो जाए वहीं भ्रष्ट है। इसीलिए भटके हुए व्यक्ति को पथभ्रष्ट कहा जाता है। भ्रष्ट यानी बिगड़ा हुआ । भ्रष्टाचारी, भ्रष्टाचरण जैसे शब्द अखबारों में रोज़ पढ़ने को मिलते हैं। ये अलग बात है कि भटका हुआ व्यक्ति आज मासूम और वक्त का मारा माना जाता है मगर उसे भ्रष्ट तो कतई नहीं कहा जाता । यूं भी जानबूझकर कोई ग़लत रास्ते पर चलना नहीं चाहेगा, खासतौर पर भटकन के अर्थ में। मगर विडम्बना है कि भ्रष्ट या भ्रष्टाचार शब्द का अर्थ आज सभी जानते है मगर सामाजिक जीवन में हममें से ज्यादातर लोग भ्रष्ट हो चुके हैं, या होने को उतारू बैठे हैं। हाल ये हैं कि छात्र जीवन से तय कर लिया जाता हैं कि किस व्यवसाय में भ्रष्टाचार की गुंजाइश है, वहीं हाथ आज़माया जाए !

संस्कृत से पैदा हुई भाषाओं में एक भाषा अपभ्रंश भी कही जाती है। यूं अपभ्रंश का मतलब होता है पतित, गिरा हुआ, ऐसे शब्द जो व्याकरण की दृष्टि से सही न हों, भ्रष्ट भाषा या संस्कृत से भिन्न कोई भी भाषा। गौर करें कि जब संस्कृत को देवभाषा कहा जाता है तो हर भाषा अपभ्रंश ही हुई न ! इस तरह भ्रष्ट का अपभ्रंश रूप हुआ भट जिसमें कई तरह के प्रत्यय लगने से भटकना, भटकाना, भटका, भटकल, भटकैयां जैसे कई शब्द बन गए। साफ है कि जिसे अपने रास्ते से , उद्देश्य से विचलित कर दिया गया हो वहीं भटकैयां या भटकल है। ऐसा करना ही भटकाना है और यूं फिरते रहना ही भटकन है।


[इस पोस्ट का अधिक आनंद लेने के लिए किस्सा ए यायावरी की नौ कड़ियों को पढ़ना न भूलें। ] अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Saturday, June 14, 2008

चितकबरी चितवन और चांटे !!!

धूसर, धब्बेदार या रंग बिरंगे के अर्थ में हिन्दी में आमतौर पर चितकबरा शब्द प्रयोग किया जाता है। पालतू प्राणियों की पहचान के लिए भी आमतौर पर चितकबरा शब्द चलता है जैसे चितकबरी बिल्ली, चितकबरा कुत्ता या गाय आदि। चितकबरा का मतलब सामान्यतः रंगीन ही होता है मगर कुछ लक्षणों के आधार पर धूसर या काला-सफेद-धूसर के तौर पर ही लोग इसे याद करते हैं। रंगीन के लिए ज्यादातर तो बहुरंगी या रंग-बिरंगा जैसे शब्द ही बोले-समझे जाते हैं। वैसे चितकबरा का एक आम लक्षण तो है धब्बेदार होना। गौर करें चित्र शब्द पर। यह बना है संस्कृत के चित्र् से जिसका मतलब होता है उज्जवल, धवल, रुचिकर, रंग-बिरंगा, तसवीर, छवि आदि। धब्बे से इसका अर्थविस्तार हुआ और व्हाइट स्पॉट ( सफेद कोढ) के लिए भी चित्रः शब्द संस्कृत में मिलता है। आसमान को भी चित्र कहा जाता है क्योंकि इसमें या तो धब्बेदार बादल नज़र आते हैं या बादलों से बनी आकृतियां दिखती है। धब्बे के लिए हिन्दी में चित्ता शब्द है और धब्बेवाली वस्तुओं को चित्तीदार कहा जाता है। संस्कृत में एक शब्द है चित्रकः अर्थात एक ऐसा चौपाया जिसके शरीर पर धब्बेनुमा चित्र बने हैं। जाहिर सी बात है कि बिल्ली और शेर का रिश्तेदार चीता ही इस परिभाषा में फिट बैठ रहा है क्योंकि उसका नामकरण हुआ ही चित्रकः से है। चितकबरा का अगला हिस्सा भी संस्कृत के कर्बु से बना है जिसका मतलब हुआ चित्तीदार। इससे बने कर्बुर मतलब होता है चित्र-विचित्र रंग, सफेद-भूरा सा आदि। बहरहाल चित्र+कर्बुर से बने चितकबरा शब्द जितना लुभावना दरअसल है वैसा समझा नहीं जाता।

