Thursday, December 17, 2009

शराबी की शामत, कबाबी की नहीं

 

tikka kabab

...कबाब इतना स्वादिष्ट है कि इसने न सिर्फ खानेवाली जबान को फायदा पहुंचाया, बल्कि बोलनेवाली जबान को भी कुछ मुहावरे दे दिये, जैसे जल-भुन कर कबाब होना यानी ईर्ष्या की आग में जलना, दिल जलाना। सीख का कबाब होना यानी किसी के इश्क में मुब्तिला होना

भा रतीय खानपान की शोहरत दुनियाभर में है। हिन्दुस्तानी मसालों की लज्जत ने ही सात समंदर पार के फिरंगियों को भारत के लिए आसान रास्ता खोजने को मजबूर किया। इससे पहले तक अरब सौदागरों के जरिये हिन्दुस्तानी जायका यूरोप तक पहुंचता रहा। भारतीय खानपान में जो विविधता है, उसके पीछे अलग अलग कालखंडों में यहां आकर बसनेवाले लोग भी रहे। इस्लामी दौर में अरबी मिठाइयों, तुर्की-ईरानी ढंग की लजीज भोजन सामग्रियों और पकवानों ने भी भारतीय खानपान परम्परा को समृद्ध किया। कबाब ऐसी ही चीज हैं जिसके जिक्र भर से मुंह में स्वाद घुल जाता है। इसका शुमार नमकीन व्यंजनों में होता है तथा रोजमर्रा के भोजन से लेकर खास दावतों तक में जिसकी  मांग रहती है। यह अरबी संस्कृति से आया है।  कबाब की मूलतः दो किस्में हैं (1) टिक्का कबाब (2) सीख कबाब। लज्जत की एक भरीपूरी और खुशबूदार दुनिया इन्हीं दो खास कबाबों में सिमटी हुई है। इन दोनों किस्मों के दर्जनों तरह के नाम हैं और पकाने की बेशुमार तरकीबें। मूल रूप में कबाब मांसाहारी व्यंजन है, हालांकि भारत के धुरंधर पाकशास्त्रियों और गृहस्थी में जायके का महत्व समझनेवाली होशियार गृहिणियों ने शाकाहारियों के लिए कबाब की कई विधियां बनाई हैं, मगर इसकी पहचान मांसाहारी व्यंजन की ही रही है। कबाब की शोहरत बहुआयामी है। यह इतना स्वादिष्ट है कि इसने न सिर्फ खानेवाली जबान को फायदा पहुंचाया है, बल्कि बोलनेवाली जबान को भी कुछ मुहावरे दे दिये हैं, जैसे जल-भुन कर कबाब होना यानी ईर्ष्या की आग में जलना, दिल जलाना। कबाब में हड्डी यानी किसी मामले में अड़चन या रुकावट आना, सीख का कबाब होना यानी किसी के इश्क में मुब्तिला होना आदि। किसी मदिरा-व्यवसनी व्यक्ति को अक्सर शराबी-कबाबी sharabi kababi कहा जाता है। जाहिर है सिर्फ शराबी की शामत आती है। कबाबी होने में कुछ बुराई नहीं।
पने अरबी मूल रूप में कबाब का अर्थ है मांस के तले हुए छोटे-छोटे टुकड़े। अरबी का कबाब बना है सेमिटिक धातु क-ब-ब (k-b-b) से जिसमें जलाना, जला कर कोयला बनाने का भाव है। इससे बना आरमेइक या अक्कद भाषा का शब्द कबाबा जिसका अर्थ होता है भूनना, तलना। इसका अगला रूप हुआ कबाब जिसका अर्थ हुआ मांस के तले हुए टुकड़े। अंगरेजी में इसका रूप हुआ kebab, फारसी में यह कबाब ही रहा, सर्बियाई में cevap, तुर्की में कबाप और उज्बेकी में कबोब kabob जैसे

seekh-kebabs tikkamoongkebab1टिक्का कबाब विशुद्ध भारतीय नाम है। टिकिया शब्द बना है संस्कृत शब्द वटिका के वर्णविपर्यय से जिसका अर्थ है गोल चपटी लिट्टी या लोई। इसका रूपांतर ही टिक्का के रूप में हुआ। समझदार गृहिणिया शाकाहारियों के लिए कटहल, सोयाबीन, जिमीकंद के कबाब बनाती हैं जो किसी मायने में असली कबाब से कमतर नहीं होते।

