Wednesday, June 30, 2010

छाई पच्छिम की बदरिया…[मेघ-1]

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बा रिश हो या न हो, तेज धूप में बादल का एक टुकड़ा सूरज की तपिश से राहत दिलाने को काफी है। बादल एक परदा है सूरज और धरती के बीच। नन्हें जलकणों का वितान हैं मेघ यानी बादल। हिन्दी का बादल शब्द संस्कृत के वारिद का रूपांतर है। यहां वर्ण विपर्यय भी भी हुआ है। की जगह ने ली और के स्थान पर आया। संस्कृत में वार् का अर्थ होता है पानी, जल। वारि बना है वृ से जो अनेकार्थक धातु है। इसमें व्याप्ति, विस्तार और आवृत्ति का भाव है। आवृत्ति में वृ शब्द में निहित दोहराव, व्याप्ति, चक्रगति के भाव शामिल हैं।जल से जुड़ी प्राकृतिक स्थितियों में ये अर्थ स्पष्ट हैं। जल सब तरफ व्याप्त है। आर्यभाषा बोलनेवाले भाषाई समूह उस क्षेत्र के निवासी थे जहां भरपूर पानी था। आर्यजन समुद्र से लेकर हिमक्षेत्र तक पसरे हुए थे इसीलिए समुद्र के लिए भी इसी मूल से उपजा वारिधिः शब्द मिलता है।  विकासक्रम में उन्हें जल की जीवनतत्व से रिश्तेदारी भी ज्ञात हुई। जल की विभिन्न अवस्थाओं में आवृत्ति का भाव है। वर्षा में भी यही वार् या आवृत्ति झलक रही है।  गरमी से जल का वाष्प बनना और फिर बारिश की बूंदों में पृथ्वी पर लौटना एक आवृत्ति या चक्र का पूरा होना ही है।
बादल का मूलार्थ समझने के लिए वारिद का अन्वय जरूरी है। वारि + द =वारिद। वारि यानी जल। संस्कृत की धातु में देने का भाव है। यह प्राचीन भारोपीय भाषा की लोकप्रिय ध्वनि है और इससे कई शब्द बने हैं जैसे संस्कृत हिन्दी का दानम्, दान, अंग्रेजी का डोनेशन आदि। सो वारि में जुड़ने से अर्थ निकला जल प्रदान करनेवाला। स्पष्ट है वारिद का निहितार्थ बादल से है। पृथ्वी के समस्त जलस्रोतों से उठी वाष्प जब आकाश में जलकणों के रूप में घनीभूत होती है तब वारिद कहलाती है। यही जलकण जब अनुकूल समय पर गिरते हैं तो बारिश कहलाते हैं। बारिश शब्द वर्षा से व्युत्पन्न है। बरसात भी वर्षात का देशज रूप है। बरखा शब्द यहीं से आ रहा है और बरसना भी इसी मूल का है। साल के अर्थ में वर्ष शब्द की इसी वर्षा से रिश्तेदारी है क्योंकि प्राचीनकाल में काल गणना में मनुष्य का ऋतुबोध ही सहायक question-cloud हुआ। एक वर्षा से दूसरे वर्षाकाल तक का समय ही सभी ऋतुचक्रों के पूर्ण होने का द्योतक था। सभी ऋतुओं का गुजर चुकना ही एक वर्ष पूरा होने का प्रमाण है। इस तरह वर्ष बना वर्षा से। मगर बात वारिद की हो रही है। वारिद का रूपांतर बादर हुआ जिससे बादल बना। बदरिया, बदरी, बदली, बदरा जैसे इसके अन्य लोकप्रिय रूप हैं जो हिन्दी की कई बोलियों में हैं जिनमें लोकसंस्कृति की महक रचीबसी है। इनका प्रयोग बोलचाल और लोकसाहित्य में खूब होता है।
सी कड़ी में आता है वरुण जो वार् से ही बना है। वरुण को पुराणों में जल का देवता माना गया है। इसे पश्चिम दिशा से संबंधित या पश्चिम का देवता भी कहा जाता है। गौर करें भारत में मानसून लानेवाली पछुआ हवाएं हैं। यूं पूर्वी हवाएं भी बरसनेवाले बादलों को आर्यावर्त में धकेलती थीं पर बादलों की राह पश्चिम की ओर ही ताकी जाती थी। जाहिर है पछुआ हवाएं उधर से ही आती हैं। पछुआ शब्द पश्चिम का ही देशज रूप है। पश्चिम से पच्छिम, पच्छिअ फिर पछुआ। वरुण से ही बना वारुणि जिसका अर्थ ही पश्चिम दिशा है। भाव स्पष्ट है जल की दिशा। जहां पानी है। भारत के पड़ोस में, पूर्व में स्थित एक द्वीपराष्ट्र ब्रुनेई का नाम भी इसी वरुण से जुड़ा है जो किसी ज़माने में मलेशिया का हिस्सा था जहां प्राचीनकाल से भारतीय संस्कृति का प्रसार प्रचार होता रहा है। मलेशियाई भाषा में वरूण ने बरूनाह का रूप अपना लिया जिसका अर्थ निकलता है बसने लायक जगह। करीब एक हजार साल पहले जब मलेशियाई यहां बसने आए तो यहां के प्राकृतिक सौंदर्य से प्रभावित होकर उन्होने इस जगह को यही नाम दिया। तेरहवीं सदी तक यहां हिन्दू धर्म था। चौदहवी सदी में यहां राजा ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया और पंद्रहवीं सदी में यहां के दूसरे सुल्तान ने अपने देश का नया नाम बरूनाह की जगह रखा ब्रुनेई। इस तरह हिन्दी का वरुण हो गया ब्रुनेई।
दिवासी गोंड समाज में बादल को बिदरी कहा जाता है। आदिवासी समाज में बिदरी पूजा एक प्रमुख अनुष्ठान है जो कृषि संस्कृति का एक अनिवार्य अंग है। बिदरी पूजा दरअसल वर्षा के अधिष्ठाता इन्द्रदेव को प्रसन्न करने का अनुष्ठान है जो जेठ या आषाढ़ में के महीने में पहली बारिश होने के बाद सोमवार या गुरुवार को किया जाता है। भूमिपुत्र बैगा इसके अधिकारी हैं। डॉ त्रिलोचन पाण्डेय के गोंडी-हिन्दी शब्दकोश के मुताबिक गोंडी सयाने अर्थात झाड़फूंक करनेवाले को बैगा कहते हैं। मेरे विचार में यह शब्द भी आर्य भाषा परिवार से गोंडी बोली में गया होगा। मूल रूप में यह शब्द है विज्ञ अर्थात् विद्वान, बुद्धिमान, चतुर, चालाक, जिसका रूपांतर विज्ञ > बिग्य > बिग्ग > बैगा के क्रम में हुआ। आदिवासी गोंड समाज में बैगा का बहुत मान सम्मान है। बैगा शब्द झाड़फूंक करनेवाले के अर्थ में रूढ़ हो गया मगर मूल रूप में समाज के सर्वाधिक अक्लमंद, बुद्धिमान और विचारवान व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता रहा होगा। कालांतर में आदिवासी समाज के कर्मकांड करानेवाले के लिए बैगा शब्द प्रयोग हुआ क्योंकि साधारण व्यक्ति को रीति-संस्कारों की जानकारी नहीं होती इसीलिए पुरोहित का सम्मान होता है। आदिवासियों में एक जाति का नाम ही बैगा है जो मूलतः पुरोहित ही होते हैं। बिदरी पूजा भी बैगा ही कराते हैं क्योंकि वे पुरोहित हैं और मेघनाथ को प्रसन्न करने की विधि सिर्फ वे ही जानते हैं। इस पूजा में मूर्गे की बलि प्रमुख है। खास बात यह कि आदिवासी अंचल में अच्छी फसल के लिए बिदरी पूजा बहुत जरूरी है और यह सिर्फ बैगा ही सम्पन्न कराता है इसलिए हर आबादी में एक बैगा को अनिवार्य रूप से बसाया ही जाता है।