नाज़नीनों की तिरछी चितवन के दीवानों को अक्सर कुछ उपहार भी मिल जाते हैं जिन्हें बजाय संभाल कर रखने के , वे उन्हें भुला देना ही पसंद करते हैं। ये होता है थप्पड़ या चांटा । अब ये तो उम्र  तक़ाज़ा है और नज़रों की इनायत कि कोई देखता कहीं है और उसे देखते हुए देखने वाले कभी थप्पड़-चांटे खा रहे होते हैं , तो कभी चारों खाने चित्त हो रहे होते हैं । चित्त, चित, चिंत, चित्र आदि शब्द श्रंखला में ही आता है चितवन जैसा एक और शब्द। यह बना है संस्कृत के चित् से जिसमें देखा हुआ, प्रत्यक्ष ज्ञान, नज़र डालना, दृष्टिगोचर करना जैसे अर्थ इसमें समाहित हैं और चित में निहित संचित, संग्रह किया हुआ, इकट्ठा किया हुआ  (जिससे चिता शब्द बना है) भाव भी शामिल है। गौर करें कि चितवन में पैनी , लुभावनी, चंचल नज़र तो शामिल है ही साथ ही इसमें कनखी का भाव भी है जिसमें एक पल में दुनिया को समेट लेने का , जिसे देखना चाहें उसे दिल में बसा लेने का , चुन लेने का अर्थ भी उजागर हो रहा है। वाल है कि ये चितवन कैसे अपना काम करती है ? अब दुनिया में रंगभेद को चाहे आलोचना सहनी पड़ती हो मगर इश्क में रंगभेद नहीं होता। कभी ये सांवले-सलोने पर काम करती है तो कभी गोरे-चिट्टे पर। हमें सांवला-सलोना भी समझ में आता है और गोरा भी। मगर ये चिट्टा क्या है ?  ये चिट्टा भी इसी कड़ी में आता है और चित्र् से ही जन्मा है । चित्र् में निहित उज्जवल, धवल जैसे शब्द गोरा-चिट्टा के अर्थ को भरपूर आधार प्रदान कर रहे हैं। चितवन का अर्थ कटाक्ष भी होता है और तिरछी नजरिया भी। इसे ही तिरछी चितवन कहते हैं। चित्ताकर्षक प्रेमी के लिए चितचोर शब्द भी इसी श्रंखला से बंधा है। पारखी और कद्रदां के अर्थ में चितेरा-चितेरी जैसे शब्दों की भी इनसे रिश्तेदारी है। मगर जब परख में कुछ खोट नज़र आता है तो उसकी परिणति चांटे यानी थप्पड़ के रूप में ही होती है। गौर करें चित्र् का अर्थ होता है धब्बा। जब गाल पर थप्पड़ पड़ता है तो अंगुलियों के निशान उभर आते हैं। संभव है इसी लिए उसे चांटा कहा जाता है।  अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Friday, June 13, 2008

ख़ानाख़राब है...

