Sunday, November 28, 2010

तपेदिक की दिक्क़त

6E33D1D08049C1527F413A2EF2C3FBBF

ब्दों की दुनिया बहुत दिलचस्प है। अपने मूल रूप में जिस भाव के साथ किसी शब्द की अर्थवत्ता का विकास होता है वह वक़्त के साथ अपने मूल से इतना दूर चला जाता है कि उस शब्द में एक विपरीत अर्थ समा जाता है। कठिनाई, परेशानी या मुश्किल के लिए हिन्दी में दिक्कत शब्द बहुत आम है। अरबी फ़ारसी से हिन्दी में आए शब्दों में दिक्कत का भी शुमार है जिसके इस्तेमाल के साथ हमारे दिन की शुरुआत होती है। दिक्कत शब्द की रिश्तेदारी वाला एक और जो शब्द हिन्दी में प्रचलित है वह है तपेदिक जिसका अर्थ होता है टीबी की बीमारी। टीबी के लिए हिन्दी में राजयक्ष्मा शब्द भी है। सरकारी हिन्दी में टीबी के लिए क्षयरोग शब्द प्रचलित है। यूँ तो हर बीमारी अपने आप में दिक्कत है मगर दिक्कत से तपेदिक की रिश्तेदारी का आधार भाववाची न होकर व्युत्पत्ति आधारित है।
बसे पहले बात दिक़्कत की। यह सेमिटिक मूल का शब्द है जिसमें क के साथ नुक़ता लगता है और इसे दिक्क़त लिखा जाता है। दिक्क़त बना है अरबी की d-q-q धातु से जिसका अर्थ है सूक्ष्म, क्षीण, पतला, दुबला, महीन, संकरा, कमी, तंग और छरहरा। अरबी की दिक् धातु में अत प्रत्यय लगने से बनता है दिक्क़त जिसमें कठिनाई या परेशानी का भाव है। मूलतः दिक्क़त में परेशानी का जो भाव है वह किसी और कठिनाई की तुलना में तंगहाली से उत्पन्न परेशानी का ज्यादा है। गौरतलब है कि दिक् धातु में अपने आप में गरीबी या निर्धनता का अर्थ द्योतन भी होता है। ज़ाहिर है दिक्क़त का मतलब हुआ ग़रीबी या ग़ुरबत के हालात। हालाँकि हिन्दी-उर्दू में सिर्फ़ इसी अर्थ में अब दिक्क़त का प्रयोग नहीं होता बल्कि किसी भी किस्म के मुश्किल हालात का रिश्ता दिक्क़त से जोड़ा जा सकता है।
दिक्क़त के साथ जुड़े महीन, क्षीण या सूक्ष्मता के भावों पर गौर करें। किसी चीज़ का लगातार क्षीण होते जाना, घटते जाना सचमुच परेशानी की बात हो सकती है। गृहस्थी में अड़चन आना, रूपए पैसे की कमी होना ही तंगी है और इसका लगातार बने रहना गुरबत का कारण बन सकता है। इसी तरह किसी वज़ह से शरीर का दुबला होना, कमज़ोर होना भी किसी ख़ास बीमारी का लक्षण हो सकता है। खान-पान और प्रदूषित परिवेश के चलते पुराने ज़माने में लोगों को अक़्सर टीबी की बीमारी होती थी और इसे असाध्य रोग समझा जाता था। हलके बुखार से शुरू होकर लगातार हरारत रहने और खांसी इसके प्रमुख लक्षण थे जिसकी वजह से शरीर क्षीण होता चला जाता था इसी लिए प्राचीनकाल में  क्षय अर्थात हानि, ह्रास, घटाव, छीजना आदि। संस्कृत की क्षि धातु से बना है क्षय जिसमें नाश, अन्तर्धान या हानि होने का भाव है। यक्ष्मा का अर्थ होता है फेंफड़ों का रोग। आधुनिक चिकित्सा की भाषा में इसे टीबी इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसे फैलानेवाले रोगाणु की पहचान ट्यूबरकुलोसिस बैसिलस के रूप में हुई और इसके  संक्षेपीकरण से ही बीमारी को भी टीबी नाम मिला।  क्षय की चपेट में अमीर से ग़रीब तक आते थे मगर इसे राजरोग का दर्ज़ा सिर्फ़ इस वजह से मिला क्योंकि अमीर लोग इसका चंगुल में फंसने पर इलाज के लिए पानी की तरह पैसा बहाते थे और ग़रीब पर इसका साया पड़ते ही चटपट ज़िंदगी से निज़ात मिल जाती थी। टीबी की बीमारी में शरीर क्षीण होता चला जाता है इसीलिए दिक् शब्द का एक अर्थ टीबी या क्षय रोग भी हुआ। ज्यादातर कोशों में दिक् का अर्थ क्षय रोग भी दिया हुआ है।
टीबी के लिए हिन्दी में प्रचलित

... दिक् में एक अन्य भाव भी निहित है। गौर करना चाहिए इसके सूक्ष्म और महीन जैसे अर्थों पर। सूक्ष्मता और महीनता में नकारात्मक भाव नहीं हैं बल्कि इसका अर्थ एक किस्म का परिष्कार भी है।...

तपेदिक दरअसल फ़ारसी के तप और अरबी के दिक् से मिल कर बना है। तप ऐ दिक् > तपे दिक > तपेदिक। गौरतलब है कि संस्कृत मे जो तप का अर्थ ज्वाला, चमक, रश्मि, गरमी होता है। मूल आशय सूर्य की रोशनी और उसकी ऊर्जा से है। तप से ही बना ताप जिसका अर्थ है तपना, जलना। बरास्ता अवेस्ता, तप फ़ारसी में भी इसी रूप और अर्थ में दाखिल हुआ। तप का एक अर्थ बुखार भी हुआ क्योंकि बुखार में भी शरीर तपता है। मराठी, हिन्दी सहित ज्यादातर बोलियों में बुखार आने के लिए तपना, ताप आना भी कहा जाता है। चमक के अर्थ में फ़ारसी का ताब, तैश में आने के लिए ताव और रोटी सेंकने के लिए मोटे पेंदे वाली तश्तरी के लिए तवा जैसा शब्द इसी तप् से आ रहा है। किसी मनोरथ की पूर्ती के लिए की जानेवाली साधना को तप कहते हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में शरीर कृशकाय हो जाता है। यही साधना तपस्या है और इसे करनेवाला तपस्वी। ऐसे बुखार के लिए, जिसकी वजह से मनुष्य कृशकाय हो जाता हो, तपेदिक शब्द एकदम तार्किक है।
पूर्वी बोलियों में परेशान करने के लिए दिक करना मुहावरा भी प्रचलित है। यह दिक् इसी मूल से आ रहा है। तंग करना मुहावरा पर गौर करें जिसकी भावभूमि भी दिक करना जैसी ही है। दिक् में एक अन्य भाव भी निहित है। गौर करना चाहिए इसके सूक्ष्म और महीन जैसे अर्थों पर। सूक्ष्मता और महीनता में नकारात्मक भाव नहीं हैं बल्कि इसका अर्थ एक किस्म का परिष्कार भी है। फ्रांसिस जोसेफ़ स्टेंगस की अरबी-फ़ारसी-इंग्लिश डिक्शनरी में इसकी पुष्टि होती है जिसमें इसका अर्थ निर्मल, परिष्कृत, उत्तम, शुद्ध, उम्दा और बारीक बतलाया गया है। जाहिर सी बात है कि परिष्करण की प्रक्रिया में अशुद्धियों की छंटनी होती जाती है और मूल के आकार में कमी भी आती है। यह कमी नकारात्मक नहीं बल्कि उसका मूल्य बढ़ानेवाली होती है। अनगढ़ हीरे की कटाई से उसका परिष्करण हो जाता है और वह बेशकीमती हो जाता है। स्पष्ट है कि दिक् में निहित सूक्ष्मता, क्षीणता या महीनता के भावों से इसमें नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह की अर्थवत्ताएं समा गई हैं। दिक्क़त का प्रयोग भाषा को मुहावरेदार बनाने में भी होता है। दिक्क़त में आना हिन्दी का एक मुहावरा है। इसके अलावा इससे जुड़े कुछ और शब्द भी हिन्दी में प्रचलित हैं जैसे दिक्क़ततलब यानी ऐसा काम जिसमें कठिनाई सम्भावित हो, कष्टसाध्य या दुष्कर कार्य। दिक्क़तपसंद यानी जिसे कठिनाई का सामना करने में मज़ा आता हो, डूब कर काम करनेवाला आदि। दिक्क़त शब्द का इस्तेमाल अरबी, फ़ारसी, तुर्की, हिन्दी, मराठी, गुजराती समेत कई एशियाई भाषाओं में होता है।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Wednesday, November 24, 2010