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Sunday, June 27, 2010

आज़ादी और ज़ात-बिरादरी

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ज़ादी किसे प्यारी नहीं होती। यह एक ऐसा लफ़्ज़ है जिसमें खुद्दारी है, हौसला है, भरोसा है, सुकूं है और सबसे बढ़कर है वो रूमानियत जिसके लिए खुदा ने हमें ज़िंदगी बख़्शी है। यूं कहें कि ज़िंदगी का नाम ही आज़ादी है। विडम्बना यह कि हमने जीने का जो ढर्रा अपनाया हुआ है, वह हमें आज़ादी नहीं देता। हमने खुद को न जाने कितनी तरह की बेड़ियों में जकड़ रखा है। आज़ादी की चाह सबमें होती है क्या इनसान, क्या जानवर। हमारी बनिस्बत जानवर किन्हीं मामलों में ज़्यादा आज़ाद है। यह भी सच है कि आज़ादी का असली मज़ा तब है जब आपने गुलामी झेली हो। बंदिशों के बिना आज़ादी बेलज्ज़त है। आज़ाद शब्द हिन्दी का अपना हो चुका है मगर इसकी आमद सैकड़ों साल पहले बरास्ता फारसी हुई थी। इंडोयूरोपीय भाषा परिवार की भारत-ईरानी शाखा का यह शब्द मूलतः पूर्ववैदिक शब्दसमूह से विकसित हुआ है।
ज़ाद का अर्थ है स्वाधीन, स्वतंत्र, खुदमुख्तार, आत्मनिर्भर, बंधनमुक्त, बेपरवाह, निडर, स्वामी वग़ैरा वग़ैरा। आज़ाद यानी फ़ारसी का aazaad ( āzād ) मध्यकालीन फारसी में आज़ात āzāt था। प्राचीन अवेस्ता में भी इसका रूप यही था। समझा जा सकता है कि फ़ारसी में यह अवेस्ता से इसी रूप में पहुंचा और फिर की तब्दीली में हो गई और Birdsआज़ात ने आज़ाद का रूप लिया। मूलतः आज़ाद में ज़ाद शब्द छुपा हुआ है। आदिस्वरागम के तहत ज़ाद में जुड़ने से बनता है आज़ाद। फ़ारसी उर्दू में ज़ाद का अर्थ होता है पीढ़ी, नस्ल, वंश, आदि। ज़ादः भी इसी कड़ी में आता है जिसका अर्थ है पुत्र, संतति, उत्पन्न, जन्मा हुआ आदि। हरामज़ादा, नवाबज़ादा, साहबज़ादा जैसे शब्द इसी कड़ी में हैं। ज़ाद का पूर्वरूप होता है ज़ात। जिसकी अर्थवत्ता कहीं व्यापक है और इसमें वंश, नस्ल, पीढ़ी के अलावा कुल, बिरादरी, शख्सियत, व्यक्तित्व, स्वभाव, चरित्र, अस्तित्व, कौम जाति आदि समाए हुए हैं।
देवनागरी के वर्ण में उत्पन्न, वंशज, अवतीर्ण या पैदा होने का भाव है। संस्कृत की जन् धातु में पैदा होना, उत्पन्न होना,  उगना, उठना, फूटना, होना, बनना, निर्माण-सृजन ( जन्म के संबंध में ), रचा जाना, परिणत होना जैसे अर्थ छुपे हैं। जन् से ही बना है जीव अर्थात प्राणी। जीव वह है जिसका जन्म हुआ है। जन् धातु रूप का ही रूपांतर अवेस्ता में ज़ात होता है। याद रहे वर्णक्रम की सभी ध्वनियां एक दूसरे में परिवर्तित होती हैं। इस तरह जन् का रूपांतर ज़ात होता है। इसमें भी उद्भव, जन्म जैसे भाव हैं। कुल, परिवार, वंश, गोत्र के अर्थ में संस्कृत-हिन्दी का जाति शब्द भी जन् धातु से ही निकला है। ज़ात या जाति में जन्म के अनुसार अस्तित्व के रूप का भाव है। आज़ाद के अर्थ में जन् से बने ज़ात या जाति शब्दों पर गौर करें तो साफ है कि जो प्रकृति से उद्भूत है वह स्वतंत्र है और मौलिक रूप में उसका अस्तित्व है। अवेस्ता के आज़ात और फारसी के आज़ाद में यही भाव है। जन्म से कोई गुलाम या पराधीन नहीं होता। जन् में उगने, उत्पन्न होने के भाव पर ध्यान दें तो स्पष्ट होता है कि उगना या उत्पन्न होना अपने आप में किसी छाया, पृष्ठभूमि या आंतरिकता से बाहर आना है। यह भाव ही स्व अथवा आज़ादी से ज़ुड़ता है। इस तरह देखें तो जन् से उद्भूत ज़ात> (आ)ज़ात> आज़ात >आज़ाद का सफ़र बेहद दिलचस्प है। हिन्दी का जन, जनता जैसे शब्द भी इसी कड़ी में आते हैं। अंग्रेजी के जेनरेशन, जेनरेटर, जेनरिक जैसे शब्दों समेत यूरोपीय भाषाओं की शब्दावली को इस धातु ने समृद्ध किया है। हिन्दी का जीवन और फारसी का ज़िंदगी इसी शृंखला में हैं।
न् से हिन्दी, फारसी, उर्दू में कई शब्द बने हैं। अरबी-फारसी में महिला के लिए एक अन्य शब्द है ज़न जिसकी रिश्तेदारी इंडो-ईरानी भाषा परिवार के जन् शब्द से है जिसमें जन्म देने का भाव है। ज़नानी या ज़नान जैसे रूप भी प्रचलित हैं। संस्कृत में उत्पन्न करने, उत्पादन करने के अर्थ में जन् धातु है। इससे बना है जनिः, जनिका, जनी जैसे शब्द जिनका मतलब होता है स्त्री, माता, पत्नी। जिससे हिन्दी-उर्दू के जन्म, जननि, जान, जन्तु जैसे अनेक शब्द बने हैं। भाषा विज्ञानियों ने ज़न, ज़नान, जननि जैसे शब्दों को प्रोटो इंडो-यूरोपीय मूल का माना है। क्वीन, रानी, राज्ञी, महाराज्ञी जैसे शब्द इसी मूल के हैं। ध्यान रहे ज्ञ का तिलिस्म आर्य तो जानते थे मगर इस व्यंजन में छुपी ज+ञ अथवा ग+न+य जैसी ध्वनियां हजारों सालों से आर्यों के विभिन्न भाषा-भाषी समूहों को भी वैसे ही प्रभावित करती रही हैं जैसे आज भी करती हैं। हिन्दी भाषी ज्ञ का उच्चारण ग्य करते हैं तो गुजराती मराठी भाषी ग्न्य या द्न्य और आर्यसमाजी ज्न। स्पष्ट है कि ज्ञ में छुपा ज ही रानी के स्त्रीवाची अर्थात जननि होने का प्रतीक भी है। क्वीन इसी कड़ी में आता है। गाईनेकोलॉजी  शब्द भी इसी शृंखला का हिस्सा हैं। जिस जन् में आज़ादी, स्वतंत्रता का भाव है उसी से जन्मे जनक के हिस्से में आज़ादी पैदाईशी तौर पर मिली मगर जिस जननी ( औरत ) ने उसे जन्म दिया था उसके हिस्से में नियति ने गुलामी लिख दी।

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Friday, June 25, 2010

पाणिनि के पीछे पश्चिमी पंडित!!

...प्रख्यात मार्क्सवादी आलोचक, विचारक, भाषाविद् और मेरे प्रिय लेखक रामविलास शर्मा की प्रसिद्ध पुस्तक भाषा और समाज के दूसरे संस्करण की भूमिका का यह अंश पेश है। मार्क्सी होने की आड़ में बारहा उनकी आलोचना करनेवालों की आंखें इसे पढ़ कर खुल जानी चाहिए कि भाषाविज्ञान को लेकर डॉक्ट्साब का दृष्टिकोण क्या था और कितनी व्यापक दृष्टि उनकी थी। ...

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तिहासिक भाषा विज्ञान ने प्राचीन और आधुनिक भाषाओं के नए ज्ञान से मानव संस्कृति को समृद्ध किया। उन्नीसवीं सदी केमें समाज संबंधी विज्ञानों में जैसा महत्व भाषा विज्ञान को प्राप्त हुआ, वैसा अन्य किसी विज्ञान को नहीं। इस समग्र विकास में भारत के प्राचीन भाषा विज्ञान की भूमिका निर्णायक थी। यह कल्पना करना कठिन है कि पाणिनि के व्याकरण के बिना ऐतिहासिक भाषा विज्ञान और आधुनिक भाषा विज्ञान की क्या स्थिति होती।  यही नहीं कि संस्कृत के ज्ञान से यूरोप के विद्वानों को एक नया संस्कार दिखाई दिया वरन् उस संसार की पूरी पहचान के लिए पाणिनि के रूप में उन्हें एक महान मार्गदर्शक भी मिला। उन्हें खेद इसी बात का था कि पाणिनि ने जैसा भरा पूरा और वैज्ञानिक विवरण संस्कृत का प्रस्तुत किया था, वैसा यूरोप की किसी भाषा का प्रस्तुत न किया गया था। वैसे तो पाश्चात्य विद्वान और उनके भारतीय अनुयायी हर क्षेत्र में भारत को यूनान, सुमेर और बाबुल की सभ्यताओं से अनेक प्रकार की विद्याएं सीखता हुआ मानते हैं। इनमें भी यूनानियों की प्रतिभा का क्या कहना? पर व्याकरण के क्षेत्र में किसी को यह कहने का साहस नहीं हुआ कि पाणिनि ने व्याकरण रचना कौशल यूनानियो से सीखा था।
पाणिनि से प्रभावित उन्नीसवीं सदी के ऐतिहासिक भाषा विज्ञान ने भाषाओं का नई रीति से विश्लेषण आरम्भ किया। यह रीति यूरोप में पहले नहीं थी। भारत की इस प्राचीन रीत का पुनर्जन्म उन्नीसवी सदी के यूरोप में हुआ। इस रीति पर चलने वाले ऐतिहासिक भाषा विज्ञान ने बीसवीं सदी के विवरणात्मक भाषा विज्ञान को प्रभावित किया। इस आधुनिक विज्ञान का सूत्रपात उन्नीसवी सदी के अंतिम चरण में फ्रान्सीसी भाषाविज्ञ विद्वान सोस्योर ने किया। वह संस्कृत के विद्वान थे और उनका मूल कार्य क्षेत्र ऐतिहासिक भाषा विज्ञान ही था। उनके बाद बीसवी सदी में विवरणात्मक भाषा विज्ञान को व्यवस्थित रूप अमेरीकी विद्वान ब्लूमफील्ड ने दिया। उनका प्रशिक्षण जर्मनी में हुआ था। उनके गुरू प्रोकोश अमेरिकी rvs निवासी जर्मन थे और ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के विशेष थे। खास बात यह कि ब्लूमफील्ड पाणिनि के प्रेमी और विशेषज्ञ थे। अमेरिकी आदिवासियों की भाषाओं के विवेचन में उन्होने पाणिनीय पद्धति का उपयोग किया था। उनके बाद जब इस विवरणात्मक सम्प्रदाय के विरोध में नोम चोम्स्की ने विद्रोह का झंडा उठाया, तब पाणिनि से अपना संबंध उन्होंने भी जोड़ा। उनकी व्याकरण पद्धति को जेनेरेटिव या ट्रान्सफोर्मेशनल कहते हैं, हिन्दी मे हम उसे परिणामी व्याकरण कह सकते हैं क्योंकि परिणाम का एक अर्थ वही है जो अंग्रेजी में ट्रान्सफोर्मेशन का है।
स प्रकार लगभग दो सौ वर्ष का पाश्चात्य भाषा वैज्ञानिक विकास किसी न किसी रूप में भारत से और पाणिनि से संबंद्ध है। पर स्वयं भारत में पाणिनि का जो पुनर्मूल्यांकन अपेक्षित था, वह नहीं हुआ, पाणिनि और संस्कृत के भाषा वैज्ञानिक रिक्थ से प्रेरित होकर भारतीय भाषा विज्ञान को जो प्रगति करनी चाहिए थी, वह उसने नहीं की। इसका मुख्य सामाजिक कारण भारतीय सामन्तवाद का ह्रास और उसके ह्रास काल में यहां अंग्रेजो का प्रभुत्व था। संस्कृत और पाणिनि के अध्ययन अध्यापन की पद्धति वही पुराने ढंग की बनी रही। यूरोप के भाषा विज्ञानी न केवल समाज संबंधी विद्वानों से परिचित थे वरन् वे भौतिक विज्ञान से भी परिचित थे और विशेषकर जीव विज्ञान से वे प्रभावित हुए थे। ज्ञान के इस आधुनिक विकास से भारत के रूढ़िवादी विद्वान अपरिचित थे। उनके विरोध में जो भी नई प्रवृत्तियां उभरती थीं, वे उनका दमन बड़ी कट्टरता से करते थे।