चारों खाने चित्त वाले मुहावरे में आए चारों खाने वाले हिस्से का जहां तक सवाल है, इसे समझना बेहद आसान है। धरती पर पड़े किसी परास्त व्यक्ति की मुद्रा पर गौर करें तो उसके हाथ-पैर चारों दिशाओं में फैले रहते हैं। हालांकि कई लोग इसका चार शाने चित्त गिरना भी प्रयोग भी करते हैं। हिन्दी के शब्दकोशों में इसका यह रूप भी देखने को मिलता है मगर इसकी व्याख्या नहीं मिलती। आज जो लोकप्रिय प्रयोग चलन में है वह चारों खाने चित्त नज़र आता है।

ख़ाना शब्द यूं तो फारसी का है जिसका मतलब होता है घर, निवास, मकान आदि। दीवार या आलमारी का आला या स्थान, कोटर, संदूक या बक्से का विभाग या कोष्ठ। चारदीवारी से घिरे स्थान को भी ख़ाना कहा जाता है। क़ैदख़ाना , बजाजख़ाना,नक्क़ारख़ाना जैसे कई शब्द हमें याद आ सकते हैं। बर्बादी के अर्थ मे ख़ानाख़राब जैसा आमफ़हम मुहावरा भी इसी शब्द की देन है। इस तरह अगर देखें तो चौखाना शब्द भी नज़र आता है। ज्योतिषीय रेखाओं और पंचांग के वर्गाकारों, षट्कोणों को भी ख़ाना ही कहा जाता है। गौर करें कि चौपड़ भी चौखानों का ही खेल है और जब गोटी किसी दूसरे के वर्ग में पहुंचती है तो उसे भी घर ही कहा जाता है। यह ख़ाना शब्द भी मूलतः इंडो-ईरानी परिवार का ही शब्द है। संस्कृत में इससे मिलता-जुलता शब्द है कोणः जिसका मतलब होता है कोना जो इसी मूल से बना है, एक दूसरे को काटनेवाली रेखाओं के बीच का झुकाव या स्थान अथवा वृत्त के बीच का स्थान अर्थात घिरा हुआ स्थान। गौर करें कि अखाड़ा भी एक घिरा हुआ स्थान ही है और उसके भी चार कोने होते है।

खाना या कोणः मूलत रूप से इस भाषा परिवार की उसी धातु में निहित अर्थों की ओर इशारा कर रहे हैं जिनमें घिरे हुए स्थान, असमानता जैसे पहाडी क्षेत्र, वक्रता ( टहनियों को मोड़कर ही अस्थाई घर बनाया जाता है ) आदि का भाव आता है जो अंततः घर से जुड़ता है। कुट् धातु में यही सारे भाव समाहित हैं जिनसे कुटिया, कोटर, कुटीर, कोट यानी दुर्ग , कुटज यानी मटका या घड़ा आदि शब्द बने हैं जो घर या निवास और अंततः घिरे हुए स्थान का बोध ही कराते हैं चाहे वह पहाड़ी कंदरा ही क्यों न हो। फारसी के कोह शब्द पर गौर करें जिसका मतलब भी पहाड़ ही होता है और इस संदर्भ में कोहिनूर को भी याद कर लें। [विस्तार से देखें यहां]

मगर विभिन्न स्रोतों से पता चलता है कि इस कहावत का मूल फ़ारसी है। इसीलिए इसमें चारों शाने चित का प्रयोग सही है। हालाँकि चारों खाने चित में भी वही भाव है जो शाने में है। फारसी मे एक शब्द है चारशानः जिसका मतलब होता है मोटा ताजा, बड़े डील डौल का पहलवान आदि। मगर इस मुहावरे के अखाड़ेवाले संदर्भ में तो यह सही बैठ रहा है मगर मतलब तब भी नहीं निकल पा रहा है। दरअसल 'शाने' में दिशा, ओर, भुजा जैसे आशय हैं। यह बना है पहलवी के शानग से जिसमें तरफ़, दिशा, डैना, पंख जैसे आशय हैं। मुहावरे में इसका अर्थ हुआ चारों दिशा में फैला हुआ। चारों भुजाओं के साथ अर्थात दोनों पैर, दोनो हाथों को फैलाए हुए, छितराए हुए पीठ के बल पड़ा हुआ। खाने में भी चार दिशाओं या खोण का आशय है। हमारे हिसाब से तो चारों खाने या चारों शाने का मतलब चार दिशाएं यानी अखाड़े के चारों कोने या एक घिरे हुए स्थान यानी रिंग में चित्त या परास्त हो जाने से ही है।