रूप इसने लिए। मध्यकाल में ईरान में तब्हाजिया नाम की एक नॉनवेज डिश बड़ी मशहूर थी, जिसमें मीट के बहुत बारीक कतरों को मसालों में लपेट कर रखा जाता, बाद में उन्हें तला जाता, फिर तरह तरह की चटनियों के साथ खाया जाता था। याद रखें, मसालों का इस्तेमाल करने में फारस के लोग अरबो की तुलना में बढ़े-चढ़े थे। आठवीं नवीं सदी के बाद, ईरान में जब अरबी प्रभाव बढ़ा, तो ईरानी में कबाब शब्द का प्रवेश हुआ। बाद के दौर के शाही खानसामों नें तब्हाजिया को जायकेदार बनाने की नई तरकीबें ढूंढी और मीट के बारीक कतरों को पीस कर बनाए कीमे को मसालों में लपेट कर पकौड़ियों की तरह तलना शुरु किया। खास बात ये हुई कि तब्हाजिया नाम की जगह कबाब लोगों की जबान पर चढ़ गया।  दरअसल आज के कबाब का सही मायने में रूप तभी सामने आया।
बाब के शैदाइयों ने कबाब पर प्रयोग करना जारी रखा। तब तक फारस के मसाला-कबाब की शोहरत तुर्किस्तान तक पहुंच चुकी थी जहां बारबेक्यू barbeque अर्थात भट्टी पर रखी लोहे की छड़ों पर मांस को रख कर भूनने की परम्परा रही है। तुर्कियों नें कीमे की गोलियों को तलने की बजाय लोहे की पतली सलाइयों में मसालेदार कीमे को लपट कर ऊपर से तेल का लेप चढ़ाया और इस तरह सामने आया शीश-कबाब (shish kebab).मूल अरबी में यह शीवा कबाब था जो मांस के टुकड़ो पर नमक लगा कर भूनने से बनता है। अरबी के शीवा shiwa का मतलब होता है भूनना, या भूनने का कांटा। तुर्की में इसका रूप हुआ शीश-कबाब यह बहुत कुछ हमारे हिन्दुस्तानी सीख कबाब जैसा ही था। मगर सीख कबाब का जन्म भी फारस में ही हुआ जब तुर्की शीश कबाब का चर्चा फारस पहुंचा। फारसी में लोहे की सलाख को सीखचा भी कहते हैं। प्रसंगवश बताते चलें कि सलाख salakh और हिन्दी का सलाई एक ही मूल के शब्द हैं और इंडो-ईरानी भाषा परिवार से निकले शब्द हैं। संस्कृत में तीक्ष्णता या चुभोने के लिए शल् धातु है। कांटे के अर्थ में हिन्दी के शूल में इसकी चुभन महसूस की जा सकती है। शल्य चिकित्सा यानी सर्जरी में इसकी चीरफाड़ भी समझ से परे नहीं है। इससे बना शब्द शलाकिका अर्थात सूई। जिसका मतलब होता है छोटी छड़ी, दण्ड, खूंटी, बाण, तीली, पतला तीर आदि। क्रम कुछ यूं रहा- शलाकिका > सलाईआ > सलाई से। शलाकिका से ही ईरानी रूप बना सलाख। सो जब फारस में कबाब को सीखचे पर भूना जाने लगा तो उसे नाम मिला सीखचा-कबाब या सीख-कबाब। सीख या सीखचा भी इंडों-ईरानी मूल से निकले शब्द हैं। संस्कृत में चुभोना, बींधना जैसे अर्थों को प्रकट करनेवाली धातु है सूच् जिससे बने सूचिः शब्द से बना है सूई शब्द। सूचिः > सूचिका > सूईया > सूई यह क्रम रहा है हिन्दी की सूई बनने में। दर्जी के लिए संस्कृत में सूचिकः शब्द है। ईरानी के पूर्व रूप अवेस्ता में सूचिकः का वर्ण-विपर्यय हुआ और इसका रूप हुआ सीखचः (सीखचह>सीखचा) अर्थात लोहे की तीक्ष्ण छड़, सलाई आदि। हिन्दी में सीखचा का प्रयोग जंगले के तौर पर भी होता है जो लोहे की छड़ों से बनी जाली होती है। मगर सही मायने में सीखचा का फारसी में सूई, सलाख, लोहे की छड़ जैसे अर्थ ही हैं। सीखचा का ही संक्षिप्त रूप हुआ सीख। सीखचा-कबाब का सीख-कबाब रूप ही दुनियाभर में मशहूर है जिसमें सीख पर चढ़ा हुआ मसालेदार कीमा भूना जाता है और जब उसकी सुनहरी, सुर्ख नलियां सीख से उतार कर चटपटी चटनी-सॉस के साथ परोसी जाती है तो लोग उंगलियां चाटते रह जाते हैं।
सीख कबाब के अलावा कबाब का जो रूप दुनियाभर में मशहूर है वह है टिक्का कबाब यानी मीट से बने कीमे की वह लोई या टिकिया जिसे तवे पर हल्के से तेल के साथ भूना जाए। इसे बनाने के लिए मीट को कई मसालों और चने की दाल के साथ पकाया जाता है। फिर इसे महीन पीस कर इसकी टिकिया बनाई जाती हैं। टिक्का कबाब विशुद्ध भारतीय नाम है। टिकिया शब्द बना है संस्कृत शब्द वटिका के वर्ण-विपर्यय से जिसका अर्थ है गोल चपटी लिट्टी या लोई। इसका रूपांतर ही टिक्का के रूप में हुआ। समझदार खवातीन ( बहुत कम ) शाकाहारियों के लिए कटहल, सोयाबीन, जिमीकंद के कबाब बनाती हैं जो किसी मायने में असली कबाब से कमतर नहीं होते। हां, मिक्सवेज के कबाब भी बहुत खूब लज्जत रखते हैं। पनीर-टिक्का जैसे व्यंजन भी शाकाहारियों की जीभ पर मांसाहार का रोमांच (?) पैदा कर देते हैं।