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Wednesday, June 23, 2010

उपला, मालपूआ और कंडा

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गो बर पर पोस्ट लिखते समय इसकी अगली कड़ी में कंडा और उपला की चर्चा तय थी क्योंकि गोबरपुराण काफी लम्बा हो गया था। आज शब्दचर्चा समूह में बोधिसत्व ने उपले की चर्चा छेड़ दी तो हमें भूली हुई पोस्ट याद आई। एमए में भाषा विज्ञान पढ़ने के दौरान हमें गुरुवर प्रोफेसर सुरेश वर्मा ने अर्थान्तर की प्रक्रिया का उदाहरण देते हुए उपला की व्युत्पत्ति समझाई थी। उन्होंने बताया कि संस्कृत में उपलः का अर्थ होता है पत्थर या पाषाण। इसका एक अर्थ बालू भी होता है जो पाषाण-कण ही हैं। आप्टे कोष में इसकी व्युत्पत्ति उप+ ला + क है। व्याख्या यह कि गाय का वह उत्सर्ग जो सूख कर पाषाणवत हो जाए। यहां पाषाण का भाव जस का तस लेने की जगह ठोस रूप ग्रहण किया जाए। यह तत्कालीन समाज में सूखे हुए गोबर को दी गई उपमा थी। आज व्युत्पत्ति खोजते हुए हम तर्क की पराकाष्ठा पर पहुंच सकते हैं पर समाज किन आधारों पर शब्द रचना करता है, यह देखना भी जरूरी है। यूं पूरब में गोबर के लिए गोबर, गोईंठा या गोहरी जैसे शब्द भी प्रचलित हैं।
जॉन प्लैट्स उपले की व्युत्पत्ति अपूपः से बताते हैं जिसका अर्थ है सूखी हुई टिकिया, गेंद, पिंड या बाटी। गौरतलब है कि प्रसिद्ध मिठाई मालपुआ की व्युत्पत्ति भी अपूपः से ही बताई जाती है। अपूपः > पूपः > पूआ। इस पूआ में अरबी-फारसी का माल विशेषण लगने से बना मालपूआ। यूं संस्कृत में पूपः शब्द का अर्थ भी पूआ ही होता है। उपले का जन्म अपूपः से अजीब जान पड़ता है। अपूपः के अन्य संस्कृत रूपांतरों पर गौर करें तो यह ध्वनिसाम्य पर खरा उतरता है। जरा गौर करें kanda अन्य नामों पर- पूपला, पूपली, पूपालिका, पूपाली, पूपिका आदि, मगर इन तमाम नामों में मीठा पूआ या मालपूआ का भाव ही है। पूपला से ध्वनि को गायब कर दें तो उपला ही हाथ लगता है। पर सवाल है कि सिर्फ ध्वनि गायब करने से एक खाद्य पदार्थ अखाद्य में कैसे बदल सकता है? पले को कंडा भी कहा जाता है। उसकी व्युत्पत्ति आसान है। संस्कृत में कंदुक, कंद, गंड, खण्ड जैसे शब्द हैं जो एक ही शब्द शृंखला का हिस्सा हैं। खण्ड, खांड, गुंड, गंड, गुड़ या अग्रेजी का कैंडी आदि इसी कड़ी में आते हैं। संस्कृत के खण्डः शब्द की बड़ी व्यापक पहुंच है। इससे मिलती जुलती ध्वनियों वाले कई शब्द द्रविड़, भारत-ईरानी, सेमेटिक और यूरोपीय भाषाओं में मिलते हैं। क ख ग वर्णक्रम में आनेवाले ऐसे कई शब्द इन तमाम भाषाओं में खोजे जा सकते हैं जिनमें खण्ड, खांड, गुंड, गंड, गुड़ या अग्रेजी की कैंडी की मिठास के साथ-साथ पिण्ड, टुकड़ा, हिस्सा, अंश, अध्याय या वनस्पति का भाव भी शामिल है। खंड से पहले का रूप कण्ड है जिसमें फटकने, पके हुए अनाज से भूसी और दाने अलग करने का भाव है। यहां विभाजन का भाव स्पष्ट है। धार्मिक ग्रंथों के अनुच्छेद को भी कंडिका कहा जाता है। यह कांड का ही छोटा रूप है। कांड का अर्थ लकड़ी, लाठी या बेंत भी होता है। यही कण्ड उपले के अर्थ में कंडा का रूप लेता है अर्थात गाय की विष्ठा का पिण्ड रूप। इस तरह देखें तो कंडे की तर्ज पर उपला की व्युत्पत्ति उपलः से ही तार्किक जान पड़ती है। रामविलास शर्मा ने भी एक स्थान पर इसी व्युत्पत्ति को सही ठहराया है।
ज्ञानमंडल के हिन्दी शब्दकोश में उपला का अर्थ गोहरा अर्थात कंडा या शर्करा भी बताया है। गौरतलब है कि शर्करा का अर्थ शक्कर नहीं बल्कि रेत होता है। गन्ने के रस से बने बने बालुकामय अर्थात रवेदार पदार्थ के लिए शर्करा शब्द प्रचलित हुआ। शक्कर शब्द संस्कृत के शर्करा से निकला है जिसके मायने हैं चीनी, कंकड़ी-बजरी, बालू-रेत या कोई भी बड़ा कण। इसी वजह से संस्कृत में ओले के लिए जलशर्करा जैसा शब्द भी मिलता है। वैसे उपला की व्युत्पत्ति उपलेप्य शब्द से भी मानी जा सकती है। लोक संस्कृति में गोबर के विविध प्रयोग होते रहे हैं। घरों को लीपने के लिए गोबर का इस्तेमाल आम है। लीपने (लेपन ) की क्रिया को उप-लेपन (ऊपर से लेपन करना, पोतना या परत चढ़ाना) और कारक को उपलेप्य मानें तो उपला शब्द उपलेप्य का देशज रूप हो सकता है। यह सिर्फ कल्पना मात्र है।

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Monday, June 21, 2010

कुलटा बन गई पतुरिया

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लो कभाषा का एक शब्द है पतुरिया। प्रचलित अर्थों में पतुरिया स्त्रीवाची शब्द है जिसमें दुश्चरित्रा या नाचने गाने वाली औरत का भाव है। बोलचाल की भाषा में शब्दों का किस तरह अर्थान्तर होता है उसका उदाहरण है यह शब्द। यहां इसके साथ अर्थसंकोच या अर्थापकर्ष (अर्थावनति) हुई है। पतुरिया शब्द बना है संस्कृत के पात्र शब्द से जिसका अर्थ है नाट्यकर्म करनेवाला। अभिनय करनेवाला। संस्कृत के पात्र का स्त्रीवाची देशज रूप बना पात्रा या पात्री यानी वह स्त्री जो नारी पात्रों का अभिनय करे। पात्रा या पात्री के लोकरूप हुए पातर, पातुर, पातरिया, पातुरी अथवा पतुरिया। गौरतलब है कि नाट्यशास्त्र में एक साथ कई कलाओं का उल्लेख है। जिसमें नृत्य भी शामिल है। प्राचीन काल से ही प्रदर्शनकारी कलाओं में घरेलु स्त्री की उपस्थिति अच्छी नहीं समझी जाती थी। सामान्य स्त्री मनोरंजन माध्यमों में सार्वजनिक भूमिका नहीं निभाती थी बल्कि यह काम पेशेवर नर्तकियों का था। चाहे जितनी गुणी नृत्यांगना हो, उसे हीन नजरिये से ही देखा जाता था। ऐसी उच्च श्रेणी की नृत्यांगनाएं भी रूपजीवा और देहजीवा के ठप्पे के साथ रहती थीं। ऐसे में नाट्य की पात्र के तौर पर एक स्त्री कलाकार के हिस्से में या तो नृत्य ही आता था अथवा कमनीय, कामोद्दीपक नायिका का अभिनय।
श्मिवाजपेयी सम्पादित कथक प्रसंग में आचार्य बृहस्पति लिखते हैं-“यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि कथक लोग अपनी बेटियों या बहुओं नाच की शिक्षा कभी देते नहीं थे, क्योंकि वे समझते थे कि यह वेश्याओं का कार्य है। वेश्याओं को वे निस्संकोच नचाते थे, उनसे धन लेने में भी उन्हें संकोच नहीं था, परन्तु उनकी बहू-बेटियां स्वं कथक-नृत्य की राधा बने यह उन्हें सह्य नहीं था। स्वयं न तो उन्हें लखनववी कन्हैया बनने में संकोच था, न अपने पुत्रों कन्हैया बनाने में।” आचार्य बृहस्पति ने भी पतुरिया शब्द को संस्कृत पात्र का अपभ्रंश माना है। शार्ङगदेव कृत संगीत रत्नाकर के अनुसार नृत्य का पात्र नारी ही हो सकती है। मुग्धा, मध्यमा और प्रगल्भा नारी को पात्र बनाया जाता था। ऐसी स्थिति में गणिका ही  नायिका या नारी पात्र का काम कर सकती थी। नाचनेवालियों द्वारा नाटकों में भूमिकाएं करने की परम्परा बहुत प्राचीन रही है और इसीलिए पात्रा, पात्री से घिसघिस कर इसके पतुरिया, पातुर जैसे विभिन्न रूप प्रदर्शित हुए जिनमें एक पेशे z5का भाव था न कि सम्मान का। कालांतर में तो पतुरिया शब्द सिर्फ नाचनेवाली का पर्याय हो गया और बाद में खुले आम रंडी, कुलटा या वेश्या को पतुरिया का नाम मिल गया। यानी बेबात ही पतुरिया पतिता बन गई।
पात्र शब्द बना है संस्कृत के पात्रम् से जिसकी व्युत्पत्ति पा धातु में ष्ट्रन प्रत्यय लगने से हुई है। संस्कृत की पा धातु में मुख्यतः पालन करना, समाहित करना, पान करना, शासन करना, योग्य होना, आकार देना, आधार प्रदान करना, सहारा देना, धारण करना या स्थापित रखने का भाव है। पिता, पालक, पति जैसे बहुप्रचलित शब्दों के मूल में भी यही पा धातु है। संस्कृत के पात्रम् में नृत्य-नाट्य की अर्थवत्ता भी है और पीने का प्याला अथवा बर्तन का भाव भी। गौरतलब है कि किसी पदार्थ को स्वयं में धारण करने या आधार प्रदान करने की वजह से बरतन को पात्र कहा जाता है और किसी काल्पनिक चरित्र को धारण करने या खुद में स्थापित करने की वजह से कोई कलाकार नाटक का पात्र कहलाता है। पात्र वही है जो धारण करे या किसी भूमिका का पालन करे। बरतन रूपी पात्र की भूमिका उसमें उपस्थित द्रव या वस्तु को सुरक्षा प्रदान करने की है। पा धातु में निहित रक्षा का भाव पाल में स्पष्ट होता है। पाल अर्थात मेड़, दीवार। किसी बर्तन की गोलाई और गहराई उसकी चारों ओर की पाल की वजह से होती है। इसी तरह किसी ऐतिहासिक या काल्पनिक चरित्र को खुद में स्थापित करना, उसे आधार प्रदान करना एक कुशल पात्र का ही काम है। एक कुशल कलाकार किन्ही नाटकीय चरित्रों को खुद में पालता-पोसता है, उसकी खूबियों और वास्तविकता की रक्षा करने का दायित्व उस पर होता है।
पात्र से भी कुछ शब्द जन्में हैं जैसे कृपापात्र, दानपात्र, कुपात्र, सुपात्र आदि। आमतौर पर किसी के प्रति आभार जताने के संदर्भ में अक्सर धन्यवाद का पात्र जैसा वाक्यांश इस्तेमाल होता है। गौर करें कि यहां धन्यवाद को ग्रहण करने, आभार को आधार प्रदान करनेवाले व्यक्ति के लिए पात्र शब्द का प्रयोग है। यानी जो धन्यवाद के लायक हो, उसे ग्रहण कर सके, आधार दे सके वह है धन्यवाद का पात्र। कृपापात्र वह है जिस पर कृपा की जाए।