मगर बहुत मुमकिन यह भी है कि शाने का ही रूपभेद खाने हुआ हो। भारत-ईरानी परिवार में श का रूपान्तर ख होता है।

 [अगली कड़ी में इन्हीं सदर्भों से मिलते जुलत कुछ और शब्दों पर चर्चा]

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Thursday, June 12, 2008

चारों खाने चित्त

पूरी तरह परास्त करने या होने के अर्थ में हिन्दी में एक कहावत बड़ी मशहूर है – चारों खाने चित्त। यहां जो चित्त शब्द आ रहा है उसका संबंध चित भी मेरी पट भी मेरी के चित या चित्त से कतई नहीं है। हालांकि चित-पट में भी सिक्के के गिरने का ही भाव है और चारों खाने चित्त में भी यही भाव है। चारों खाने चित्त मूलतः अखाड़ेबाजी का शब्द है जिसमें एक पहलवान दूसरे को परास्त करने के लिए ऐसा दांव लगाता है कि दूसरा ज़मीन पर पेट या पीठ के बल बिछ जाता है। लगभग साष्टांग मुद्रा में या उसके उलट । बस, यही है चित्त होना। अब जो चित्त हो गया सो उसकी तो हेठी हो ही जाती है सो, जो चित्त हुआ वह छोटा यानी कमज़ोर और जिसने चित्त किया वो बडा यानी ताक़तवर।

चित्त बना है संस्कृत के क्षिप्त से जिसका मतलब होता है फेंका हुआ , बिखेरा हुआ , उछाला हुआ या लेटा हुआ । क्षिप्त से चित्त की यात्रा कुछ यूं रही है > क्षिप्त > खिप्त > छिप्त > छित्त > चित्त। यहक्षिप्त बना है संस्कृत धातु क्षिप् से जिसमें फेंकना, डालना, अपमान करना , प्रहार करना, दूर करना आदि। गौर करें इसके फेंकने के अर्थ पर । किसी वस्तु या जीव को उठाकर फेंकने पर उसकी अवस्था क्या होगी ? उसे धराशायी ही कहेंगे न ! अब गौर करें कि कई वस्तुओं या अधिक मात्रा में कुछ फेंका जाने पर क्या होता है ? जाहिर है वह वस्तु फैल जाती है , बिखर जाती है। इसके लिए हिन्दी मे एक आमफ़हम शब्द है छितरना या छितराना यानी स्कैटर्ड। यह शब्द भी इसी धातु मूल यानी क्षिप् से उपजा है । अब छितरायी हुई, फैली हुई चीज़ो को समेटने की क्रिया के लिए हिन्दी में एक शब्द है संक्षिप्त । यह इसी मूल से बना शब्द है। सम + क्षिप्त = संक्षिप्त , अर्थात जिसे समेटा गया हो। एक अन्य शब्द है संक्षेप । यानी छोटा। यह भी इसका ही संबंधी है। संक्षिप्तिकरण, संक्षेपीकरण और संक्षेपण भी इससे ही बने अन्य शब्द हैं जिनमें छोटा करने का भाव है। अब साफ़ है कि क्षिप् में निहित फेंकने के भाव का अर्थविस्तार पटखनी खाकर चित्त होते हुए छोटा होने तक जा पहुंचा है।
इससे मिलते-जुलते संदर्भों पर अगली कड़ी में चर्चा और आपकी चिट्ठियां
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Tuesday, June 10, 2008