हाथों की कुशलता यानी दक्षता

Quickbooks Choose Direction
दिशा बोध कराने के लिए हिन्दी में अक्सर दायाँ-बायाँ शब्दों का प्रयोग होता है जिसका अर्थ है लैफ्ट या राईट। यानी सीधे हाथ की ओर या उलटे हाथ की ओर। चलने की क्रिया के लिए संस्कृत में प्रयुक्त चर् धातु से कई शब्दों का जन्म हुआ। चलने की क्रिया पैरों से सम्पन्न होती है और करने की क्रिया हाथों से। हाथ और पैरों की गतियों ने भाषा को कई शब्दों से समृद्ध किया है। चर् धातु का अर्थ है इधर-उधर घूमना। गौर करें कि मनुष्य ने जो कुछ भी जाना समझा है वह घूम-फिर कर ही जाना है। चर् यानी चलना। विचरण करना। विचरण से ही आचरण बनता है। आचरण ही संस्कार का आधार है। आचरण से चरित्र स्पष्ट होता है सो चरित्र का मूल भी यही चर् धातु हुई। मुद्दे की बात यह कि चर् धातु में निहित घूमने फिरने, भ्रमण करने का जो भाव है उसमें परीक्षण अर्थात घूम फिर कर ज्ञान हासिल करने, भली भांति किसी वस्तु, तथ्य को देखने समझने की बात आती है। घूम फिर कर जब पर्याप्त तथ्य मिल जाएं तो क्या करना चाहिए ? उन तथ्यों पर विमर्श होना चाहिये। यही विचार है। चरना भी चलते चलते होता है, सो तो पशु करते हैं, पर इस तरह उनकी भूख का उपाय हो जाता है। फ़ारसी में यही उपाय चारा है। दवा भी उपाय है सो चारागर हुआ डॉक्टर यानी जो उपचार करे। जिसके पास कोई उपाय न हो, वही है बेचारा और लाचार। जाहिर है चर् की महिमा निराली है।

संस्कृत में हाथ के लिए हस्त शब्द है। बरास्ता अवेस्ता, इसका फ़ारसी रूप होता है दस्त। डॉ रामविलास शर्मा के अनुसार पूर्ववैदिक युग में इन दोनों का रूप था धस्त। अवेस्ता में धस्त से का लोप होकर दस्त शेष रहा और संस्कृत में का लोप होकर हस्तः बचा। हस्तः से ही बना है हस्तिन् जिसका मतलब हुआ हाथ जैसी सूंडवाला। गौरतलब है कि वो तमाम कार्य, जो मनुष्य अपने हाथों से करता है, हाथी अपनी सूंड से कर लेता है इसीलिए पृथ्वी के इस सबसे विशाल थलचर का नाम हस्तिन से हत्थिन > हत्थी > हाथी हुआ । हस्तिन् का एक अर्थ गणेश भी होता है जो उनके गजानन की वजह से बाद में प्रचलित हुआ। हस्तिनी से बना हथिनी शब्द। श्रंगाररस के तहत साहित्य में जो नायिका भेद बताए गए हैं उनमें से एक नायिका को हस्तिनी भी कहते हैं। उधर फ़ारसी के दस्त से भी कई शब्द बने और हिन्दी में प्रचलित हुए जैसे दस्ताना यानी हाथों पर पहना जानेवाला ऊनी आवरण।  दस्तक यानी दरवाजे पर हाथ से दी जाने वाली थपकी। दस्तकार यानी कुशल शिल्पी, जाहिर है यहाँ हाथों की कारीगरी पर ही ज़ोर है। अपने नाम के चिह्नांकन के लिए हिन्दी में अगर हस्ताक्षर शब्द प्रचलित है तो उर्दू फ़ारसी में यह दस्तख़त है। यहाँ ख़त में लिखने का भाव है अर्थात तहरीरी सनद का निशान। दस्तबस्ता यानी हाथ बांधकर खड़े रहना। दस्तयाब यानी प्राप्त होना, हस्तगत होना, हासिल होना।यूँ देखें तो दस्तयाब और हस्तगत में एक ही भाव है।
स् में शामिल दस् से संस्कृत की दक्ष् धातु सामने आई। इससे बने दक्ष का अर्थ है कुशल, चतुर, सक्षम या योग्य। इसमें उपयुक्तता या खबरदारी और चुस्ती का भाव भी है। इससे जो बात उभरती है वह है जो हाथों से काम करने में कुशल हो, वह दक्ष। ज़ाहिर है यह पूर्ववैदिक युग में इस शब्द की अर्थवत्ता थी। जो हाथ सर्वाधिक कुशल हो वह हुआ दक्षिण। स्पष्ट है कि दक्षिण > दक्खिन > दहिन > दाहिना जैसे रूप सामने आए। बाद में दाहिना > दाह्याँ > दायाँ जैसे रूप भी बने। इस तरह दक्ष से हिन्दी को दक्षिण, दाहिना या दायाँ जैसे शब्द मिले। जाहिर है अग्निपूजक आर्यों ने सूर्याभिमुख होकर सर्वाधिक सक्रिय हाथ के नाम पर ही चार दिशाओं में से एक का नाम दक्षिण रखा। आप्टेकोश में भी दक्षिण का अर्थ योग्य, कुशल, निपुण बताया गया है।
hands... दक्ष से हिन्दी को दक्षिण, दाहिना या दायाँ जैसे शब्द मिले। जाहिर है अग्निपूजक आर्यों ने सूर्याभिमुख होकर सर्वाधिक सक्रिय हाथ के नाम पर ही चार दिशाओं में से एक का नाम दक्षिण रखा। ...
क्ष की व्याप्ति भारोपीय भाषा परिवार में भी है।भाषा विज्ञानियों नेंइंडो-यूरोपीय परिवार में दक्ष् से संबंधित dek धातु तलाश की है जिसका अर्थ भी शिक्षा, ज्ञान से जुड़ता है। हिन्दी में बहुप्रचलित डॉक्टर शब्द की इससे रिश्तेदारी है। यूँ डॉक्टर बना है लैटिन के docere से जिसमें धार्मिक शिक्षक, सलाहकार या अध्येता का भाव है। जिसने अंग्रेजी में डाक्टर यानी चिकित्सक के अर्थ में अपनी जगह बना ली। भारोपीय धातु डेक् की रिश्तेदारी संस्कृत की धातु दीक्ष् और दक्ष् से है जिनसे बने दीक्षा और दक्ष शब्द हिन्दी में खूब प्रचलित हैं। पहले बात दक्ष की। दक्ष का मतलब होता है एक्सपर्ट, कुशल, विशषज्ञ, योग्य, चतुर आदि। पौराणिक चरित्र को तौर पर दक्ष प्रजापति का नाम भी इसी धातु से जुड़ा है। आप्टे कोश के मुताबिक दक्ष शिव का एक विशेषण भी है। अग्नि, नंदी को भी दक्ष कहा गया है। इसी तरह बहुत सी प्रेमिकाओं पर आसक्त प्रेमी को भी दक्ष कहा गया है। इसी तरह दीक्षा शब्द का मतलब है यज्ञ करना, धार्मिक क्रिया के लिए तैयार करना, खुद को किसी शिक्षा, ज्ञान के संस्कार के लिए तैयार करना आदि। इससे बने दीक्षक: का अर्थ है शिक्षक या शिक्षा देनेवाला। दीक्षणम् का अर्थ है ज्ञान प्रदान करना, शिक्षा देना। इसी तरह दीक्षित का अर्थ है शिक्षित, प्रशिक्षित, शिष्य, पुरोहित, उपाधि प्राप्त आदि। 
अगली कड़ी-दक्षिणापथ की प्रदक्षिणा
-जारी
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Thursday, November 18, 2010

शौर्यप्रतीक है सिंह

1995402_cab4_625x1000पिछली कड़िया-1.सिंह का सिंहावलोकन 2. शेर के सींग या शेरसिंग?