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Sunday, June 20, 2010

बोधिसत्व से भोपाल में मुलाकात…

बोधिभाई को कुछ दुर्लभ दिखाने की फिक्र अभी से खाई जा रही है। करता हूं कुछ जुगाड़। न हो सका तो उनकी संभावित भोपाल यात्रा में अड़ंगा लगाने कोशिश की जाएगी।
जित भाई, आप मुझे कुछ दुर्लभ दिखा सकते हैं? बोधिसत्व ने चलने से कुछ देर पहले हमसे पूछा था। यह सुनकर हम अचकचा गए थे। बात बनाने के लिए कह दिया था कि आप अगली बार हमारे घर ही मुकाम करिए, तब शायद कुछ ढूंढ कर दिखा सकूं। यहां बात हो रही है हिन्दी के ख्यात कवि बोधिसत्व की जो अपने दोस्त हैं और गुरुवार को भोपाल में थे। उक्त संवाद हमारे घर का है। बोधिभाई ने भोपाल आने की सूचना बुधवार को ही दे दी थी। हमने तभी कर लिया था कि शुक्रवार को सांची जाया जाएगा जो कि प्रसिद्ध बौद्धतीर्थ है और भोपाल से मुश्किल से तीस किमी की दूरी पर है। बोधिभाई से बात होने के बाद हम रसोई में कुछ खटराग फैलाने लगे। घर पर मैं और अबीर ही थे। फ्रीजर में रखे पाषाणवत घी को तेज़ चाकू से कड़ाही में डालने की कोशिश में चाकू तेज़ी से बाईं हथेली में जा घुसा। बात की बात में अस्पताल जाना पड़ा। चार टांको के साथ हथेली सिलवानी पड़ी। डेढ़ घंटा उसमें खर्च हो गया क्योंकि अस्पताल से लौटते वक्त कार पंक्चर हो गई। फिर स्टेपनी बदली और फिर टायर की मरहमपट्टी का सिलसिला शुरु हुआ। हमारे साथ ये अक्सर होता रहता है। मगर मरहमपट्टी के बाद लौटते ही पूरी लगन के साथ दाल फ्राई की गई।
हना ये चाहते हैं कि बोधिभाई के लिए ली गई छुट्टी उसी दिन हथेली के जख्म को नजर हो गई और सांची का कार्यक्रम बिना मेहमान से पूछे रद्द हो चुका था। वजह यह कि उस दिन दर्द के चलते हम दफ्तर नहीं जा पाए नतीजतन बोधि के हिस्से की छुट्टी कैंसिल हो गई। नौकर पत्रकार अपने जीवन पर अक्सर इसीलिए लानत भेजता है। खैर, अगले दिन यानी शुक्रवार की सुबह ठीक साढ़े नौ बजे हम
बोधिभाई जिंदाबाद…तस्वीरें ली है अबीर ने। बोधिभाई ने अबीर को बताया कि उन्हें अपनी तस्वीरें छपी देखने में बहुत सुख मिलता है। साहबजादे ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और कुल जमा तीन तस्वीरें ही खींची। वर्ना उनकी खुशी के लिए हम यहां दर्जनों फोटू छापने करने को राजी थे। tanu baba mom 006 tanu baba mom 008 tanu baba mom 009
बोधिभाई को लेने उनके संबंधी के घर के लिए निकल तो पड़े मगर उनका घर ढूंढने में ही खप गए। आखिरकार उन्हें ही उस जंगल में आना पड़ा जहां हम अटके खड़े थे। खैर किसी तरह उनसे भेट हुई और फिर हम उन्हें अपने घर लिवा लाए। बोधिभाई ने कई बार आग्रह किया कि कार वे ड्राईव कर लेंगे क्योंकि उन्हें हमारे जख्मी हाथ की चिन्ता सता रही थी, पर हम भी जख्मी हाथ के सहारे उन्हें अपनी ड्राईविंग के जौहर दिखाने की ठाने बैठे थे, सो वो आड़ी-तिरछी वडनेरकरिया, राजगढ़िया इस्टाईल में गाड़ी चलाई कि बोधिभाई प्रवचन की मुद्रा में आ गए। उनकी जगह “सुजाता” होती तो प्रवचनों को खीर समझ कर ग्रहण करते और हम सम्बुद्ध यानी समझदार हो जाते। पर क्यों होते? कोरी समझाईश सुनकर तो सिर्फ समझदारी से सिर हिलाया जा सकता है, असली समझदारी समझाईशों को खारिज कर देने में ही होती है, सो वही हमने किया भी और लगातार ट्रैफिक रूल तोड़ते हुए घर आ पहुंचे। बोधि को शायद दुर्लभ की तलाश तभी से होने लगी थी।
बोधिभाई के भोपाल प्रवास का उद्धेश्य कला-साहित्य से जुड़े यहां के एक प्रतिष्ठित सरकारी संस्थान के प्रतिष्ठित प्रकाशन के अतिथि संपादक बनने से जुड़ा था। हालांकि उनसे यह हमारी पहली मुलाकात नहीं थी। इलाहाबाद की बहुचर्चित और विवादास्पद ब्लागर कांफ्रेस में हम बीते साल उनसे मुलाकात हो चुकी है। बोधिभाई एक सुदर्शन, सजीले व्यक्तित्व के धनी हैं। टीवी-फिल्मों की दुनिया में भी घुसे पड़े हैं। मीडिया की मोटाई-पतलाई सब जानते हैं। कई खूबियों वाले किरदार हैं। मगर हमारी उनकी पटरी सिर्फ इसलिए बैठती है क्योंकि वे भी किताबों के जबर्दस्त शौकीन हैं और हम भी। शब्दों का सफर के वे शुरुआती साथियों में हैं। हमारे संग्रह को बोधि देखते रहे। हमने अपने मामा कमलकांत बुधकर की ताजी पुस्तक “मैं हरिद्वार बोल रहा हूं” भेंट की। यह किताब इस पुण्यतीर्थ के करीब दो सदी पुराने चित्रों के साथ कही गई इतिहास से वर्तमान तक की कहानी है। पुस्तक चर्चा में इसका उल्लेख विस्तार से होगा। काफी देर हम इस पर ही चर्चा करते रहे कि हम हिन्दुस्तानी डाक्यूमेंटेशन के मामले में बहुत गैरजिम्मेदार हैं। अगर लिखत-पढ़त वाले लोग अपने मूलस्थान के बारे में तथ्यात्मक जानकारियों को एकत्रित कर उन्हें प्रकाशित कराने का काम शुरु कर दें तो सामाजिक इतिहास के क्षेत्र में बहुत बड़ा काम हो जाएगा। पर यह सब हमारे खून में नहीं है। इसके लिए हमें किसी गोरी कौम का ही मुंह देखना पड़ता है। वे सिखा कर चले भी जाते हैं, तो भी हमारी तंद्रा नहीं टूटती।
वि, कविताई का धर्म, हिन्दी कवि के कुटैव, कवि की परमगति, दुनिया की रफ्तार, दीगर कलाओं के हाल के बारे में भी बतरस हुआ। हमने कहा कि हर विधा का फनकार आज बदल रहा है मगर हिन्दी का बहुसंख्यक कवि नहीं बदलता। वहीं घिसापिटा माहौल। राजनीति, छपास, आत्ममुग्धता, लिजलिजी भावुकता, परपीड़न वगैरह वगैरह से ग्रस्त है यह वर्ग। “तुम मुझे निराला कहो, मैं तुम्हें पंत” जैसे अनुबंध, संधियां या दोस्ताने यहां दशकों से जारी हैं। इसे काव्य रसिकता कहा जाता है।  वे राजी दिखे। हमें ध्यान आया कि खुद भी कवि हैं और इस वक्त इनके सारथी हम हैं सो संभव है दिखावा कर रहे हों। पर बाद में लगा कि सच्ची में वे हमारी बात से सहमत थे। बोधिभाई को कवि मित्र और भास्कर के मैगजीन एडिटर गीत चतुर्वेदी से भी मिलना था सो यूं पूरा हुआ एक बेहतरीन शख्सियत से मिलने का दौर। बोधिभाई को कुछ दुर्लभ दिखाने की फिक्र अभी से खाई जा रही है। करता हूं कुछ जुगाड़। न हो सका तो उनकी संभावित भोपाल यात्रा में अड़ंगा लगाने कोशिश की जाएगी। और कुछ न हुआ तो रसोई का खटराग फैलाऊंगा। अपना हाथ जगन्नाथ। इस बार मिलने ही नहीं जाऊंगा, बहाना कर दूंगा कि ज़ख्मी हो गया हूं। पर डर ये भी है कि बोधि घर देख गए हैं। मिजाजपुर्सी को ही आ जाएंगे!!!!

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Friday, June 18, 2010

झांसा खाना, झांसा देना

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कि सी के साथ धोखाधड़ी करने के लिए झांसा शब्द बोलचाल की हिन्दी में खूब प्रचलित है। “खूब झांसा दिया” अथवा “झांसे में न आना” जैसे वाक्यांश इन्हीं अर्थों में रोज हम अपने आसपास सुनते हैं। हालांकि झांसा सिर्फ दिया ही नहीं जाता बल्कि खाया भी जाता है। यह ज़रूर है कि झांसा देने वाले के लिए तो समाज ने फारसी का बाज प्रत्यय लगाकर झांसेबाज जैसा शब्द बना लिया जिसका अर्थ है धोखा देने वाला, मगर झांसा खाने वाले के लिए इसी कड़ी में नया शब्द नहीं बन पाया। बनता भी कैसे ? मूर्ख, बेवकूफ, बुद्धू, मूढ़मति, मतिमंद जैसे शब्द तो पहले से ही मौजूद हैं। इन पर भारी पड़ने वाले गधा और उल्लू जैसे शब्द भी शब्दों की तिजौरी में इन्सान ने डाल रखे हैं। झांसा शब्द बना है संस्कृत के अध्यासः से जिसका अर्थ है ऊपर बैठना। यह शब्द बना है अधि+आस् के मेल से। अधि संस्कृत का प्रचलित उपसर्ग है और इससे बने शब्द हिन्दी में भी खूब जाने-पहचाने हैं जैसे अधिकारअधि उपसर्ग में आगे या ऊपर का भाव है। आस् शब्द का अर्थ है बैठना, लेटना, रहना, वास करना आसीन होना आदि। आसन शब्द इसी धातु से निकला है जिसका अर्थ है बैठना, बैठने का स्थान, कुर्सी, सिंहासन, आसंदी वगैरह। इस तरह अध्यासः का अर्थ हुआ ऊपर बैठना। गौर करें इसमें हावी होने, चढ़ने का भाव है।
सन शब्द सिर्फ बैठने के स्थान का पर्याय नहीं है बल्कि इसमें पद के अनुरूप स्थान का भाव भी है। आसन अपने आप में बुद्धि और प्रतिष्ठा से जुड़ा है। इस तरह अध्यासः मिथ्या भाव भी है अर्थात योग्यता न होने पर भी उसका दिखावा करना। आसन यानी कुर्सी के लायक न होन पर भी अपना रौब जताना। एक झूठी छवि प्रस्तुत करना। आप्टे कोश में अध्यासः का अर्थ मिथ्या आरोपण दिया है जो इसी भाव की पुष्टि करता है। खुद को उस रूप में आरोपित करना जो हकीकत नहीं है अर्थात रौब जताना। हिन्दी शब्दसागर के अनुसार अध्यासः का प्राकृत रूप अ अञ्झास हुआ। गौरतलब है कि तत्सम से देशज बनने के क्रम में अक्सर ध+य मिलकर झ का रूप लेते हैं जैसे उपाध्याय से ही ओझा बना और अंततः झा रह गया। इसी तरह अध्यासः > अञ्झास > झांसा के क्रम में एक नया शब्द सामने आया।
झांसा के प्रचलित रूपों में झांसापट्टी शब्द भी शामिल है जिसमें मुहावरे की अर्थवत्ता है। यहां पट्टी शब्द में निहित पाठ शब्द को साफ पढ़ा जा सकता है। पठ् धातु से ही पाठ, पठन या पठाना जैसे शब्द बने हैं। पट्टी शब्द बना है संस्कृत के पट्ट या पट्टम् से जिसका अर्थ है कपड़ा या कोई चिकनी सतह। प्राचीनकाल में कपड़े पर ही लिखा जाता था। उससे पहले पत्तों पर लिखाई होती थी। पत्र और पट्ट की सादृश्यता गौरतलब है। पत्र बना है पत् धातु से जिसमें गिरने का भाव है, मगर उड़ने का भी है। पत्ता उड़ता भी है और गिरता भी है। झांसापट्टी में लिखनेवाली पट्टी या पाटी का अर्थ निहित है। विद्यार्थी को पट्टी पर ही पाठ पढ़ाया जाता है। सो झांसा के साथ पट्टी के जुड़ने से मुहावरा सामने आया। अपना मतलब सिद्ध करने के लिए जबर्दस्ती का ज्ञान बघारना, खुद को आला साबित करना, किसी को धोखे में रखना या फिर बहकाने जैसे काम झांसा की श्रेणी में आते हैं।