चित भी मेरी, पट भी मेरी

हिन्दी में आमतौर पर मनमानी करने , अपनी ही चलाते रहने या हर तरफ से लाभ उठाने की सोचने वाले के लिए एक कहावत है- चित भी मेरी पट भी मेरी । यह कहावत बनी है चित-पट से । अंग्रेजी में इसे हैड्स टैल्स भी कहते हैं। जब कभी कोई बात तय करनी होती है तो आमतौर पर सिक्के को उछाल कर देखा जाता है कि वह किस तरफ गिरता है। इसमे एक तरफ का हिस्सा चित कहलाता है और दूसरी ओर का पट। आज भी दो समूहों में खेले जाने वाले खेल में पहले पारी की शुरुआत इसी ढंग से होती है। इसे टॉस करना भी कहा जाता है। अब अगर कोई व्यक्ति सिक्के के दोनों पहलुओं पर अपनी ही बात पर अड़े तो उसे मनमानी ही कहेंगे न ? इसीलिए चित भी मेरी, पट भी मेरी जैसी कहावत का जन्म हुआ। लेकिन कभी कभी सिक्का किसी भी पहलू पर गिरने की बजाय खड़ा ही रह जाता है ! इस स्थिति में अनुभवी लोगों ने लगभग तानाशाह किस्म के लोगों के लिए कहावत में कुछ जोड़ दिया है – चित भी मेरी , पट भी मेरी , खड़ा मेरे बाप का !!! है न मज़ेदार !

हरहाल, देखते हैं कि क्या है चित-पट के मायने। चित या चित्त (मन या अन्तःकरण वाला चित्त नहीं) बना है संस्कृत के चित्र से जिसका अर्थ होता है उज्जवल, स्पष्ट, धब्बेदार, तस्वीर, छवि। आदि। चित्र का अर्थ आकाश भी होता है क्योंकि इसमें भी बादलों के धब्बे या आकृतियां नज़र आती हैं। इस चित्र का चित-पट कहावत में अर्थ स्पष्ट है। चित-पट सिक्के से ही किया जाता है। गौर करें कि प्राचीनकाल से ही सिक्के राज्यसत्ता द्वारा ही चलाए जाते रहे हैं और हर सत्ताधीश सिक्कों पर अपनी तस्वीर ढालने के मोह से बच नहीं पाया है। सिक्के के जिस पहलू में शासक का चित्र अंकित रहता है उसके लिए ही चित शब्द प्रचलित हुआ और दूसरा हिस्सा पट कहलाया।

ट यानी सिक्के का वह पहलू जो सपाट हो या चित्रविहीन हो। यह पट बना है संस्कृत की पत् धातु से । पत् यानी गिरना, नीचे आना, फेंकना आदि। इससे ही बना है हिन्दी का पड़ना अर्थात गिरना शब्द। पत् का अपभ्रंश रूप ही हुआ पट। गौर करें कि इस पट का संस्कृत के ही पट्ट यानी वस्त्र से कोई लेना देना नहीं है। पत् से ही हिन्दी का पत्ता ( जो वृक्ष से गिरता है) पतित, पतन-अधोपतन जैसे शब्द बने हैं। कुश्ती में काम आने वाले पटखनी या धोबीपाट जैसे शब्द भी इस पत् या पट की देन हैं। मगर पटखनी वाले अर्थ में जो चित्त शब्द है उसका इस चित (चित्र )से कोई लेना देना नहीं है। सपाट, पटकी, पटकना आदि शब्द भी इसी मूल से जन्मे हैं। कुल मिलाकर पट सिक्के का वह पहलू जो पूरी तरह से सपाट होता है। तो इस तरह सामने आए सिक्के के दोनो पहलू चित और पट और उससे बनी अर्थगर्भित कहावत चित भी मेरी , पट भी मेरी ( खड़ा मेरे बाप का ! )


[इसी से मिलते-जुलते कुछ अन्य संदर्भों पर अगली कड़ी मे चर्चा ] अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Sunday, June 8, 2008

तो पंगेबाज को आप जान गए[बकलमखुद-48]