सिं ह को मूल शब्द न मानते हुए अगर सिंग या सिंघ को मूल माना जाए तब इनके जरिए सिंह का विकास किस तरह हुआ होगा? जैसा कि मोनियर विलियम्स सुझाते हैं कि सिंह की व्युत्पत्ति सह् से हुई है, तब सह का अगला रूप सघ् बनेगा। यहाँ तक बात समझ में आती है मगर भाषा हमेशा सरल रास्ता अपनाती है। सघ् जैसे सरल पद में नासिक्य ध्वनि के साथ स्वरागम क्यो हुआ होगा, यह बात समझ से परे है। हिन्दी में सिंघ शब्द के चलन के पीछे अंग्रेजी हिज्जे SINGH की बात कही जाती है। यह बात सिंघ को सिंह का मूल बतानेवाले भी कहते हैं। मगर ऐसा नहीं है। हर दौर में भाषा के प्रति उदासीनता बरतनेवाले लोग रहे हैं। अंग्रेज विद्वानों नें तो सिंह के हिज्जे sinh ही लिखे थे। उस दौर के पढ़े लिखों ने भी रोमन उच्चारण को अपने हिसाब से ढाला। सिंह कहीं सिंग, सिंघ, सिंहो, सिंहा और कहीं सिन्हा sinha के रूप में सामने आया। हिन्दीभाषियों में प्रचलित सिन्हा उपनाम दरअसल सिंह का ही बिगड़ा रूप है।
सिंह का एक अर्थ राजा भी है और ज्योतिष के राशि चक्र की पांचवी राशि का नाम भी सिंह ही है। यह भी धारणा सामने आई है कि सिंह का मूल अर्थ राजा ही है, मगर यह दूर की कौड़ी है। सिंह से बने जितने भी शब्द हैं उनकी अर्थवत्ता में सिंह की स्थापना एक महाबली और हिंस्त्र पशु के रूप में ही होती है। सिंहावलोकन शब्द का अर्थ है सिंह के समान पीछे देखते हुए चलना, सजगता के साथ गति करना। मुहावरे के रूप में इसका अर्थ होता है पिछले अनुभवों, घटनाओं पर विचार करना है। सम्यक रूप से हर पहलू पर चिंतन कर लेना ही सिंहावलोकन है। शासक को सिंह की तरह होना चाहिए। सिंह के लक्षणों के आधार पर यह शब्द बना है न कि शासक के। इसी तरह सिंहासन शब्द का अर्थ चाहे राजगद्दी या राजा के बैठने की पीठिका होता हो, मगर यह बना है सिंहमुखासन से अर्थात वह आसन जिसके पुश्त पर सिंह की आकृति उकेरी गई हो। यहाँ सिंह का अर्थ राजा नहीं बल्कि शेर ही है। शौर्य और वीरता के प्रतीक के रूप में राजा के आसनों पर शेर की आकृति बनाने का रिवाज़ था। ग्रीक, रोमन और मिस्री सभ्यताओं में भी सिंहमुख आसन मिले हैं। क्या यह माना जाए कि वहां की स्थानीय भाषाओं में भी सिंह के रूपांतरों का निहितार्थ राजा ही होता था?
नुष्य ने खुद को प्रकृति के साथ ही विकसित किया है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और जल-वायु से संबंधित शब्दावली का मानवीकरण एक सहज प्रक्रिया के तहत मनुष्य करता रहा है। राज्यव्यवस्था विकासक्रम में बहुत बाद में आई। आदिम हिंसा जब युद्धविधियों में ढली तब उसे वीरता और शौर्य जैसे नाम मिले, पराक्रम से उसका रिश्ता बना। राज्य और राजा नाम की व्यवस्था जब बनी उसके बाद ही मनुष्य ने लक्षणों के आधार पर जंगल को एक व्यवस्था या राज्य समझा और शेर को वहाँ का राजा माना। शौर्य प्रतीक के तौर पर सिंह शब्द में राजा या शासक जैसे भाव विकसित हुए। आप्टे कोश में सिंह में निहित विविध भावों में राजा का कोई उल्लेख नहीं है। वहां सिंह का एक अलग अर्थ भी है-अपनी श्रेणी में प्रमुख। चाहें तो इसका अर्थ राजा लगाया जा सकता है। हाँ, मोनियर विलियम्स में ज़रूर सिंह के मूलार्थ के अलावा एक अर्थ राजा भी बताया गया है, मगर यह लक्षणों से प्रेरित परवर्ती अर्थविकास ही है। हिन्दी के विभिन्न शब्दकोशों को टटोलने पर भी शासक के विभिन्न पर्यायों में इंद्र, भूपाल, पृथ्वीपति, राजा, नरेश, भूपति,सम्राट, अधीश्वर, अधिष्ठाता, चक्रवर्ती, नरश्रेष्ठ, महिपाल, राजेश्वर जैसे दर्जनों शब्द मिलते हैं मगर सीधे सीधे इसी अर्थ में वहाँ सिंह की प्रविष्टि नहीं मिलती। मिसालें और भी हैं। विष्णु का एक रूप नरसिंह है। सिंह अगर राजा है तो उसके आगे नर लगाने की ज़रूरत क्यों पड़ी? पुराणों में विष्णु के शौर्यपरक पराक्रमी स्वरूप को उभारने के लिए नरसिंहावतार की कल्पना की गई है अर्थात सिंह के लक्षणों पर एक दैवीय चरित्र को नया आयाम मिला। यह प्रवृत्ति सिर्फ सिंह शब्द के साथ नहीं है बल्कि सिंह के अन्य पर्यायों के साथ भी है। सिंह को केशरी या केसरी भी कहते हैं। नरकेसरी शब्द का अर्थ हुआ शेर जैसे शौर्य का प्रदर्शन करनेवाला। संस्कृत में शार्दूलः का अर्थ व्याघ्र होता है। प्राचीनकाल में नरशार्दूल उपाधि भी प्रचलित थी जिसका अर्थ प्रमुख व्यक्ति, पूज्य व्यक्ति। जाहिर है यहाँ राजा अर्थ भी लगाया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यही कि मनुष्य ने विकासक्रम में प्रकृति से सीखा और भाषा-संस्कृति पर इसका स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। अगर सिंह का मूलार्थ राजा है तब इन तमाम शब्दों का मूलार्थ भी राजा या शासक ही होना चाहिए!!!
प्राचीनकाल में भी नाम के साथ सिंह लगाने के परिपाटी थी। यह परम्परा कितनी पुरानी है, कहना कठिन है किन्तु संदर्भों के अनुसार अमरकोश में इसका इस्तेमाल शाक्यसिंह कहकर गौतमबुद्ध के लिए हुआ है जिसका अर्थ शाक्यवंश में सिंह के समान श्रेष्ठ। यहाँ सिंह को राजा का पर्याय मानते हुए शाक्यसिंह की व्याख्या करना भूल होगी। संस्कृत में केशिन् का अर्थ भी सिंह ही होता है। दक्षिण के राजा यह उपाधि लगाते थे। इतिहास में पुलकेशिन नाम के दो प्रसिद्ध राजा हुए हैं।
lion-symbolअत्यंत प्राचीन समाजों में टोटेम अर्थात कुलचिह्नों या गणचिह्नों का प्रचलन था। दुनियाभर में यह प्रथा रही है। टोटेम प्रकृति से ही चुने जाते थे। शेर, कुत्ता, बिल्ली, चूहा, बाज, सर्प, मगरमच्छ, मछली अथवा बंदर जैसे कई अन्य पशु-पक्षी-कीट विभिन्न गणसमुदायों के कुलचिह्नों में देखे जा सकते हैं।
नाम के साथ केशरी या केसरी आज भी जोड़ा जाता है जिसमें वहीं भाव है जो सिंह में है जैसे सीताराम केसरी। क्षत्रियों में जिस तरह से अपने नाम के साथ सिंह लगाने की परिपाटी है वह इसी वजह से है क्योंकि प्राचीनकाल में उन्हें लगातार युद्धकर्म में जुटे रहना पड़ता था। नाम के साथ शौर्यसूचक सिंह लगने से उनका जातीय गौरव उभरता था जो उत्साह और ऊर्जा का संचार करता था। शाक्यसिंह के बाद विक्रमादित्य के साथ सिंह शब्द लगाने का लिखित प्रमाण मिलता है। रामगोपाल सोनी के शब्दसंस्कृति पुस्तक में दिए संदर्भ के अनुसार अमरकोश के रचनाकार ने भी अपने नाम के साथ सिंह शब्द जोड़ा। ईसापूर्व पहली सदी में विक्रमादित्य के नवरत्न के तौर पर अमरसिंह के नाम का उल्लेख मिलता है। मज़ेदार यह भी है कि भारतीय नामों में शेरसिंह, केहरसिंह, केशरीसिंह, केसरसिंह जैसे नाम भी मिलते हैं। इन तमाम शब्द युग्मों के दोनों पद जैसे शेर+सिंह का अर्थ एक ही है। जाहिर है नाम रखनेवालों ने पहले पद का प्रयोग तो शेर की तरह किया मगर दूसरे पद में रूढ़ उपाधि की तरह सिंह लगा लिया। ठीक वीरबहादुर की तरह से जिसमें वीर और बहादुर दोनों का अर्थ एक ही है। स्पष्ट है कि सिंह का मूलार्थ राजा नहीं बल्कि वनराज सिंह ही था।
खिरी बात। अत्यंत प्राचीन समाजों में टोटेम अर्थात कुलचिह्नों या गणचिह्नों का प्रचलन था। दुनियाभर में यह प्रथा रही है। टोटेम प्रकृति से ही चुने जाते थे। शेर, कुत्ता, बिल्ली, चूहा, बाज, सर्प, मगरमच्छ, मछली अथवा बंदर जैसे कई अन्य पशु-पक्षी-कीट विभिन्न गणसमुदायों के कुलचिह्नों में देखे जा सकते हैं। इसके अलावा जल, वायु, सूर्य, अग्नि जैसे तत्व भी टोटेम रहे हैं। इनमें कई आज भी प्रचलित हैं और कई लुप्त हो गए। भारतीय संस्कृति के ख्यात अध्येता देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय लोकायत में लिखते हैं कि वैदिक संहिताओं के नाम पशुओं के नामों पर हैं जैसे आश्वलायन, माण्डुकायन, लांगुलिक और शार्दूलीय। यहां मेंढक, बंदर, घोड़ा और शार्दूल यानी शेर के स्वरूप स्पष्ट पहचाने जा सकते हैं। तैतिरीयोपनिषद का नाम तित्तिर यानी तीतर के आधार पर पड़ा। बच्चा शब्द के मूल में वत्स ही है जिसका प्राचीन अर्थ पशुशावक ही था। गौतम, शुनक, वत्स, कौशिक, मांडुकेय अथवा कश्यप जैसे नाम किसी न किसी पशु के नाम पर आधारित ही हैं। हमारे कई राज परिवारों का राजचिह्न सूर्य रहा है। कुछ के साथ सिंह नज़र आता है। चंद्रवंशी या सूर्यवंशी जैसे गोत्र के मूल में यही आदिम टोटेमवाद है। विष्णु के नरसिंह रूप में भी यही बात है। मेरे अपने परिवार के कुलदेवता के रूप में विष्णु के नरसिंह रूप की ही पूजा होती है, अन्य किसी की नहीं। हमारे परिवार में सर्प को कभी मारा नहीं जाता, बल्कि उसे छोड़ दिया जाता है। ये तमाम बातें क्या साबित करती हैं?