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Tuesday, June 15, 2010

गजनी, डीजी खान फिर गाजीपुर

islammoons “ अगर “अली” को “गढ़” से, “गाजी” को “पुर” से और “दिलदार” को “नगर” से अलग कर दिया जाएगा तो बस्तियां वीरान और बेनाम हो जाएंगी और अगर “इमाम” को “बाड़े” से निकाल दिया गया तो मोहर्रम कैसे होगा !
संबंधित कड़िया-1.गजनी, गजनवी और गजराज.2.माई नेमिज खान बहादुर पठान.3.बहादुर की जाति नहीं होती
जनी यानी अफगानिस्तान के एक शहर और सूबे का रिश्ता कुछ लोग गाजी (अ. ग़ाज़ी) से जोड़ते हैं। भारत में गाजी शब्द से लोग अपरिचित नहीं है। इतिहास से लेकर वर्तमान तक बेशुमार मुस्लिम नामों के साथ यह शब्द विशेषण या उपनाम की तरह चस्पा मिलेगा जैसे गाजी अनवर मसूद या सुहैल अहमद गाजी। गाजी शब्द मूलतः अरबी से बरास्ता फारसी हिन्दी में आया। बहादुर, वीर या योद्धा जैसा भाव इसमें हैं। गाजी शब्द से जुड़े कई स्थान नाम भी हैं जैसे गाजीपुर, थानागाजी, गाजियाबाद या डेरा गाजी खान (डीजी खान) आदि। गौरतलब है ये सभी नाम किसी न किसी गाजी नामधारी व्यक्ति से ही संबंधित हैं। पूर्वी उत्तरप्रदेश का गाजीपुर शहर जिला मुख्यालय है। दिल्ली से सटा हुआ गाजियाबाद भी उत्तरप्रदेश में है और थानागाजी राजस्थान के अलवर जिले की एक तहसील है। डेरा गाजी खान अब पाकिस्तान में है।
गाजी शब्द में शौर्य, बहादुरी, धावा जैसे भाव हैं जिसका रिश्ता सेमिटिक धातु g-z-w से है जिसमें मूल रूप से मुकाबला या प्रतिरोध का भाव है। अरबी में इससे गज़्यून, गिज्वा या ग़ाज़ा जैसे शब्द बनते हैं। इसी कड़ी में आता है गाजी ghजिसका अर्थ है धर्मयोद्धा, धर्मरक्षक। ग़ाज़ी में एक ऐसे सिपाही की छवि है जो अनीश्वरवादियों, नास्तिकों या काफिरों के खिलाफ जंग छेड़ता है। हिब्रू में इससे मिलती जुलती धातु gh-z-z है जिससे गाजा शब्द बना है। यह एक फलस्तीनी शहर है और इसका इतिहास बहुत पुराना है। ग़ाज़ा (पट्टी) का अर्थ होता है सुरक्षित, मजबूत, बहुमूल्य। जाहिर है इसमें गढ़, किला या कोट का भाव ही उभर रहा है। अरबी के गाजा पर कुछ असर हिब्रू का भी रहा हो। गाजा इसापूर्व तीन हजार साल पुराना शहर है जो अफ्रीका, यूरोप और एशिया के मुहाने पर तहजीब और तिजारत का बड़ा केंद्र रहा है। गजनी का रिश्ता अरबी के इसी गाजा शब्द से भी जोड़ा जाता है, हालांकि इसका कोई प्रमाण नहीं है। गजनी यानी योद्धाओं का गढ़ या वीर भूमि। यह कुछ कुछ उज्जयिनी की तर्ज पर लगता है। प्राचीनकाल में किन्हीं  आबादियों को उज्जयिनी का दर्जा मिल जाता था जिन्हें शासक अपनी राजधानी के रूप में चुनता था। उज्जयिनी का अर्थ है विजय दिलानेवाली। गौरतलब है कि कुम्भनगरी उज्जैन किसी जमाने में मालवप्रांत की राजधानी उज्जयिनी थी। इसका प्राचीन नाम अवंतिका था जिसका उल्लेख भारत की प्रसिद्ध सप्तपुरियों में है। राजस्थान के भरतपुर जिले में भी एक उज्जयिनी है। आज इसका नाम उच्चैन है। संभव है गजनी भी इसी तरह प्रचलित हुआ हो। किन्तु यहां सवाल उठता है कि वीरभूमि होने के चलते किसी स्थान को अगर गजनी विशेषण मिला तो उसका मूल नाम क्या था ? इसी तरह अफगानिस्तान, ईरान या अरब क्षेत्र में भी गजनी नाम की कई बस्तियां होनी चाहिए, जबकि इसका भी कोई प्रमाण नहीं है। अलबत्ता गजनी से यदुवंशी राजा गज की रिश्तेदारी के कई संदर्भ मिलते हैं।
ब बात गाजीपुर की। प्राचीन संदर्भों में गाजीपुर का उल्लेख गाधिपुर है। शब्दसंस्कृति पुस्तक में रामगोपाल सोनी ने गाजीपुर के बारे में दिलचस्प संदर्भ जुटाए हैं। उनके मुताबिक ह्वेनसांग ने इस क्षेत्र का उल्लेख चेन-चू के रूप में किया है जिसका अर्थ है युद्धों के स्वामी का राज्य। विद्वानों के अनुमान के अनुसार इसका नाम युद्धपतिपुर होगा। चेन-चू के अर्थ को अगर हिन्दी ध्वनियों का जामा पहनाया जाए तो गर्जपतिपुर या गर्जपुर जैसे शब्द विकसित होते हैं जिससे खींचतान कर गाजीपुर शब्द बनाया जा सकता है। कुछ अन्य विद्वान इस तर्क से भी सहमत नहीं है। उनके मुताबिक ह्वेनसांग का चेन-चू दरअसल उधरनपुर रहा होगा जिसका मूल रूप युद्धरनपुर है। इसका अर्थ चेन-चू से मिलता है। वर्तमान उधरनपुर भी गाजीपुर जिले में ही है। गाजीपुर का रिश्ता पौराणिक संदर्भों से भी जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि महर्षि विश्वामित्र के पिता राजा गाधि का यहां वास था और उन्हीं के नाम पर इसका नाम गाधिपुर पड़ा। इसी गाधिपुर से गाजीपुर रूपांतर हुआ। कुछ लोग कन्नौज का पुराना नाम गाधिपुर बताते हैं। हालांकि ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर वर्तमान गाजीपुर का रिश्ता तुगलक वंश से जुड़ता है। 1330 के आसपास सैय्यद मसऊद गाजी ने गाजीपुर बसाया। मान्यता है कि पहले इसका नाम गाधिपुर रहा होगा। यहां के हिन्दुओं को पराजित करने की एवज में सैय्यद मसऊद को मलिक उल सदत गाजी की उपाधि मिली। उसे मलिक गाजी या सईद मसूद भी कहा जाता है।
2706_Aadha-Ganv_lगाजीपुर के बारे में प्रसिद्ध लेखक डॉ राहीमासूम रजा का आधा गांव की भूमिका में बड़ा दिलचस्प और  फलसफाना सा बयान है- कहते हैं कि आषाढ़ की काली रात में तुगलक के एक सरदार सैयद मसूद गाजी ने बाढ़ पर आई गंगा को पार करके गादिपुरी पर हमला किया। चुनांचे यह शहर गादिपुरी से गाजीपुर हो गया। रास्ते वही रहे, गलियां वही रही, मकान भी वही रहे, नाम बदल गया – नाम शायद एक ऊपरी खोल होता है जिसे बदला जा सकता है। नाम का व्यक्तित्व से कोई अटूट रिश्ता नहीं होता शायद, क्योंकि यदि ऐसा होता तो गाजीपुर बनकर गादिपुरी को भी बदल जाना चाहिए था,या फिर कम से कम इतना होता कि हारनेवाले ठाकुर, ब्राह्मण, कायस्थ, अहीर, भर और चमार अपने को “गादिपुरी” कहते और जीतनेवाले सय्यद, शेख और पठान अपने को “गाजीपुरी”। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। सब गाजीपुरी है और अगर शहर का नाम न बदला होता तो सब गादिपुरी होते। ये नए नाम हैं बड़े दिलचस्प। अरबी का “फतह” हिन्दी के “गढ़” से मे घुलकर एक इकाई बन जाता है। इसीलिए पाकिस्तान बन जाने के बाद भी पाकिस्तान की हकीकत मेरी समझ में नहीं आती। अगर “अली” को “गढ़” से, “गाजी” को “पुर” से और “दिलदार” को “नगर” से अलग कर दिया जाएगा तो बस्तियां वीरान और बेनाम हो जाएंगी और अगर “इमाम” को “बाड़े” से निकाल दिया गया तो मोहर्रम कैसे होगा !