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28 कमेंट्स:

Arvind Mishra said...

क्या अजित भाई ...सुबह सुबह जायका ......हाँ हमने कबाब में हड्डी का भी जिक्र बहुधा सुना है ...रोचक और जानकारी से परिपूर्ण !

Udan Tashtari said...

लार टपकाते और भोपाल के कबाब याद करते पूरी पोस्ट पढ़ना पड़ी..इस बार भोपाल के कबाब आपके जिम्मे, जब हम आयेंगे तब!! :)

मनोज कुमार said...

अच्छी जानकारी। धन्यवाद।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

जानकारी तो मिली मगर जायका खराब हो गया!
गोश्तखोरों के लिए बढ़िया पोस्ट है!

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत गरम पोस्ट है हम जैसे शाकाहारी तो पढ़ते पढ़ते कबाब हो गए, सुबह सुबह!

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

शराब और कबाब दोनों एक साथ हो - मतलब जाड़े में पसीना आना है.....सर्दी का सही लुत्फ़ तो इसी सफ़र में है बस.

अविनाश वाचस्पति said...

कबाब की चर्चा
और ख्‍वाब की नहीं
अपनों की चर्चा
और सपनों की नहीं
आजकल कबाब
होते हैं शाकाहारी भी
यही कबाब का ख्‍वाब है।

ghughutibasuti said...

कबाब या मांस का भुनना सुनते ही वर्षों पहले की अरब बाज़ारों की यह गंध फिर से याद आ गई .
घुघूती बासूती

Khushdeep Sehgal said...

अजित जी,

वैसे तो आपने ट्राई कर ही रखे होंगे, अगर नहीं तो कभी लखनऊ जाएं तो टुंडे के कबाब का जायका ज़रूर लीजिएगा...खैर, अपने लिए तो अब ये सब बीते ज़माने की बात हो गया है...पिछले तीन साल से शाकाहार अपना लिया है...

जय हिंद...

abcd said...

उफ़ ! कबाब और तंग्द्दिया,भेजे मे सौरमंडल की तरह घूम रही है ..जायकेदार पोस्ट है भाई साब !!!.अजित भाई की जय हो.....

Mansoor ali Hashmi said...

'शाकाहारी श्लाकिका' पर कबाब चढ़ बैठे,
शब्दों की इस पोस्ट पे ये क्या जनाब मढ़ बैठे!
लार तो टपकी लाला* की, पंडितजी** बेचारे,
राम-राम जपते-जपते आलेख ये पढ़ बैठे.

*समीरलालजी,
**दिनेशराय द्विवेदीजी

विष्णु बैरागी said...

'सीख कबाब' पहली बार जाना/पढा। अब तक 'सींक कबाब' ही सुना/पढा था। जानकारी के लिए धन्‍यवाद।

Dr. Shreesh K. Pathak said...