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Sunday, November 14, 2010

शेर के सींग या शेरसिंग?

lion  african-lion-final 
सिंह के सिंग बनने के पीछे शेर की दहाड़ नहीं, बल्कि मनुष्य का ध्वनितंत्र महत्वपूर्ण रहा। 
सिं ह के सिंघ बनने का मामला सीधे सीधे ध्वनितंत्र से जुड़ रहा है। भाषाओं के संदर्भ में ध्वनितंत्र पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। अलग अलग समूहों में उच्चारण भिन्नता होती है। हर समूह में परिनिष्ठित भाषा बोलनेवाले भी रहे हैं। मराठीभाषियों सहित अधिकांश पढ़ेलिखे दक्षिण भारतीय कभी सिंग, सिंघ नहीं उच्चारते। बड़ी सफ़ाई के साथ सिंह ही बोलते हैं और इसके लिए किसी श्रम की ज़रूरत नहीं पड़ती। मराठी लेखक अविनाश बिनीवाले ने अपनी पुस्तक ‘भाषा घड़तांना’ में ऐतिहासिक भाषावैज्ञनिक दृष्टि से सिंह के सिंघ में बदलने पर विचार रखे हैं। भाषायी अपकर्ष या उसके भ्रष्ट होने का सिलसिला भी बेहद पुराना है। भाषा भ्रष्ट न होती तो पाणिनी को ईसा पूर्व छठी सदी में तत्कालीन प्रचलित प्राकृतों के उच्चारण इतने न चुभे होते और उन्हें भाषा को संस्कारित करने और उसका व्याकरण रचने की ज़रूरत न पड़ती। उन्होंने खोज कर शब्दों के मूल स्वरूप निर्धारित किए और इस तरह संस्कारित भाषा संस्कृत कहलाई। बहरहाल, यह संदर्भ इसलिए क्योंकि सिंह का प्राकृत सिंघ रूप तब भी चलन में था। हमारे यहां संस्कृत उच्चारण की वैदिक परम्परा का बड़ा महत्व है। इस परम्परा की दो शैलियाँ भारत में प्रचलित हैं। एक ऋग्वैदीय और दूसरी यजुर्वेदीय। वेदों में पहला वेद ऋग्वेद है और इसी आधार पर इसकी ऋचाओं के पाठ की शैली को ऋग्वैदीय कहा गया। इस शैली में दीक्षित ब्राह्मण, पुरोहित और उद्गाता ऋग्वैदीय ब्राह्मण कहलाए।
मतौर पर हिन्दी क्षेत्रों में भी सिंह का उच्चारण वैसा नहीं होता, जैसा मराठीभाषियों या दक्षिणात्य ब्राह्मण करते हैं। सिंग में अनुस्वार पर जितना जोर देकर बोला जाता है, आमतौर पर सिंह को वैसा नहीं बोलते। मगर मराठी उच्चारण में सिंह के अनुस्वार की शुद्धता सिंग जैसी ही बरकरार रहती है फलतः उसका उच्चारण सिंव्ह की तरह होता है जबकि हिन्दी के सिंह में यह अनुस्वार स्पर्शध्वनि की तरह होता है। गौर करें कि जब सिं पर अनुस्वार की ध्वनि को हम उच्चारते हैं तब होंठो की स्थिति गोलाकार होती है और की ध्वनि भी निकलती है। दन्त्योष्ठ्य ध्वनि है। आर्य संस्कृति से प्रभावित या यूँ कहें कि संस्कृत के संस्कार के साथ दक्षिणापथ की ओर जिन गण समूहों के जाने का सिलसिला रहा, दरअसल वे ऋग्वैदीय थे और इसीलिए संस्कृत के शुद्ध और सांगीतिक उच्चारण की उनकी शैली साफ़ पहचानी जाती है। इसी वजह से आद्य शंकराचार्य ने आज से बारह सौ वर्ष चारों दिशाओं में स्थापित मठों में दक्षिणात्य ब्राह्मणों, उनमें भी विशेषतौर पर मराठी ब्राह्मणों को नियुक्त किया था ताकि संस्कृत का मूल वैदिक स्वरूप सुरक्षित रह सके। वे स्वयं नम्बूद्री ब्राह्मण थे, किन्तु मठीय व्यवस्था में उन्होंने अपने जातीय समूह से कोई वेदपाठी नहीं रखा।
बिनीवाले की बात तार्किक इसलिए भी लगती है क्योंकि सिंह से बने नरसिंह शब्द का द्रविड़ भाषाओं में जो उच्चारण होता है वह है नरसिम्ह या नरसिम्हासि के साथ
sher-khan-saman-khanऋग्वैदीय उच्चारण शैली और यजुर्वैदीय उच्चारणशैली नें सिंह को सिंग बना दिया
जुड़े अनुस्वार को ऋग्वैदीय शुद्धता के साथ बरतते हुए मराठी में जहाँ दन्त्योष्ठ्य ध्वनि सुनाई पड़ती है वहीं द्रविड़ भाषाओं में यह ओष्ठ्य ध्वनि में बदल जाती है। मूल संस्कृत में भी अनुस्वार में यही ध्वनि है। सिंह के सिंघ उच्चारण के पीछे अंग्रेजी के singh को मूल कारक मानना इसलिए भी ठीक नहीं है कि क्योंकि अनुस्वार के पीछे छुपी नासिक्य ध्वनियों के लिए हिन्दी के कई शब्दों के अंग्रेजी में हिज्जों में व्यंजन का प्रयोग साफ़ देखा जाता है। उत्तर भारतीय प्राकृतों यथा मागधी, शौरसैनी, पैशाची पर यजुर्वेदी प्रभाव अधिक होने से सिंह के उच्चारण में तब्दीलियाँ आईं। यजुर्वेदीय शैली में सिंह की ध्वनि पर अधिक जोर नहीं रहा, मगर सि के अनुस्वार पर स्वाभाविक बल बना रहा। स्पष्ट है कि अनुस्वारयुक्त सिं के साथ स्वर विहिन के उच्चार में कण्ठ्य की बजाय ध्वनि का पुट सुनाई पड़ता है। यही वजह रही सिंह के सिंग या सिंघ बनने की।
वैदिक व्यंजन ज्ञ की प्रचलित ध्वनि को याद करें और उसके मूल स्वरूप के बारे में सोचें। देवनागरी के ज्ञ वर्ण ने अपने उच्चारण का महत्व खो दिया है। अपभ्रंशों से विकसित भारत की अलग अलग भाषाओं में इस युग्म ध्वनियों वाले अक्षर का अलग अलग उच्चारण होता है। मराठी में यह ग+न+य का योग हो कर ग्न्य सुनाई पड़ती है तो महाराष्ट्र के ही कई हिस्सों में इसका उच्चारण द+न+य अर्थात् द्न्य भी है। गुजराती में ग+न यानी ग्न है तो संस्कृत में ज+ञ के मेल से बनने वाली ध्वनि है। दरअसल इसी ध्वनि के लिए मनीषियों ने देवनागरी लिपि में ज्ञ संकेताक्षर बनाया मगर सही उच्चारण बिना समूचे हिन्दी क्षेत्र में इसे ग+य अर्थात ग्य के रूप में बोला जाता है। शुद्धता के पैरोकार ग्न्य, ग्न , द्न्य को अपने अपने स्तर पर चलाते रहे हैं। ठीक यही बात सिंह के सिंग / सिंघ उच्चारण के संदर्भ में भी लागू होती है। जारी