ब्लाग दुनिया में एक खास बात पर मैने गौर किया है। ज्यादातर ब्लागरों ने अपने प्रोफाइल पेज पर खुद के बारे में बहुत संक्षिप्त सी जानकारी दे रखी है। इसे देखते हुए मैं सफर पर एक पहल कर रहा हूं। शब्दों के सफर के हम जितने भी नियमित सहयात्री हैं, आइये , जानते हैं कुछ अलग सा एक दूसरे के बारे में। अब तक इस श्रंखला में आप अनिताकुमार, विमल वर्मा , लावण्या शाह, काकेश ,मीनाक्षी धन्वन्तरि ,शिवकुमार मिश्र , अफ़लातून और बेजी को पढ़ चुके हैं। बकलमखुद के नवें पड़ाव और सैंतालीसवें सोपान पर मिलते हैं फरीदाबाद के अरूण से। हमें उनके ब्लाग का पता एक खास खबर पढ़कर चला कि उनका ब्लाग पंगेबाज हिन्दी का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला ब्लाग है और वे सर्वश्रेष्ठ ब्लागर हैं। बस, तबसे हम नियमित रूप से वहां जाते ज़रूर हैं पर बिना कुछ कहे चुपचाप आ जाते हैं। ब्लाग जगत में पंगेबाज से पंगे लेने का हौसला किसी में नहीं हैं। पर बकलमखुद की खातिर आखिर पंगेबाज से पंगा लेना ही पड़ा।



जीवन मे हमेशा जो रास्ता नजर आया उस पर बिना सोचे समझे मैं चलता रहा. जोखिम उठाने मे अब कोई परेशानी भी नही थी. खोने को अब कुछ था भी नही. पाने की तमन्ना भी नही रही. मैने अपने को काम मे इतना व्यस्त कर लिया कि बुरे दिन तिल तिल कर कब गुजरे,मुझे पता ना चला.कब स्कूटर फ़िर आ गया, कब उसने अपने को दो से चार पहियो मे बदल डाला . आधे भारत का चक्कर लगाकर बाबा फ़रीदी के नगर मे आकर फ़िर से अपने सपनो कॊ दुनिया मे आ बैठा, जो सपने कभी किरच-किरच हो टूट गये थे,वापस जमीन पर उतर आये.

हां ऊपर वाले ने मेरे लिये शायद यही जगह सुरक्षित कर रखी थी. उसे मुझे यही ठेल कर लाना था.शायद इसी लिये जब भी मैने सोचा कि अब शायद मंजिल आ गई है, जब भी महसूस किया ठहराव आ गया है, मै लेटने के लिये जगह तलाश रहा होता, उपर वाला फ़िर पीछॆ से लात मार देता और मै मजबूरन चल पडता .एक महाआलसी आदमी को कुछ देने का शायद उसका यही तरीका होगा.

संघर्ष तो हर जगह है. सोच मे है.किसी के लिये हाथ से टुकडा तोड कर खाना भी मेहनत का काम है . जरा सोच कर देखिये टुकडा तोडो फ़िर सब्जी मे लगाओ फ़िर मुंह तक ले जाओ और फ़िर जबडे को दाये बाये उपर नीचे हिलाते रहो. बहुत मेहनत का काम है जी .कोई सोने से भी थक जाता है. चाहो तो आप सीढी चढते समय मजे लेकर चढ सकते हो और चाहो तो हर कदम पर सोच सकते हो कितनी मेहनत का काम है हर बार पैर को एक फ़िट उपर उठाओ फ़िर अपना वजन उपर उठाओ फ़िर पैर एक फ़िट उपर .

तसवीर जिंदगी की
बनाते है सब यहा
जैसी जो चाहता है
मिलती है लेकिन कहा
हर आरजू पूरी हो
होता ऐसा अगर
कांटों के साथ ना होता
फ़ूलो का ये सफ़र
बस यही है मेरा सफ़र