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Monday, June 14, 2010

गजनी, गजनवी और गजराज


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मुहम्मद गोरी जो खुद भी सेलजुक तुर्क था यानी वह महान हिन्दू राजा गज के नाम पर चले तुर्कों के एक वंश का प्रतिनिधि था जो नए धर्म की खातिर अपनी वंश परम्परा भूलकर, अपनों की ही धर्म, संस्कृति और सभ्यता को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए बार बार पसीना बहाता रहा
भारत मे गजनी शब्द को सुनते ही एक आक्रान्ता की छवि उभरती है। महमूद गजनी एक दुर्दान्त आक्रमणकारी था जिसने 997 से 1028 के बीच सतरह बार भारत पर हमला किया। सोमनाथ मंदिर के विध्वंस भी इसने ही किया था। आज अफ़गानिस्तान के जिस सूबे को कंदहार कहते हैं, पौराणिक काल में भारत के पश्चिमोत्तर में स्थित यही क्षेत्र गांधार कहलाता था। गजनी का रिश्ता गांधार से ही है। आज कंदहार अलग प्रांत है और गजनी एक अलग प्रांत। गजनी के लोग ही गजनवी कहलाते हैं इसीलिए महमूद गजनी को महमूद गजनवी भी कहते हैं। यूं तो अफगानिस्तान पठान कौम की वजह से जाना जाता है मगर यहां कई अन्य कबाइली जातियां भी सैकड़ों सालों से निवास करती रही हैं जिनमें तुर्क, मंगोल, तातार आदि भी हैं। अफगानिस्तान के कंधार प्रान्त तक ईसापूर्व से ही तुर्क बसने लगे थे। कंधार के तुर्कों को गज़ तुर्क की पहचान मिली। अरबी हमलावरों ने अफगानिस्तान में भी इस्लाम का परचम फहराया। इससे पहले गजतुर्क बौद्ध थे, शॉमन थे या ताओवादी भी थे। अधिकांश तुर्कों की अपनी कबीलाई धार्मिक आस्थाएं थीं। सातवीं सदी में जब अफगानिस्तान में इस्लाम ने कदम रखा तब वहां भी इस्लाम अपनाया गया और गज़ तुर्क भी मुसलमान हुए अन्यथा वहां बौद्धधर्म का बोलबाला था और गजनी पश्चिमी भारत का प्रमुख बौद्धकेन्द्र था। पश्चिमी दुनिया को पूर्वी दुनिया से जोड़नेवाले प्राचीन रेशम मार्ग यानी सिल्क रूट का भी एक प्रमुख मुकाम था गजनी। यहां वस्त्र उद्योग काफी बढ़ा चढ़ा था। रेशमी और सूती धागों के ताने-बाने से सेमीसिल्क कपड़ा बनाने की कला में यहां के कारीगर माहिर थे। इस कपड़े को भी गजनी नाम ही मिला था। महाराष्ट्र और गुजरात में कुछ दशक पहले तक यह शब्द जाना-पहचाना था। कृपा कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्ति कोश में इसका उल्लेख है।
जनी शब्द की रिश्तेदारी गज से है जो ईसा से पंद्रह सदी पहले यदुवंश का महाप्रतापी राजा था और पश्चिमोत्तर भारत पर राज करता था। कुछ संदर्भों के मुताबिक गज़ का इतिहास इतना पुराना नहीं बल्कि ईसा के आसपास ठहरता है। इसी तरह कुछ संदर्भों में कृष्ण की जो वंशावली दी गई है उसके मुताबिक गज को कृष्ण की छठी पीढ़ी का बताया गया है। तब उसका काल ईसापूर्व पंद्रहवी सदी से भी पूर्व का होता है। जो भी हो, यह तय है कि गजनी नगर अत्यंत प्राचीन है और इसकी स्थापना यदुवंशी राजा गज ने की थी। गज का राज सुदूर दक्षिण में द्वारिका से लेकर उत्तर में जम्मू तक था। संस्कृत का गज शब्द भारत के क्षत्रियों में वीरता और शौर्य के प्रतीक के रूप में खूब लोकप्रिय रहा है। गजभान, गजराज, गजसिंह, गजेन्द्र, गजोधर जैसे नाम आमतौर पर हिन्दुओं की नामावली में देखे जा सकते हैं। गजानन गणेश का लोकप्रिय विशेषण है और अपनी संतान के लिए यह नाम भी शुभता के प्रतीक के तौर पर हिन्दुओं में रखा जाता है। गज शब्द में गर्जना का भाव निहित है। संस्कृत में गज् और गर्ज् दो समान ध्वन्यार्थ और भावार्थ वाली धातुएं हैं जिनमें गड़गड़ाहट, गर्जना, दहाड़ना, प्रचंड ध्वनि करना जैसे भाव हैं। गज् में जहां चिंघाड़ना, मदोन्मत्तElephant ध्वनि करना, कोपध्वनि अर्थात गुस्से में चिल्लाने जैसे भाव हैं वहीं गर्ज् में प्रतिस्पर्धात्मक ध्वनि का भी भाव है। स्पष्ट है कि गज् की अगली कड़ी में गर्ज् का विकास हुआ होगा।
गौर करें कि बिजली जब कड़कती है तो उसे भी गाज कहते हैं। इस गाज का विकास गज् से नहीं बल्कि गर्ज् से हुआ है। गर्ज्-> गर्ज> गज्ज> गाज के क्रम में यह विकसित हुआ है। यहां गाज का अर्थ है बिजली  जो गर्जना के साथ अपनी उपस्थिति दर्शाती है। बारिश के दिनों में आमतौर पर बिजली गिरती है। आकाशीय विद्युत या तड़ित के धरती में प्रवाहित होने का यह एक बहुत सामान्य सा सिलसिला है मगर मनुष्य के लिए यह पुरातनकाल से बड़ी और भयकारी घटना बना हुआ है। गर्ज से ही बना गर्जना यानी तेज आवाज। यही गर्जना जब अपनी चमक-दमक के साथ आकाश से होती है तब वह गाज कहलाती है। जब वही गाज कहर बन कर मनुष्य, उसके सृजन अथवा उसके रोजगार पर टूटती है तो उसे गाज गिरना कहा जाता है। आकाशीय विद्युत में विपुल ऊर्जा होती है और यह जिस भी रचना पर गिरती है वह जल कर नष्ट हो जाती है। गर्ज् या गज् में निहित तेज आवाज, चिंघाडने, दहाड़ने के लक्षण से ही हाथी को गज नाम मिला। गर्ज में निहित नष्ट करने के लक्षण में मनुष्य ने पार न पाने के भाव को तलाश लिया था। यहीं से तेज बोलने, चिल्लाने या दहाड़ने के गुण का शौर्य से रिश्ता जुड़ा और गर्जना, चिंघाड़ना जैसे लक्षण बहादुरी, युद्ध, मुकाबला या प्रतिस्पर्धा का पर्याय बन गए। इस तरह गज नाम को मनुष्य से जोड़ने की शुरुआत उसे शौर्य से सम्बद्ध करने की वजह से ही हुई।
श्रीकृष्ण वेंकटेश पुणताम्बेकर लिखित एशिया की विकासोन्मुख एकता से पता चलता है कि अफगानिस्तान के गजतुर्कों ने आठवीं सदी तक भी पूरी तरह इस्लाम कबूल नहीं किया था। इतिहास में सेलजुक तुर्कों का बड़ा नाम है। दरअसल आठवीं के आसपास गजतुर्कों का नेता सेलजुक था। गजतुर्क तब तक किर्जगिजिस्तान में फैल चुके थे। सेलजुकियों ने बुखारा पर कब्जा किया और कालांतर में इस्लाम धर्म भी ग्रहण किया। इस्लाम ग्रहण करने के बाद तुर्कों को तुर्कमान कहा जाने लगा। इन्ही का वंशज या रिश्तेदार था मुहम्मद गोरी जो खुद भी सेलजुक तुर्क था यानी वह महान हिन्दू राजा गज के नाम पर चले तुर्कों के एक वंश का प्रतिनिधि था जो नए धर्म की खातिर उस शांतिप्रिय धर्म, संस्कृति और सभ्यता को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए बार बार पसीना बहाता रहा जिसने तुर्क नाम को गजतुर्क की एक नई पहचान दी थी। इसके बावजूद उसके काबिल वंशज चंद सैंकड़ा इमारतों की तामीर के अलावा ज्यादा कुछ नहीं कर पाए। अलबत्ता इस्लाम का दूसरा रूप लेकर पहुंचे सूफियों नें नए धर्म को भारतीयता की मिट्टी में बोया, प्रेम से सींचा तब जाकर सूफी दर्शन के रूप में इस्लाम को हिन्दुस्तानियत ने कुबूल किया।

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Friday, June 11, 2010

हाल कैसा है जनाब का!!

news

भा षा लगातार परिवर्तित होती है। यह बदलाव एक भाषा पर दूसरी भाषा के शब्दों की आमद के जरिए भी होता है और प्रभावशाली भाषा के भाषिक संस्कार अपना लेने से भी होता है। इसके अंतर्गत किसी एक भाषा बोली पर लम्बे समय तक सम्पर्क होने की वजह से एक भाषा के व्याकरण नियम दूसरी भाषा पर लागू होने लगते हैं। हिन्दी में आमतौर पर हम अंग्रेजी समेत अन्य भाषाओं के शब्दों पर हिन्दी व्याकरण के तहत ही बहुवचन लगाते हैं जैसे कारों, ट्रकों, डाक्टरों आदि। अरबी में चाहे हालात शब्द अपने आप में बहुवचन है। परिस्थिति या दशा के लिए हिन्दी में अरबी मूल का हालत शब्द खूब प्रचलित है और इसका बहुवचन हालात भी। हिन्दी में अक्सर इस हालत में  या इन हालात में जैसे प्रयोग होते हैं जो सही हैं किन्तु अक्सर हिन्दी में हालात का भी बहुवचन हालातों बना दिया जाता है जैसे इन हालातों में जो कि गलत है। ज्यादातर यही प्रवृत्ति है, किन्तु संवंदनशील लोग हालात को हालातों लिखने पर एतराज जताते हैं। उनकी बात भी सही है किन्तु अभिव्यक्ति के लिए ही भाषा है और अभिव्यक्ति अपना रास्ता तलाश लेती है। अब अगर हालात को हालातों पढ़ने पर अधिकांश लोगों को कोई दिक्कत नहीं है तब यही उचित है कि जिन्हें हालात लिखना है उन्हें हालात लिखने दिया जाए मगर हालात को हालातों लिखनेवालों को भी हीन न समझा जाए। अलबत्ता मीडिया से जुडे़ लोगों को चाहिए कि लिखत-पढ़त की भाषा के मानकीकरण पर वे जरूर ध्यान दें।
हालत शब्द बना है अरबी के हाल से जिसका मतलब है दशा, परिस्थिति, मामला आदि। हिन्दी की ज्यादातर बोलियों में इसका प्रयोग होता है। व्यापक रूप में इसकी अर्थवत्ता में चरित्र का भाव भी आ जाता है जैसे इनका तो हाल ये है!!! सेमिटिक धातु h-a-l से बना है हाल शब्द जिसमें बदलाव या सजावट जैसे भाव हैं। जाहिर है इसमें एक अवस्था का बोध तो है ही। दरअसल हल् धातु में जिस बदलाव की बात उभर रही है उससे बना हाल में कुछ अर्थसंकोच है। whirling_dervish_by_cospar गौर करें कि बदलाव या परिवर्तन एक स्थिति से दूसरी स्थिति का द्योतक है जबकि h-a-l धातु से बने हाल का अर्थ सिर्फ दशा या परिस्थिति तक सीमित हो रहा है। हाल का एक अन्य अर्थ है समाचार या खबर। हिन्दी में हाल शब्द की अर्थवत्ता में वृत्तांत भी हाता है जैसे क्या हाल हैं। यहां भाव समाचार जानना ही है। इसके साथ चाल शब्द भी जुड़ने से अर्थ और व्यापक हो जाता है। दिलचस्प यह कि हाल में चाल जोड़ कर बनाए गए हालचाल शब्द के बावजूद हम “पूरा” हालचाल जानना चाहते हैं।
हालत में आर्थिक स्थिति, मानसिक स्थिति भी शामिल है। आमतौर पर हाल में वर्तमान काल का भाव है यानी वर्तमान दशा या परिस्थिति। हाल से ही बना है हालत जिसका अर्थ भी यही है। हालत अर्थात परिस्थिति का बहुवचन होता है हालात। अरबी के हाल शब्द में फारसी के कुछ उपसर्ग जुड़कर नए शब्द बने हैं जो फारसी और उर्दू के साथ हिन्दी में खूब प्रचलित हैं। बुरी परिस्थिति में जी रहे व्यक्ति के लिए हाल में फारसी का बद् उपसर्ग लगने से बनता है बदहाल। इसका विलोम है खुशहाल अर्थात सुखी, समृद्धिशाली आदि। बेहाल का अर्थ होता है बुरी अवस्था या आत्मविस्मृति। ऐसा ही एक शब्द है बहरहाल जो हिन्दी में खूब इस्तेमाल होता है। इसका अन्वय होता है ब-हर-हाल यानी किसी भी रूप में या किसी भी दशा में, हर हाल में, किसी भी सूरत मे यानी जैसे बने वैसे। किन्तु इस शब्द का इस्तेमाल आमतौर पर लोग फिलहाल की तर्ज पर करते हैं।  समृद्धि या दुरवस्था के लिए क्रमशः खुशहाली या बदहाली जैसे शब्द भी बने हैं। बहाल शब्द भी इसी कड़ी में आता है। आमतौर पर पूर्ववत वाले अर्थ में बहाल शब्द का प्रयोग हिन्दी में होता है जैसे नौकरी पर बहाल। हाल के अवस्था वाले अर्थ का दार्शनिक महत्व भी है। आमतौर पर सूफियों-संन्यासियों की ध्यानस्थ अवस्था को भी हाल कहा जाता है। ध्यानस्थ होने के बाद जब कोई आध्यात्मिक व्यक्ति दैवीय अनुभूतियों को प्रदर्शित करता है उसे ही हाल आना कहा जाता है अर्थात वह सिद्धावस्था को प्राप्त कर चुका है।