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Friday, November 12, 2010

सिंह का सिंहावलोकन

roi-lion-presentation

ब्द निर्माण की प्रक्रिया कभी जटिल तो कभी बहुत आसान होती है। वर्ण विपर्यय, वर्णागम या वर्णलोप के जरिए नए नए शब्द बनते रहते हैं। वर्ण विपर्यय यानी किसी शब्द के दो वर्णों का स्थान परिवर्तन जैसे लखनऊ का नखलऊ हो जाना। इसी तरह एक उदाहरण है सिंह का। सिंह अर्थात शेर। जंगल का राजा जिसकी हिंस्त्र प्रवृत्ति का कोई सानी नहीं मिलता। सिंह की व्युत्पत्ति इसी हिंस् के वर्णविपर्यय का परिणाम है। हिंस् यानी मारना, काटना, नष्ट करना आदि। हिंस के मूल में हन् है जिसमें मारने, काटने, तोड़ने, चोट पहुँचाने, खरोचने, घात करने का भाव है। विकास की प्रारम्भिक अवस्था में मनुष्य ने प्राकृतिक आश्रय स्थल खोजे थे। वृक्षों की कोटरों और पर्वतीय कंदराओं में उसका निवास था। कंदराएं प्राकृतिक होती थीं, बाद में मनुष्य ने इनका निर्माण भी शुरू किया। आश्रयों निर्माण का यह आदिकाल था। डॉ रामविलास शर्मा के ऐतिहासिक भाषा विवेचन पद्धति से सोचने पर मुझे लगता है हन् का पूर्ववैदिक रूप खन् रहा होगा जिसमें खरोचने, खोदने, तोड़ने, चोट पहुँचाने का भाव है। खुदाई के लिए खनन शब्द के मूल में यही धातु है। खान, खनिक जैसे शब्द भी यहीं से आ रहे हैं। खन् से ध्वनि का लोप होकर शेष रहा। खोदने, खरोचने, तोड़ने तक सीमित खन् की अर्थवत्ता का विकास इसके अगले रूप हन में हुआ जिसमें किसी का नाश करना, चोट पहुँचाना, जान से मारना जैसे भाव हैं।
प्रोटो इंडो-यूरोपियन भाषा का एक मूल शब्द है ग्वेन। इससे ही भाषाविज्ञानी संस्कृत के हन् या हत् का रिश्ता जोड़ते हैं। इस हन् की व्यापकता इतनी हुई कि अरबी समेत यह यूरोप की कई भाषाओं में जा पहुंचा और चोट पहुँचाना या मार डालना जैसे अर्थों में तो अपनी मौजूदगी दर्ज करवाई ही साथ ही इसके विपरीत अर्थ वाले शब्द जैसे डिफेन्स (रक्षा या बचाव) के जन्म में भी अपना योगदान दिया। यही नहीं हत्या के प्रमुख उपकरण- अंग्रेजी भाषा के गन की रिश्तेदारी भी इसी हन् से है। हन् न सिर्फ हत्या - हनन आदि शब्दों से बल्कि आहत, हताहत, हतभाग जैसे शब्दों से भी झाँक रहा है। यही नहीं, निराशा को उजागर करनेवाले हताशा और हतोत्साह जैसे शब्दों का जन्म भी इससे ही हुआ है। कहावत है कि बेइज्जती मौत से भी बढ़कर है। हन् जब अरबी में पहुँचा तब तक संस्कृत में ही इसका हत् रूप विकसित हो चुका था। अरबी में इसका रूप हुआ हत्क जिसका मतलब है बेइज्जती, अपमान या तिरस्कार। इसी तरह हत्फ़ यानी मृत्यु। यही हत्क जब हिन्दी में आया तो हतक बन गया जिसका अर्थ भी मानहानि है। बात चाहे मौत की हो, हताशा की हो या बेइज्जती की हो भाव तो एक ही है - कुछ नष्ट होने का, चले जाने का। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी इसी खन् में नाखून का मूल रूप नख देखते हैं। कहना न होगा कि मनुष्य के पास खरोचने, खोदने का सर्वप्रथम आदिम उपकरण नख ही था जो खन् के वर्णविपर्यय से बना है। ध्यान रहे कि नख ही मनुष्य के आदिम हथियार रहे हैं और सिंह के भी। इसके जरिए ही हिंसक क्रियाओं की शुरुआत और उनका प्रतिकार प्राचीनकाल में होता रहा है।
भाषाविज्ञानी इसी हन् की रिश्तेदारी वाले हिंस के वर्णविपर्यय से खूँखार वन्यजीव सिंह की व्युत्पत्ति मानते हैं। काफ़ी हद तक यह तार्किक भी है। हिन्दी और उसकी कई बोलियों में सिंह शब्द का उच्चारण बहुधा सिंघ या सिंग भी होता है। यूँ कहें कि सभी भाषा-भाषियों में सिंह को सिंग बोलने की प्रवृत्ति ज्यादा है, तो भी ग़लत नहीं होगा। कुछ लोगों का मानना है कि सिंह का मूल रूप सिंघ है और सिंह इसका रूपान्तर है, मगर यह धारणा ठीक नहीं है। कुछ तो यह तक कहते हैं कि अंग्रेजी में सिंह को singh लिखा जाता है इसलिए हिन्दी में सिंह को सिंघ लिखने का चलन हुआ। ज्यादातर भाषाविज्ञानी सिंह उच्चारण को ही सही मानते हैं। वैदिक स्वरूप भी सिंह ही है।
मैं पहले भी कह चुका हूँ कि किसी शब्द के मूल तक पहुँचने के उसे बोलनेवाले भाषायी समूह के ध्वनितंत्र पर भी ध्यान देना चाहिए।
... मनुष्य के पास खरोचने, खोदने का सर्वप्रथम आदिम उपकरण नख ही था जो खन् के वर्णविपर्यय से बना है। ध्यान रहे कि नख ही मनुष्य के आदिम हथियार रहे हैं और सिंह के भी...
यहाँ भी वही बात हो रही है। मोनियर विलियम्स से लेकर जान प्लैट्स तक और  किशोरीदास वाजपेयी से लेकर रामविलास शर्मा तक सभी विदेशी-देशी विद्वान सिंघ को सिंह का रूपांतर ही मानते हैं। सिंह का प्राकृत रूप हुआ सिंघ, यह बना है सिंहः > सिंहो > सिंघो > सिंघ के क्रम में। भारतीय संदर्भों में सिंह को हिंस् का वर्णव्यत्यय बताया जाता है जबकि सिर्फ़ मोनियर विलियम्स ने व्युत्पत्ति के इस आधार का उल्लेख न करते हुए इसके जन्मसूत्र संस्कृत की सह धातु में छिपे होने की संभावना जताई है। सह् का अर्थ सहारा देना, सहन करना या भुगतना होता है। इसका रिश्ता खींचतान कर तो सिंह से स्थापित होता है, मगर सीधे सीधे नहीं। सह् से बने सिंह का अर्थ सिंह की मूल प्रवृत्ति हिंसा से कैसे जोड़ा जाए, यह प्रश्न है। सिंह की हिंसा का शिकार ही हिंसा को भुगतता है, तब सिंह तो शिकार की संज्ञा हुई न कि शिकारी की। हालाँकि मोनियर विलियम्स आगे यह भी लिखते हैं कि सिहं का सिंघ रूपांतर मुखसुख के आधार पर बना है। जाहिर है कि सिंह को वे भी मूल शब्द मान कर चल रहे हैं। इसका महत्वपूर्ण प्रमाण है सिंह की उनकी प्रविष्टि में इसके रोमन हिज्जों को sinh लिखा जाना। मोनियर विलियम्स ने कही भी सिंह के लिए मूल रूप singh नहीं लिखा है।
वैसे शरदचंद्र पेंढारकर सिंह की व्युत्पत्ति चार तरह से बताते हैं जैसे सह् से सिंह की व्युत्पत्ति के लिए सहनात् सिंहः जैसा पद दिया है जिसके अनुसार जो दूसरों को दबाए, वह सिंह है। इसके साथ ही वे हन् में सम उपसर्ग के जरिए भी सिंह की व्युत्पत्ति बताते हैं जिसका अर्थ है खूब हिंसा करना। इसी तरह हिंस के वर्णविपर्यय से सिंह बनने का भी उल्लेख है साथ ही संहाय हंतीती जैसे पद के जरिए वे यह बताते हैं कि चूँकि शिकार करते समय खुद को संकुचित करता है इसलिए उसे सिंह कहा जाता है। मगर ये सब पद व्युत्पत्ति सिद्ध करने के लिए गढ़े गए हैं। संस्कृत में यह परम्परा पुरानी है। –जारी
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Thursday, November 11, 2010