ब्लोगिंग

मैने एन डी टी वी पर नारद अक्षरग्राम की परिचर्चा के बारे मे सुना और मै सदस्य बन गया . परिचर्चा के दौरान वहां मुलाकात हुई घुघूती जी से ,मनीष जी से और पंडित जी से . मुक्कालात हुई अमित जी से, ये पैरोडी नही झेलना चाहते थे और मै जो कविता देखता उसी की तुकबंदी कर डालता .गिरिराज जी मुझे वाकई कवि बनाने के चक्कर मे लग गये. मै तो वही मस्त था, लेकिन मास्साब(श्रीश जी ) को कुछ ब्लोगर्स से पुराना हिसाब चुकाना था और उन्होने ये काम मेरे से कराने की ठान ली थी. जबरद्स्ती मुझे ब्लोग की दुनिया मे लेकर आये तब मैने ब्लोग बनाया चौपाल . तब तक मैने नारद पर ब्लोग देखे भी नही थे .मैने ब्लोग पर कुछ लिखा और मास्साब के बताये तरीके से नारद जी को चिट्ठी लिखी. जवाब आया कुछ ढंग का लिखिये तब छापेगे .मैने गुस्से मे ब्लोग उडा दिया.फ़िर एक दिन शाम को दुबारा दो पैग लगाकर ,मैने सोचा ये सब बडे बडे लिक्खाड़ है धुंरंधर है. तो क्या हुआ अपन भी इनसे पंगा लेते है,दुबारा ब्लोग बनाया गया नाम चुना पंगेबाज और फ़िर भेजा नारद को, अबकी बार नारद जी ने इसे पसंद कर लिया और ये ब्लोग नारद मे शामिल हो गया. इसलिये जिस किसी सज्जन को मेरे से कोई शिकायत शिकवा हो कृपया मास्साब यानी श्रीश जी को ही गरियाये, वो ही मुझे यहा लाये थे और अपना ये मकसद पूरा करने के बाद ब्लोगिंग की दुनिया को बाय कर गये .

बाद की कहानी तो आप सभी जानते है काफ़ी लोगों ने यहां सहायता की. जमने मे,महाशक्ति(प्रमेंद्र) ने मेरा ब्लोग सजाया. स्टेट काऊंटर लगा कर दिया.घुघुती जी ने साहस बढाया .जीतू जी से तर्क करते करते तर्कशील बन गये. देबाशीश जी ने हिंदी सिखाई, हम तो सीख गये बकिया वो भूल गये लेकिन इसके लिये हम जिम्मेदार नही है :) .नीरज जी ,ज्ञान जी, समीर भाईधुरविरोधी जी ,अभय जी,काकेश जी शिव जी नाहर भाई ,संजय/ पकंज बैंगाणी, चिपलूनकर जी और प्रमोद जी के पतनशील साहित्य को पढकर ब्लोग पर टिपियाते टिपियाते हमारी पंगो मे धार आई, और मैथिली जी ने आखिर कार हमे डाट काम तक पहुचा ही दिया.आलोक जी और मसीजीवी परिवार से हमे अपने शिक्षकों से रही नाराजगी को इनके उपर निकालने का अवसर मिला. भाई अध्यापक अध्यापक एक समान.

मै अकेला ही चला था,जानिबे मंजिल की और
लोग मिले पंगे लिये,हम प्रसिद्ध होते गये




आभार
जिसका मै सबसे ज्यादा ऋणी हूं अपनी पत्नी को,और बडे बेटे को जिसने हमेशा मेरा बोझ बाटने की कोशिशें की. जिसने बिना कोई सवाल किये मेरा साथ दिया ,जिसका वक्त पर उसका हक था मैने अपने कार्य को दिया,जिसने मेरी पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों मे हमेशा मेरी कमी को पूरा किया. दुख बस यही है कि आज इस वक्त मेरे पिता मेरे साथ नही हैं,वो जब तक रहे हमेशा मेरे लिये परेशान रहे और आज जब मै वाकई मे अपने पैरों पर खडा हूं,उनके लिये संम्बल बन सका हूं, वो देखने मे लिये हमारे बीच नही है. पर उम्मीद करता हूं की वो जहा कही भी होंगे उनके आशीर्वाद की छत्र छाया हमारे परिवार पर हमेशा बनी रहेगी. समाप्त अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...


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