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Wednesday, June 9, 2010

प्रस्ताव और स्तुति

किसी योजना की शुरुआत प्रस्ताव रखने से होती है अर्थात कार्ययोजना का परिचय, उसकी तारीफ ही प्रस्ताव है। यूं आप्टे कोश के मुताबिक प्रस्ताव का अर्थ है प्रवचन का प्रयोजन।
किसी योजना अथवा कार्यक्रम के परिचय के लिए हिन्दी में प्रस्तावना, भूमिका या आमुख जैसे शब्द प्रचलित हैं जिनमें प्रस्तावना का सर्वाधिक इस्तेमाल होता है। यह बना है। प्रस्तावना में शुरुआत या आरम्भ का भाव है। किसी भाषण, आलेख या अन्य दस्तावेजों के आरम्भिक अंश को भी प्रस्तावना कहते हैं। नाटक की प्रस्तावना आमतौर पर नट-नटी या सूत्रधार के द्वारा पेश की जाती है। प्रस्तावना के मूल में मूलतः प्रशंसा या तारीफ का भाव है। प्रस्तावना शब्द के मूल में है संस्कृत का स्तवः जिसका अर्थ है प्रशंसा करना, विख्यात करना, जानकारी देना आदि। स्तवः शब्द बना है स्तु धातु से जिसमें सराहना, तारीफ, प्रशंसा का भाव है। किसी की कीर्ति बखानना भी इसके अंतर्गत आता है। परिचित होना, जानकारी कराना भी इसके दायरे में आता है। याद रहे जब भी हम किसी व्यक्ति का परिचय कराते हैं या जानना चाहते हैं तो यही कहा जाता है-आपकी तारीफ! जाहिर है किसी समाज में किसी व्यक्ति का औपचारिक परिचय उस व्यक्ति के गुणों के जरिये ही होता है। दुर्गुण कभी किसी व्यक्ति का परिचय नहीं हो सकते। इसमें यह भाव भी निहित है कि हमें लोगों के सद्गुण ही देखने चाहिए, दुर्गुण नहीं। इसी तरह परिचय के दौरान नाम जानने के लिए भी शुभनाम शब्द का प्रयोग किया जाता है। नाम में छुपी अच्छाई से शुभता के साथ जानने का यह मंगलकारी भाव जाहिर करता है कि मनुष्य को जानने के लिए उसके उज्जवल पक्ष का सामने आना ही महत्वपूर्ण है। कलुषता तो छुपती नहीं है। दुर्गुण जल्दी ही सामने आ जाते हैं और बुराई सिर चढ़ कर बोलती है।
स्तु धातु से ही स्तुति शब्द बना है जिसका मूलार्थ प्रशंसा ही है। आत्मस्तुति यानी आत्म प्रशंसा। जो कुछ काबिले तारीफ है उसे हिन्दी में स्तुत्य कहते हैं। स्तुति का अर्थ ऐसी काव्यरचना भी है जिसमें किसी की प्रशंसा हो। स्तोत्रम् शब्द इसी कड़ी में आता है। यह संस्कृत का श्लोक होता है जिसे गाया जाता है। इसे स्तुतिगान भी कह सकते हैं। आजकल स्तुतिगान की अर्थवत्ता में  चमचागीरी का भाव भी शामिल हो गया है। हिन्दी में इसके लिए स्तोत्र शब्द प्रचलित है। स्तु में निहित प्रशंसा, जानकारी जैसे भावों पर गौर करें। स्तु से बने स्तवः में प्र उपसर्ग लगने बनते हैं प्रस्ताव और प्रस्तावना जैसे शब्द। किसी योजना की शुरुआत प्रस्ताव रखने से होती है अर्थात कार्ययोजना का परिचय, उसकी तारीफ ही प्रस्ताव है। यूं आप्टे कोश के मुताबिक प्रस्ताव का अर्थ है प्रवचन का प्रयोजन। जाहिर है प्रस्ताव किसी कार्य-कारण की वजह से ही रखा जाता है। पेश करने के लिए प्रस्तुत शब्द भी हिन्दी में आमफहम है। प्रस्तुत का मूलार्थ है जिसकी प्रशंसा की गई हो किन्तु अब इसका अर्थ है किसी चीज या तथ्य को सामने लाना, उजागर करना अथवा पेश करना। इसमें शुरुआत करने या आरम्भ करने का भाव स्पष्ट है। जिसे पेश किया जाए उसे प्रस्तुति कहते हैं। आजकल यह रचनाधर्म से जुड़ा शब्द बनता जा रहा है जैसे नाटक की प्रस्तुति। किसी भी रचना को प्रस्तुति कहा जा सकता है जो प्रदर्शित है। इसमें नाटक, कविता, गीत, चित्र से लेकर शिल्प तक आ जाते हैं।

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Sunday, June 6, 2010

प्रकांड, गैंडा और सरकंडा

पिछली कड़ियां-anim3 1.काना राजा और काक दृष्टि 2.जरूर कोई ‘कांड’ हुआ है…

संस्कृत की कण् धातु में निहित हिस्सा, शाखा, भाग, लघुतम अंश जैसे अर्थों से ही इसमें अध्याय या प्रसंग का भाव विकसित हुआ। घास प्रजाति के पौधे के लिए भी कांड शब्द प्रचलित हुआ जिसमें बांस से लेकर गन्ना भी शामिल है। किसी वृक्ष की शाखा, डाली अथवा तने को भी कांड कहा जाता है। जाहिर है ये सभी वृक्ष के हिस्से या अंश हैं। कांड में आधार का भाव भी निहित है क्योंकि तने को भी कांड कहा गया है। इसी कड़ी से जुड़ा है प्रकांड शब्द। संस्कृत का प्र उपसर्ग जब संज्ञा या विशेषण से पहले लगता है तो उस शब्द में सम्पूर्णता का भाव भी समाहित हो जाता है। इस तरह से कांड में प्र उपसर्ग लगने से एक नया विशेषण बनता है जिसमें अत्यधिक, आधिक्य या अत्यंत का भाव समाहित है। यूं प्रकांड का अर्थ है वृक्ष का सबसे मोटा और मजबूत भाग अर्थात तना, इसमें जड़ से लेकर प्रशाखाओं तक वृक्ष का विस्तार भी है। प्रकांड का दूसरा अर्थ है कोई भी प्रमुख पदार्थ या वस्तु। इसीलिए आमतौर पर किसी विशिष्ट क्षेत्र में प्रवीणता रखनेवाले व्यक्ति को प्रकांड विद्वान कहा जाता है।
न्ना भी बांस की ही एक प्रजाति है। इसमें भी जोड़ या उभार साफ नजर आते हैं। इसीलिए गन्ना, बांस आदि को भी कांड कहा जाता है क्योंकि यह कांडों में विभक्त होता है। बांसुरी भी बांस से ही बनती है इसीलिए इसका एक नाम कांड  वीणा भी है। गन्ने से बने गुड़ को खांड कहा जाता है। खण्ड का अर्थ होता है भाग, हिस्सा, अंश अथवा ईख का पौधा। गौर 2 sizes lucky bamboo करें ईख के तने पर जिसमें कई खण्ड होते हैं। ये खण्ड अपने जोड़ पर उभार या गंठान का रूप लिए होते हैं। इसी जोड़ या गठान का भाव तब और साफ होता है जब खंड का अर्थ पिंड के रूप मे सामने आता है। यही खांड है। संस्कृत का कंदः शब्द भी इसी शब्द श्रंखला का हिस्सा है जिसका मतलब होता है गांठदार जड़। इसी कंद से अंग्रेजी का कैंडी बना है जो एक तरह से शकर की डली ही है। घास की एक और प्रसिद्ध किस्म है सरकंडा। इसमें भी चीर देने वाला शरः अर्थात एक किस्म की तीखी घास सरपत ( शरःपत्र> सरपत )झांक रही है। यह बना है शरःकाण्ड से। काण्ड का मतलब होता है हिस्सा, भाग, खण्ड आदि। सरकंडे की पहचान ही दरअसल उसकी गांठों से होती है। सरपत को तो मवेशी नहीं खाते हैं मगर गरीब किसान सरकंडा ज़रूर मवेशी को खिलाते हैं या इसकी चुरी बना कर, भिगो कर पशुआहार बनाया जाता है। वैसे सरकंडे से बाड़, छप्पर, टाटी आदि बनाई जाती है। सरकंडे के गूदे और इसकी छाल से ग्रामीण बच्चे खेल खेल में कई खिलौने बनाते हैं।
ण्ड की तरह ही संस्कृत के गुडः शब्द के मायने भी पिण्ड, ईख का पौधा, शीरा अथवा ईख के रस से तैयार पिण्ड होता है। गन्ने के छोटे छोटे टुकड़ों को गडेरी कहते हैं। यह भी गड् से ही बना है। गौर करें खण्ड और गुड की समानता पर । और दोनों एक ही वर्णक्रम के अक्षर हैं और इनमें एकदूसरे में बदलने के वृत्ति होती है। हिन्दी का गुड़, संस्कृत के गुडः से जन्मा है जिसका मतलब है रस, राब, शीरा, ईख के रस से तैयार पिंड या भेली। गुड़ः के मूल में जो धातु है उससे इसका अर्थ और साफ होता है वह है गड्। गड् यानी रस निकालना, खींचना । दुनियाभर में शकर और गुड़ सिर्फ गन्ने से ही नहीं बनते बल्कि ताड़ के रस अथवा चुकंदर से भी बनाए जाते है। गड् का का एक और अर्थ होता है कूबड़। गौर करें कूबड़ एक किस्म की गांठ ही होती है। गण्ड का मतलब भी गांठ, फोड़ा अथवा फुंसी ही होता है। ईख के लिए हिन्दी में प्रचलित गन्ना शब्द इसी गण्ड से बना है इसका आधार है गन्ने के तने का गांठदार होना। गण्डिः का मतलब होता है वृक्ष के तने का वहां तक का हिस्सा जहां से पत्ते या शाखाएं शुरू होती है। वाशि आप्टे कोश के अनुसार गैंडा शब्द की व्युत्पत्ति भी गंड से ही हुई है। गैंडे के चेहरे पर जो उभरा हुआ सींग है वह दरअसल एक रेशेदार गांठ ही है। इसके अतिरिक्त गैंडे की शरीर पर कवचनुमा खाल के उभार भी इस अर्थ की पुष्टि करते हैं। गले के एक रोग को गलगंड कहते हैं जिसमें गले में एक गांठ सी उभर आती है। [समाप्त]