गुटके का गुटकना

gutka

गु टका शब्द हिन्दी में बहुप्रचलित है। गुटका यानी सुगंधित पदार्थों जैसे लौंग, इलायची आदि का सूखे कत्थे और सुपारी के साथ मिलाकर बनाया हुआ मिश्रण। इसे पान मसाला भी कहते हैं। तम्बाकू के शौकीन इसके साथ तम्बाकू का सेवन करते हैं।मुखशुद्धि के लिए इस मसाले का प्रयोग काफ़ी पुराना है। आमतौर पर हिन्दी में गुटका शब्द अब कम इस्तेमाल होता है और इसकी जगह इसके रूपांतर गुटखा ने ले ली है। हालाँकि गुटखा अशुद्ध प्रयोग है पर हिन्दी में अब इसे स्वीकृति मिल गई है। इसमे अन्तिम व्यंजन है। हिन्दी के किन्हीं क्षेत्रों में इस उच्चार को की तरह सुने जाने से असावधानीवश इसे गुटखा लिखने का सिलसिला शुरू हो गया। शब्दों के सही अर्थ तक पहुँचने की जिज्ञासा वैसे भी हिन्दी जगत में कम है। उसकी व्युत्पत्ति या सही रूप जानने की तो बात ही अलग है।
गुटका बना है संस्कृत के गुटिका से जिसका अर्थ है छोटी गोली या वटी, गोल गोल कंकड़ या पत्थर, सूत या कपड़े से बना गोला। आपटे कोश में गुटिका की व्युत्पत्ति गु+टिक = गुटि+कन्+टाप् बताई गई है। संस्कृत के गु शब्द का अर्थ है विष्ठा करना, मलोत्सर्ग करना आदि। निश्चित ही ये शब्द गुटका से मेल नहीं खाते। अगर विष्ठा के आकार पर भी गौर किया जाए तब भी गुटिका के मूलार्थ से यह मेल नहीं खाता। दरअसल गु या गू के मूल में गम् धातु है जिसमे हिलने-डुलने, चलने, निकल जाना, गति करने जैसे भाव हैं। इस तरह संस्कृत के गुटि में उस छोटे पिण्ड या वस्तु का भाव है जो गोल गोल है। गोल वस्तु अपनी जगह पर स्थिर नहीं रहती अर्थात् गति करती है। गुटिका में दरअसल यही भाव है। प्रसंगवश हिन्दी में मल के लिए गू शब्द भी प्रचलित है जिसके मूल में संस्कृत के गूथः, गूः या गून जैसे शब्द हैं जो इसी शृंखला के हैं। संभवतया उदर, जठर अथवा पेट में पाचन क्रिया की विभिन्न गतियों के चलते और अंततः शरीर से निकल जाने के गतिसूचक भावों के चलते इस उत्सर्जी पदार्थ को यह नाम मिला हो। मोनियर विलियम्स के कोश में गुटका शब्द की उपरोक्त व्युत्पत्ति नहीं दी गई है। अलबत्ता गु शब्द का अर्थ वही है जो आप्टे बता रहे हैं। गौरतलब है कि संस्कृत-हिन्दी में खींच-तान कर व्युत्पत्तियाँ सिद्ध करने की परिपाटी काफी पुरानी है और इसीलिए मान्य ग्रंथों में दी गई व्युत्पत्तियाँ कई बार गले नहीं उतरतीं।
प्रचलित हिन्दी में गटका का अर्थ है तम्बाकू रहित या तम्बाकू मिश्रित पान मसाला। आमतौर पर किसी पदार्थ को निगलते हुए होनेवाली गुट-गुट ध्वनि के आधार पर भी इस शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है। कबूतर की आवाज़ को गुटुरगूँ ध्वनि की वजह से ही कहा जाता है।
हिन्दी के गुटका शब्द में संस्कृत के गुटिका में निहित गोल और छोटी वस्तु में से केवल छोटेपन का भाव सुरक्षित है, गोल वाला भाव यहाँ गायब हो गया है।side_effects_of_gutka
माना जा सकता है कि गुटका शब्द ध्वनिअनुकरण सिद्धांत पर जन्मा हो। बात काफ़ी हद तक सही है, मगर पान मसाले को किसी गोली की तरह निगला नहीं जाता बल्कि उसे पहले खूब चबाया जाता है, उसकी लार उगली भी जाती है तब जाकर वह गुटकने लायक बनता है। निगलने से पहले इतनी क्रियाओं से गुज़रने वाले पदार्थ का नाम निश्चित ही ध्वनिअनुकरण के आधार पर तो नहीं पड़ा होगा। गौर करें हिन्दी के गुटका शब्द में संस्कृत के गुटिका में निहित गोल और छोटी वस्तु में से केवल छोटेपन का भाव सुरक्षित है, गोल वाला भाव यहाँ गायब हो गया है। हिन्दी में गुटका का अर्थ छोटी पुस्तिका जैसे रामायण का गुटका, भी प्रचलित है। यहां भी गोल नहीं,छोटे का भाव उभर रहा है। गुटकने से गुटका की व्युत्पत्ति तब सिद्ध होती जब गुटका चाहे किताब हो या पान मसाला, गोल गोल होता। भांग की वटी को गोली ही कहा जाता है, उसके लिए गुटका शब्द नहीं चलता। आज पानमसाले के पाऊचों के लिए गुटका शब्द प्रचलित हो गया है। पुराने ज़माने में भी गुटका पुड़िया में बांधा जाता था।
रवाज़ों के पल्लों को अधखुला रखने के लिए अटकाए जाने वाले लकड़ी के टुकड़े को गुट्टा कहते हैं। दरअसल यह भी गुटका है। इसी तरह नाटे ठिंगने व्यक्ति को भी गुटका या गट्टा कहा जाता है। इसका स्त्रीवाची गुटकी या गट्टी हो जाता है। कहीं कहीं ठिंगनों को लिए गठान या गुठली शब्द भी प्रचलित है। हिन्दी में गटकना या गुटकना का प्रयोग मुहावरे की तरह भी होता है। किसी चीज़ को हड़पने के लिए गटकना शब्द का मुहावरेदार प्रयोग होता है। हिन्दी के समूहवाचीगुट  शब्द का इस शब्द शृंखला से रिश्ता नहीं है। गुट यानी संघ, समूह, दल या मंडली संस्कृत के गोष्ठ से बने हैं। प्राचीन काल में गोष्ठ वह स्थान था जहां गाएं बांधी जाती थी, उन्हे चारा-दाना –पानी दिया जाता था। तब सभी गोपालक एक साथ बैठकर दुनिया-जहान की चर्चा करते थे जिसे गोष्ठी कहा जाता था। पिकनिक के अर्थ में मालवा राजस्थान में गोठ शब्द बहुत आम है।
ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें
अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Monday, November 8, 2010