कैसे कर लेते हैं इतना शोध...जबर्दस्त..आभार..!

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छी जानकारी। धन्यवाद।

अजित वडनेरकर said...

@अरविंद मिश्र
कबाब में हड्डी वाला मुहावरा याद दिलाने का शुक्रिया अरविंदजी।

अजित वडनेरकर said...

@डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक
सफर में तो वेजिटेरियन और नॉनवेजिटेरियन दोनो ही तरह के लोग शामिल होते हैं शास्त्रीजी। अपन भी शुद्ध शाकाहारी हैं। इन्सान में गोश्तखोरी की फितरत भी अल्लाह की मर्जी से ही है।

अजित वडनेरकर said...

@खुशदीप सहगल
भाई, टुंडे के कबाब चाहे लखनऊ के नाम से प्रसिद्ध हों, मगर इसे बनाने वाले कारीगर अवध के नवाब के यहां भोपाल रियासत से ही गए थे। भोपाली नुस्खा ही आज भी जायका बिखेर रहा है।

अजय कुमार झा said...

वाह अजित भाई ,
क्या लजीज पोस्ट है......मजा आ गया ..और मुंह का स्वाद भी बन गया

हिमांशु said...

सुन्दर प्रस्तुति । आभार ।

kshama said...

ज़ायकेदार पोस्ट !

रंजना said...

यूँ तो कबाब में हड्डी का अब तक के जीवन में कितनी बार प्रयोग किया ,यह गिन पाना असंभव है पर शाकाहारी होने के कारण कबाब की पाक विधि कभी विस्तार से जानने का यत्न नहीं किया,परन्तु शब्द यात्रा क्रम में इतना कुछ पढ़ बड़ा ज्ञानवर्धन हुआ....
आभार आपका...

zeashan zaidi said...

लखनऊ में सींख कबाब के रूप में काकोरी कबाब काफी मशहूर हैं.

डॉ टी एस दराल said...

भाई, हम भी शुद्ध शाकाहारी हैं.
क्या बोलें ?

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

कबाब वाह वाह जायके का सफ़र .

Baljit Basi said...

१ "कबाब में हड्डी" कह कर क्यों मांसाहारी लोगों को कोस रहे हो, इसके बराबर शाकाहारी मुहावरा भी है " दाल में कोकड़ू(hard grain) होना"
२ अजित समेत सभी शाकाहारी लोगों ने नाक से मांसाहारी व्यंजननो का आनंद लिया है.

निर्मला कपिला said...

हम भी शुद्ध शाकाहारी हैं क्या कहें मगर शायरी मे प्रयोग तो कर सकते हैं । अजित जी आज महफूज़ के ब्लाग पर एक पोस्ट देखी है संस्कार शब्द किसी भी देश के शब्द कोश मे नहीं है क्या इस शब्द की उत्पति पर आप भी प्रकाश डालेंगे? धन्यवाद्

Abhishek Ojha said...

हमने भी कुछ वेज कवाब खाए हैं... आजकल कई रेस्तरां में मिलते हैं वेज कवाब.

अजित वडनेरकर said...

@बलजीत बासी
1) भाई, शाकाहारी सिर्फ शाकाहारी होते हैं और मांसाहारी भी शाकाहार करते हैं सो उनके नसीब में कबाब की हड्डी और दाल का कंकर दोनों होते हैं। शाकाहारी सिर्फ दाल के कंकर को कोस सकता है। मांसाहारी तो हड्डी भी चबाता है। तब कबाब की हड्डी पर नखरा क्यों दिखाता है:)
जाहिर है ये कहावत शाकाहारियों ने नहीं, मांसाहारियों ने ही बनाई है।
2) नॉनवेज व्यंजनों की जिस खुशबू की आप बात कर रहे हैं वह विशुद्ध वनस्पतिजन्य मसालों से आती है। मांस की नैसर्गिक गंध के साथ कोई भी मांसाहारी व्यक्ति नॉनवेज नहीं खाना चाहेगा। मांस की नैसर्गिक गंध के साथ मांसाहार तो सिर्फ पशु ही करते हैं। इसीलिए जीवित पशु में भी उन्हें जीवन के सौन्दर्य के दर्शन नहीं, सिर्फ आहार की गंध आ रही होती है। इन्सान चालाक है। वनस्पति पदार्थो में लपेट कर मांसाहार करता है और खुद को शाकाहारियों से श्रेष्ठ समझता है।

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