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Friday, June 4, 2010

जरूर कोई ‘कांड’ हुआ है…

ramayanapanelellora

हि न्दी में कांड (काण्ड) शब्द खूब प्रचलित है। कांड का अर्थ है कोई घटना। आमतौर पर इसके साथ अप्रिय, अशुभ प्रसंग का संदर्भ जुड़ा है। कांड से काणा की भी रिश्तेदारी है। ऐसा कोई प्रकरण जो अतीत से चला आ रहा है, कांड के दायरे में आता है। मीडिया का भी यह प्रिय शब्द है। खबरों की दुनिया में जब तक कांड न हो, अखबार नीरस लगते हैं। रिश्वत कांड, घूस कांड, हथियार कांड, बलात्कारकांड, आंख फोड़ो कांड आदि। पड़ोसी के घर से ऊंचे सुर में चिल्लाने या रोने की आवाज आते ही लगता है, जरूर कोई कांड हुआ है यानी बड़ी घटना हुई है।  जिस तरह किसी भी कांड यानी प्रकरण की कई परतें होती हैं उसी तरह ‘कांड’ बहुआयामी अर्थवत्तावाला शब्द है और इसकी रिश्तेदारियां बोलचाल के कई आमफहम शब्दों से है। मूलतः कांड शब्द का अर्थ अनुभाग, अंश, हिस्सा या खंड होता है। प्रसंग, अध्याय या विभाग भी इसकी अर्थवत्ता में शामिल हैं। किसी पुस्तक के अलग अलग अध्यायों को भी कांड कहा जाता है। रामचरित मानस ग्रंथ के अध्याय कांड कहलाते हैं जैसे अयोध्या कांड, लंका कांड आदि। धार्मिक ग्रंथों के कांड या प्रसंगों का आकार चाहे जितना सीमित रहा हो परंतु उनकी विवेचना इतनी विस्तृत होती चली गई कि कांड शब्द में विस्तार शब्द समा गया। इसीलिए कालांतर में बड़ी घटना या अप्रिय अंतहीन प्रसंग के रूप में ही कांड शब्द रूढ़ हो गया।
कांड शब्द बना है संस्कृत की कण् धातु से जिसमें क्षीण, सूक्ष्म और छोटे होते जाने का भाव है। कण् से ही बना है संस्कृत का कणः और हिन्दी का कण शब्द जिसका अर्थ है अनाज का दाना, अणु, जर्रा, बूंद या सूक्ष्मतम परिमाण आदि।कण अर्थात सूक्ष्मतम अंश या परिमाण की निर्मिति के पीछे उसका लघुतम होते जाना ही है। कण् में पीसना, चूरना, चूर्ण जैसा भाव भी है। चूर्ण करने या पीसने की क्रिया किसी वस्तु या पदार्थ को लगातार तोड़ना या विभाजित करना ही है। इसके लिए

thai-dance9 कांड का अर्थ लकड़ी, लाठी या बेंत भी होता है। कांड में निहित अनुच्छेद या अनुभाग का भाव बांस के तने की बनावट पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है।

सबसे पहले उस वस्तु पर आघात करना पड़ता है, अथवा उसमें छेद करना पड़ता है। इस तरह उस वस्तु का आकार लगातार सूक्ष्मतम होता जाता है। यही है कण् में निहित छोटा होते जाने के भाव की व्याख्या। कांड में निहित अध्याय, परिच्छेद जैसे भावों पर गौर करें। किसी सम्पूर्ण ग्रंथ को विविध प्रसंगों में विभाजित करते हैं ये अध्याय। अध्याय यानी खंड, हिस्सा, अंश आदि। संस्कृत के खण्ड, खांड, गुंड, गंड, गुड़ या अग्रेजी का कैंडी आदि भी इसी शब्द शृंखला का हिस्सा हैं।
संस्कृत के खण्डः शब्द की बड़ी व्यापक पहुंच है। इससे मिलती जुलती ध्वनियों वाले कई शब्द द्रविड़, भारत-ईरानी, सेमेटिक और यूरोपीय भाषाओं में मिलते हैं। क ख ग वर्णक्रम में आनेवाले ऐसे कई शब्द इन तमाम भाषाओं में खोजे जा सकते हैं जिनमें खण्ड, खांड, गुंड, गंड, गुड़ या अग्रेजी का कैंडी की मिठास के साथ-साथ अंश, अध्याय या वनस्पति का भाव भी शामिल है। यह भाषाविज्ञानियों के बीच की सनातन बहस का विषय हो सकता है कि इन शब्दों का प्रसार पूर्व से पश्चिम को हुआ अथवा पश्चिम से पूर्व को। इस वर्ग के शब्द उन आर्यों की शब्द संपदा का हिस्सा हैं जिनकी मूलभूमि भारत ही मानी जाती है या उन आर्यों की शब्द संपदा से आए जिनकी मूलभूमि पश्चिमी विचारकों के मुताबिक एशिया माइनर थी।
खंड से पहले का रूप कण्ड है जिसमें फटकने, पके हुए अनाज से भूसी और दाने अलग करने का भाव है। यहां विभाजन का भाव स्पष्ट है। धार्मिक ग्रंथों के अनुच्छेद को भी कंडिका कहा जाता है। यह कांड का ही छोटा रूप है। कांड का अर्थ लकड़ी, लाठी या बेंत भी होता है। कांड में निहित अनुच्छेद या अनुभाग का भाव बांस के तने की बनावट पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है। बांस में थोड़ी थोड़ी दूरी पर जोड़ या गठान जैसे उभार होते हैं। इस उभार को संस्कृत में पर्व कहा जाता है। हिन्दी का पोर शब्द इसी मूल से आ रहा है। पोर पोर में दर्द जैसी अभिव्यक्ति के पीछे जोड़ों के दर्द की बात ही आ रही है। जाहिर है शरीर में जहां जोड़ होता है, वहां उठान भी होती है। इसे पर्व या पोर कहते हैं। उभार या उठान का का आकार ही पहाड़ में भी होता है, इसीलिए पर्व् से ही पर्वत शब्द बना। किन्ही सौर तिथियों के मेल को मांगलिक माना जाता है इसे भी पर्व कहते हैं। रामगोपाल सोनी की शब्द संस्कृति में वेद के तीन विभागों कर्मकांड, उपासना कांड और ज्ञानकांड का उल्लेख है। वेद के किसी विशिष्ट कांड या विभाग की विवेचना करनेवाले ऋषि को कांडर्षि भी कहा जाता है। [-जारी]

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Thursday, June 3, 2010

काना राजा और काक दृष्टि

crow

क आंख वाले व्यक्ति को परिनिष्ठित हिन्दी में एकाक्ष या एकाक्षी कहते हैं। जिस तरह से दृष्टिहीन को सौजन्यतावश सूरदास की संज्ञा दी जाती है वैसे ही एक आंखवालों को समदर्शी भी कहा जाता है। समदर्शी अर्थात जिसकी निगाह में सब समान हैं । इस रूप में समदर्शी तो सिर्फ ईश्वर ही है क्योंकि उसकी रची सृष्टि में न कोई छोटा, न बड़ा है। मगर काणे के संदर्भ में समदर्शी शब्द में इस समभाव का रिश्ता उसकी एक आंख से है। वह सबको ‘एक’ समान नजरों से देखता है, इसलिए समदर्शी है। शिष्टता और सौजन्यता की आड़ में शब्दविलास करनेवालों का यह क्रूर व्यंग्य है। सामान्यतौर पर एक आंखवाले को हिन्दी में काणा या काना कहा जाता है। बुंदेली में कहावत है-काने से कनवा कहो, तुरतईं जावै रूठ अर्थात सर्वज्ञात अक्षमता के बावजूद किसी को अपने लिए बुरा, अभद्र संबोधन नहीं सुहाता है। अयोग्य लोगों में कुछ कम गुणी व्यक्ति के लिए अंधों में काना राजा कहावत भी बोलचाल में खूब प्रचलित है।
काणा या काना शब्द बना है संस्कृत की कण् धातु से जिसमें क्षीण, सूक्ष्म और छोटे होते जाने के साथ ही पलकों के बंद होने का भाव है। कण् से ही बना है संस्कृत का कणः और हिन्दी का कण शब्द जिसका अर्थ है अनाज का दाना, अणु, जर्रा, बूंद या सूक्ष्मतम परिमाण आदि। काणे व्यक्ति के नेत्रकोटर में नेत्रगोलक नहीं होता जिसकी वजह से उसकी एक पूरी या आंशिक बंद रहती है। एक अन्य स्थिति में उसकी एक आंख में दृष्टिहीनता रहती है जिसकी वजह से उस आंख की पलक लगभग बंद सी रहती है या झपकती रहती है। ध्यान दें कण् में निहित लगातार छोटे होते जाने के भाव पर। जिस व्यक्ति में काणापन है उसकी आंख भी छोटी होती है, पलक भी मिची रहती है। यूं भी दो आंखों के होते हुए एक में दृष्टिहीनता होना भी तो कमी ही है!! कण अर्थात सूक्ष्मतम अंश या परिमाण की निर्मिति के पीछे उसका लघुतम होते जाना ही है। कण् में पीसना, चूरना, चूर्ण जैसा भाव भी है। चूर्ण करने या पीसने की क्रिया किसी वस्तु या पदार्थ को लगातार तोड़ना या विभाजित करना ही है। इसके लिए सबसे पहले उस वस्तु पर आघात करना पड़ता है, अथवा उसमें छेद करना पड़ता है। इस तरह उस वस्तु का आकार लगातार सूक्ष्मतम होता जाता है। यही है कण् में निहित छोटा होते जाने के भाव की व्याख्या। एक आंखवाले
Britain_ समाज में काना व्यक्ति हमेशा अशुभ ही माना जाता है। दुर्जन व्यक्ति को भी हमेशा काणा ही दर्शाया जाता है।
व्यक्ति को संस्कृत में काण कहा जाता है। काण का अर्थ छिद्रवाला, फटा हुआ भी होता है और एकआंखवाला भी। काने व्यक्ति के नेत्रकोटर में सिर्फ गढ़ा नजर आता है। गौर करें किसी जमाने में मुद्रा के तौर पर कौड़ी का खूब प्रचलन था। टूटी फूटी कौड़ी का कोई मोल नहीं होता था। इसीलिए भग्न,जर्जर या फूटी कौड़ी को कानी कौड़ी भी कहते हैं। निर्धनता प्रकट करने के लिए कानी कौड़ी पास न होना का मुहावरा चल पड़ा। कागजी मु्द्रा के दौर में आज भी कटे फटे नोट बाजार में स्वीकार नहीं किए जाते हैं अर्थात उनका कोई मूल्य नहीं होता।
भारतीय संस्कारों में किसी वस्तु या निर्माण का भग्न होना, खंडित होना अशुभ माना जाता है। यही भाव मनुष्य की शारीरिक अपंगता के साथ भी जुड़ गया और अपंगों, अपाहिजों को अशुभ, अमंगली समझा जाने लगा। समाज में काना व्यक्ति हमेशा अशुभ ही माना जाता है। दुर्जन व्यक्ति को भी हमेशा काणा ही दर्शाया जाता है। कौए को भी लोकसंस्कृति में हमेशा अशुभ ही माना गया है। उसे काणाकव्वा भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि कौए के सिर में नेत्रकोटर तो दो होते हैं मगर पुतली एक ही होती है। उसे जिस दिशा में देखना होता है, पुतली उसी कोटर में चली जाती है। कौए के इस गुण को एकाग्रता और पक्की नजर का गुण माना जाता है। इसीलिए काकदृष्टि जैसा मुहावरा भी प्रचलित हुआ। संस्कृत में एक श्लोक है जिसमें काकदृष्टि की प्रशंसा की गई है- काकदृष्टि बकोध्यानम् श्वान निद्रा अल्पाहारम् जीर्ण वस्त्रम् एतद विद्यार्थी लक्षणम् अर्थात कौए की तरह किसी लक्ष्य पर नजर गड़ा देना, बगुले की तरह ध्यानमग्न रहना, कुत्ते की तरह कम सोना, कम भोजन करना और बनाव सिंगार के प्रति उदासीन रहना ही अच्छे विद्यार्थी का गुण होता है। बकोध्यानम् से तात्पर्य बगुले की एक पैर पर लगातार खडे़ होने की चातुरी से है। मछली को झांसा देने के लिए बगुला सरोवर में एक टांग ऊपर उठा लेता है। मछलियां धोखा खाकर उसके इर्दगिर्द चली आती हैं और तभी चतुर बगुला उन्हें चोंच में दबा लेता है। बकोध्यानम् से ही हिन्दी में ढोंगी और धोखेबाज के लिए बगुलाभगत जैसा मुहावरा प्रचलित हुआ।

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