उर्वशी, किसके ‘उर’ बसी

apsara-patrick-klauss

पजाऊपन या बहुत कुछ उत्पन्न करने के अर्थ में उर्वर शब्द हिन्दी में सामान्यतौर पर खूब प्रचलित है। उर्वर बनाने की क्रिया उर्वरण है और उर्वर होने की अवस्था या भाव को उर्वरता कह सकते हैं। धरती पर अन्न उपजानेवाली, अन्नदायिनी के रूप में पृथ्वी को भी उर्वरा कहा जाता है। इसका अर्थ खेती योग्य उपजाऊ ज़मीन भी होता है। इसी कड़ी में उर्वी भी आता है जिसका अर्थ भी धरती है। बांग्ला में यह उरबी है और पूर्वी बोलियों में उर्बि भी है और उरा भी। इसी तरह हृदय, मन या चित्त के लिए हिन्दी और इसकी बोलियों में उर शब्द भी प्रचलित है। जाइज़ संतान के लिए हिन्दी में औरस शब्द प्रचलित है। इन तमाम शब्दों का मूल संस्कृत का उरस् माना जाता है जिसका अर्थ है सीना, छाती, वक्षस्थल, स्तन, हृदय, चित्त आदि। रीतिकालीन साहित्य में स्त्री के अंगों की चर्चा आम बात थी। साहित्यिक हिन्दी में स्त्री के स्तनों के लिए उरसिज या उरोज जैसे शब्द भी इसी कड़ी में आते हैं। पृथ्वी के अर्थ में उर्वी का अर्थ चौड़ा, प्रशस्त, विशाल और सपाट क्षेत्र भी है।
ख्यात भाषाविद् डॉ रामविलास शर्मा लिखते हैं कि संस्कृत में उर शब्द खेत के लिए प्रयुक्त नहीं होता किन्तु उर्वरा खेती लायक भूमि को कहते हैं। इसी उर् से पृथ्वी के लिए उर्वी शब्द बना है। उर्वरता का समृद्धि से रिश्ता है। उरु शब्द का अर्थ है विस्तृत, चौड़ा, विशाल आदि। मोनियर विलियम्स ने भी ग्रीक भाषा का एउरुस् अर्थात प्रशस्त, विशद इसी उरु का प्रतिरूप बताया है। जॉन प्लैट्स के कोश में भी उरु का अर्थ चौड़ा और विस्तृत बताया गया है। डॉ शर्मा कहते कि संस्कत में उर् जैसी कोई क्रिया नहीं है। वे इस संदर्भ में द्रविड़ भाषा परिवार से कुछ उदाहरण देते हुए इस शब्द शृंखला की रिश्तेदारी द्रविड़ भाषाओं से स्थापित करते हैं। तमिल में उळू शब्द जोतने, खंरोचने के लिए प्रयुक्त होता है। किसान के लिए उळवन शब्द है। तुलु में यह ड-कार होकर ऊडूनि, हुडुनि हो जाता है जिसमें जोतने का भाव है। तमिल में उळ का अर्थ है भीतर। उरई का अर्थ है निवास करना। कन्नड़ में उरुवु का अर्थ है विस्तृत, विशद। तुलु में उर्वि, उर्बि का अर्थ है वृद्धि। ये तमाम शब्द उर्वर की उपजाऊ वाली अर्थप्रक्रिया से जुड़ते हैं।
रामविलास जी उर् और ऊर का रिश्ता भारोपीय पुर और पूर से भी जोड़ते हैं जिसमें आश्रय का भाव है, निवास का भाव है जो क्षेत्र में भी है। उर्वि यानी पृथ्वी का अर्थ भी क्षेत्र है। पुर का मूल भारोपीय रूप पोल है। ग्रीक में यह पॉलिस है जिसका अर्थ है नगर। पॉलितेस यानी नागरिक और पॉलितिकोस यानी नागरिक संबंधी। रूसी में यही पोल शब्द खेत की अर्थवत्ता रखता है। ग्रीक में भी पोलोस उस भूमि को कहते हैं जो जोती गई है। स्पष्ट है कि संस्कृत के व्यंजन से जुड़ी गति और चलने की क्रिया ही इस शब्द शृंखला में उभर रही है। भूमि को जोतना यानी चलते हुए उसकी सतह को उलटना-पलटना।  संस्कृत का पुर गाँव भी है, नगर भी। बुर्ज, बर्ग भी इसी शृंखला में आते हैं। द्रविड़ भाषा में इसी पुर और पूर में के में बदलने से उर् और ऊर् शब्द मिलते हैं। तंजावुर का वुर इसका उदाहरण है। इनका मूलार्थ संभवतः आवास था। वैसे संस्कृत के उरु में निहित विशद की व्याख्या जंघा या वक्ष में हो जाती है। यही दोनों अंग हैं जो सुविस्तृत होते हैं। इसीलिए उर अगर वक्ष है तो उरु का अर्थ जंघा है। विस्तार के इसी भाव की व्याख्या उर्वी में होती है जिसका अर्थ है पृथ्वी, जिसके अनंत विस्तार को देखकर प्राचीनकाल में मनुष्य चकित होता रहा है। जिस पर विभिन्न जीवों का वास है। साहित्यिक भाषा में उर अर्थात हृदय भी आश्रयस्थली है और सहृदय व्यक्ति के उर में पूरा संसार बसता है। उरस् का रिश्ता दरअसल संस्कृत के से है जिसमें
उर्वी में होती है जिसका अर्थ है पृथ्वी, जिसके अनंत विस्तार को देखकर प्राचीनकाल में मनुष्य चकित होता रहा है। जिस पर विभिन्न जीवों का वास है। साहित्यिक भाषा में उर अर्थात हृदय भी आश्रयस्थली है और सहृदय व्यक्ति के उर में पूरा संसार बसता है।handsf
महान, श्रेष्ठ, अतिशय का भाव है। स्पष्ट है कि महान और बड़ा जैसे भावों से ही विस्तार, विस्तृत जैसे अर्थ विकसित हुए। क्षेत्र के अर्थ में उर्वी शब्द सामने आया। कृषि संस्कृति के विकास के साथ जोतने की क्रिया के लिए उर्वरा जैसा शब्द विकसित हुआ जिसमें भूमि को उलट-पुलट कर खेती लायक बनाने की क्रिया शामिल है। पोषण पाने के भाव को अगर देखें तो इस शब्द शृंखला में स्तनों के लिए उरोज और उरसिज शब्दों का अर्थ स्पष्ट होता है।
डॉ राजबली पाण्डेय हिन्दू धर्मकोश में लिखते हैं कि कृषि भूमि को व्यक्त करने के लिए क्षेत्र के साथ साथ उर्वरा शब्द का प्रयोग भी ऋग्वेद और परवर्ती साहित्य में मिलता है। वैदिककाल में भी खेतों की पैमाइश होती थी। गहरी खेती होती थी साथ ही खाद भी दी जाती थी। आज कृत्रिम या रासायनिक खाद के लिए उर्वरक शब्द खूब प्रचलित है जो इसी कड़ी का हिस्सा है। इन सब बातों का उर्वरता से रिश्ता है। ज़मीन और पशुओं के लिए संघर्ष होते थे जो समूहों के शक्ति परीक्षण की वजह बनते थे। स्वामित्व के झगड़े इन्हीं संघर्षों से ही तय होते थे। इन संदर्भों में उर्वराजित् या उर्वरापति जैसे शब्द उल्लेखनीय हैं जिनमें भूस्वामिन् का भाव है। इस कड़ी का एक अन्य महत्वपूर्ण शब्द है उर्वशी जो स्वर्ग की अप्सरा है और जिसका उल्लेख पौराणिक साहित्य में कई जगहों पर है। एक सामान्य सा अर्थ जो उर्वशी का बताया जाता है वह है पुरुष के हृद्य को वश में कर लेनेवाली- (उर+वशी)। जाहिर है यह अर्थ उर्वशी के अप्सरा होने अर्थात अपार रूप लावण्य की स्वामिनी होने के चलते विकसित हुआ है। दूसरी व्युत्पत्ति के अनुसार नारायणमुनि की जंघा से उत्पन्न होने के कारण उर्वशी को यह नाम मिला। भाव यह है कि जिसका जंघाओं अर्थात उरु में वास हो वह उर्वशी। यह व्युत्पत्ति हरिवंशपुराण में बताई गई है।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Thursday, November 4, 2010

तालियां, जोरदार तालियां-दीपावली की शुभकामनाएं

VMT_1[1][5]विजय मनोहर तिवारी

[शब्दों का सफ़र के पाठकों के लिए दीवाली की यह बधाई भेजी है वरिष्ठ पत्रकार-लेखक विजय मनोहर तिवारी ने। पुस्तक चर्चा स्तम्भ के जरिए सफ़र के साथी उनसे परिचित हैं। इस बधाई में जिन नामों से पाठक अपरिचित हैं, उनके चरित्र के बारे में गूगल पर जानकारियां उपलब्ध हैं।]
Diya-Diwlaनेता मसरूफ हैं। अफसरों को भी सांस लेने की फुरसत नहीं। सरकारी नौकर-चाकर भी दिन-रात लगे हैं। देश बड़ा है। सेवा आसान नहीं। सब मिलकर कर रहे हैं। देश की सेवा। जनता देश में ही रहती है। इसलिए जनता की सेवा भी हो जाती है। सब साहब लोग त्योहार के वक्त भारी व्यस्त हैं। दीपावली पर शुभकामना संदेश और तोहफे मेरे पास रखकर भूल गए। चलिए, मैं ही सबको दिए देता हूं। तालियां बजाते जाएं। हौसला बना रहेगा...
Diya-Diwlaहली शुभकामना दूर-देहात के बच्चों को। वे बच्चे जो सचिन और सानिया जैसे बनना चाहते हैं। दम है इसलिए ख्वाहिश है। पर हालत की पूछिए मत और हालात जाकर देखिए। न मैदान, न कोच। न सडक़, न बिजली। कोई बात नहीं। रात के बाद सुबह होती है। सपने देखो। बड़े सपने। वी केन डू एवरीथिंग। पता है ये किसकी शुभकामना है? माननीय सुरेश कलमाड़ी की। तालियां...
Diya-Diwlaर वो कारगिल वाले पीछे क्यों हैं? लीजिए ये गुलदस्ता। मुबारक हो। अरे, आंखों में आंसू? कोई याद आ गया। तो रोइए मत, सिर ऊंचा करिए। वे देश के लिए शहीद हुए। हमें उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। वो बहादुर थे। हमें आप पर गर्व है। ये लीजिए ताजे फूलों का गुलदस्ता। अब पूछिए ये किसने भेजा? नहीं मालूम? मुंबई से अशोक चव्हाण ने। महाराष्ट्र के महामुख्यमंत्री हैं वे। तालियां...
Diya-Diwlaवो पीछे डरे-सहमे कौन खड़े हैं? अच्छा-अच्छा, कश्मीरी पंडित हैं। आगे आओ भाई। आप ये दीए ले लो। जलाओ इन्हें। सुना है दीपावली में दीप भी है और अली भी? यह गंगा-जमुनी संस्कृति बेमिसाल है? दीप और अली। मुबारक हो। जलाओ न दीप। जानते हो इतनी मोहब्बत से ये दीप-बत्ती कौन भेज रहा है? ये श्रीनगर से गिलानी साहब ने दिल से भेजी है। जोरदार तालियां...
Diya-Diwlaदानिशमंदों से गुजारिश है कि वे आतिशबाजी लेने आगे आएं। हैप्पी दिवाली। आपको कहने की पूरी आजादी है। अरे भई हक है आपका। हां-हां कहिए। कुछ भी कहिए। कह दीजिए कि नार्थ-ईस्ट पर इंडिया का कोई हक नहीं। आतिशबाजी लीजिए। कुछ कह भी दीजिए और इसका मजा लीजिए। ले भी लीजिए। बड़े जतन से भेजी हैं मोहतरमा अरुंधति राय ने। तालियां...
Diya-Diwlaब संघ वाले पथ संचलन करें। फूलों के वंदनवार आपके लिए। दीपपर्व पर शुभकामनाएं। मायूस हैं आप? अच्छा इंद्रेशजी। गनीमत समझो। अभी चंद्रेशजी, नंद्रेशजी, गिरजेशजी, अवधेशजी के नाम नहीं जुड़े। हमें क्या जोडऩा ही तो है। भटकते रहिए अदालत में आप। अदालत में हमारी आस्था है। यहां मामले जरा लंबे ही चलते हैं। ये स्पष्ट संदेश है चिदंबरम् साहब की जानिब से। तालियां...
Diya-Diwlaकौन गांव के गरीब। आगे आ जाओ। रास्तो दो इन्हें। हमारे अन्नदाता हैं ये। इन्हेंं साहब ने मिठाइयां भेजी हैं। मेमसाब ने खुद बनाई हैं। लीजिए। मुबारक हो। भैया साब-मेमसाब के लिए दुआएं करना। भगवान से प्रार्थना करें कि वे मुसीबतों से निजात पाएं। अरे उन्हें नहीं जानते? सुनो तो सही, ये डिब्बे आए हैं भोपाल के श्रीमान् अरविंद जोशी और श्रीमती टीनू जोशी के बंगले से। तालियां...
Diya-Diwlaक्या पांडाल में लाचार मरीज भी हैं। आओ, आओ। आराम से आगे आ जाओ। आपको हुजूर ने दवाएं भेजी हैं। पार्टनर की फैक्टरी की ही बनी हैं। आपकी सेहत उम्दा हो जाएगी। पांच नई स्कीमें आ रही हैं सेंट्रल से। ये लीजिए भारी पैकेट है। घर भर के लिए दवाएं। दीवाली मुबारक। पैकेट पर तो पढि़ए डॉक्टर योगीराज शर्मा का नाम लिखा है। भूल गए क्या? जोरदार तालियां...
Diya-Diwlaखिरी बधाई भोपाल के गैस पीडि़तों को। एक लिफाफा है। शायद ग्रीटिंग है। अरे वाह। क्या लिखा है कसम से। आप खुशनसीब हैं, जो भारत में जन्में। एक प्राचीन सभ्यता, एक महान् देश। वीरों और महावीरों की भूमि। तीज-त्योहारों के देश में हे मनुष्य, आपको नमन् है। क्या भाषा है। मोतियों से अलफाज। पर भेजा किसने है? न्यूयार्क से? अच्छा वॉरेन मार्टिन एंडरसन साहब हैं। तालियां...
Diya-Diwlaरे ये ढेर तो बहुत बड़ा है। देखिए, इतनी व्यस्तता के बाद भी सज्जनों ने शुभकामनाएं भेजी हैं। बाकायदा लैटरहेड पर। कई तो राजकीय चिन्ह वाले लिफाफों में। इन्हें फाइलों में रखना। पहले किसी ने भेजे थे? पीढिय़ां याद रखेंगी। गर्व करेंगी। अपने पूर्वजों पर। महान् पूर्वज। ऐसे पूर्वज जिन्हें बड़े-बड़े लोग शुभकामनाएं भेजा करते थे। बधाई। एक बार फिर जोरदार तालियां...

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...

Monday, November 1, 2010

सावधानी हटी, दुर्घटना घटी

smile

हि न्दी के सर्वाधिक प्रयुक्त शब्दों में सावधान का भी शुमार है जिसका अर्थ है किसी कार्य को पूरी तल्लीनता और ध्यान से करनेवाला व्यक्ति। सचेत, सतर्क, जागरुक व्यक्ति का भाव भी इसमे है। वाशि आप्टे के संस्कृत कोश में इसकी व्युत्पत्ति सावधानेन सह बताई गई है। इसका अर्थ है ध्यान देनेवाला, दत्तचित्त, सचेत और खबरदार। चौकस और परिश्रमी। इसमें लग कर, जुट कर, परिश्रम पूर्वक काम करने का अभिप्राय भी है। सावधान की यह व्युत्पत्ति कृ.पा. कुलकर्णी के कोश में स+अवधान जैसी ही है। यहाँ इसके मायने वही हैं किन्तु मैं मराठी के सावधान शब्द में शुभेच्छा का भाव भी शामिल हो जाता है। शादी-ब्याह आदि शुभ अवसरों पर मगलाचरण के वक्त शुभमंगल सावधान यह शब्द बोला जाता है। हिन्दी मे इसका क्रियारूप सावधानी भी प्रचलित है। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी मुहावरे को इसं शब्द से जन्मे मुहावरे के बतौर याद रखा जा सकता है।
सावधान के मूल में अवधान शब्द है जिसका अर्थ है लक्ष्य, चित्त अथवा उद्धेश्य को एकाग्र करनेवाला। अवधान शब्द बना है अव+धा+ल्युट् अर्थात धा धातुमूल में अव उपसर्ग और ल्युट प्रत्यय लगने से। प्रत्यय और उपसर्गों के सहयोग से नए शब्द बनते हैं, नए रूपान्तर सामने आते हैं और धातुमूल की अर्थवत्ता में भी विस्मयकारी बदलाव आते हैं। संस्कृत की धा धातु में रखना, धारण करना, जमाना, जड़ना, देना, प्रदान करना, पकड़ना, लगाना जैसे भाव हैं। अव उपसर्ग में यूँ तो दूरी, फ़ासला, नीचाई के भावों के साथ ही आश्रय लेना, पवित्र करना, व्याप्त होना जैसे भाव भी हैं। इस तरह अवधान या अवधानी जैसे शब्द का अर्थ होता है एकाग्रता रखनेवाला। संस्कृत हिन्दी में धा शब्द से बने दर्जनों शब्द प्रचलित हैं। समाधान शब्द भी किसी कार्य-कारण अथवा समस्या के निदान के लिए बहु प्रचलित शब्द है, जो इसी मूल से उपजा है। यह बना है आधानम् में सम् उपसर्ग लगने से जिसमें प्रस्तुत करना, रखना, कार्यरूप में परिणत करना आदि भाव हैं। जाहिर है जब किसी बात के हर आयाम पर विचार कर चुकने के बाद उसे प्रस्तुत किया जाएगा, तब उससे संबंधित कोई शंका रहेगी ही नहीं, सो सुस्पष्ट, सुचिंतित बात ही समाधान है क्योंकि उसमें किसी निराकरण की ज़रूरत नहीं पड़ती। इसी अवधान में जब वि उपसर्ग लगाया जाता है तब बनता है व्यवधानवि उपसर्ग में रहित, वियोग या विलोम का भाव है। अवधान में जो एकाग्रता है वही उसमें वि उपसर्ग लगने से बाधा के अर्थ में सामने आ रही है। मूलतः व्यवधान का अर्थ है हस्तक्षेप, अवरोध या नज़र से छुपा रहना। किसी बात को ढकना, परदे में रखना या छुपाना जैसा भाव व्यवधान में है। परदा दरअसल नज़र में बाधा ही डालता है। अवधान यानी किसी बात पर ध्यान केंद्रित करना, उस पर मन टिकाना और व्यवधान है किन्हीं दो बिंदुओं के बीच बाधा उत्पन्न करना, आवरण या ओट डालना।
वधान शब्द का सम्बंध काव्य परम्परा से भी है। द्रविड़ भाषा पर आर्य भाषा का गहरा प्रभाव रहा है। अवधानी शब्द संस्कृत से तेलुगू में भी दाखिल हुआ। तेलुगू में अवधानी शब्द का अर्थ है आशु कविता कहनेवाला। रामगोपाल सोनी ने शब्द संस्कृति पुस्तक में अवधानी शब्द की विस्तृत चर्चा की है। वे कहते हैं कि अवधान में असाधारण स्मरण शक्तिवाला तथा परमज्ञानी का भाव है। आंध्रप्रदेश में आशुकविता की परिपाटी बहुत प्राचीन है जिसे अवधानम् कहते हैं। तुरन्त किसी काव्योक्ति को आगे बढ़ाते हुए उसका समाधान प्रस्तुत करना ही अवधानम् है। संदर्भों के अनुसार चित्रभारत के रचयिता रचिगोंडा धर्मना अवधानियों व आशुकवियों के सम्राट माने जाते थे। प्राचीनकाल में वेदों के ज्ञाता को अवधानी कहा जाता था। वेदों को समझने के लिए अपने चित्त को एकाग्र करना ज़रूरी है। यूँ समझे कि पुराने ज़माने में वेद ही ज्ञान का भंडार थे, इसलिए अवधानी की व्याख्या वेदों के संदर्भ में भी होती है अन्यथा इसका अभिप्राय ज्ञानार्जन के लिए चित्त को एकाग्र करने से ही है। जो इस लक्ष्य को पा जाता है, वही अवधान है, अवधानी है।

ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें

अभी और बाकी है। दिलचस्प विवरण पढ़ें आगे...


Blog Widget by LinkWithin