Sunday, January 23, 2011

भुस भरना और फिर पालना...

संबंधित आलेख-1.पलंगतोड़ के बहाने पालकी का सफर2.पाटील का दुपट्टा3.बस्ती थी, बाज़ार हो गई [आश्रय-7]straw 
शुओं के चारे को आमतौर पर भूसा कहा जाता है। भुस यानी सूखी हुई घास-पात, अनाज का सूखा छिलका, चोकर चोई, खोई भुस आदि। भूसा को फूसा भी कहा जाता है। पलंग या पालना जैसे शब्द इसी पुआल के संबंधी हैं। हों भी क्यों ना, किसी ज़माने में तो गद्दों में पुआल या भूसा ही भरा जाता था। भूसा शब्द बना है हिन्दी की भुस् धातु से जिसमें छिलका, फालतू, फेंका हुआ, प्रक्षिप्त जैसे भाव हैं। भुस् के मूल में भी संस्कृत की भुष् या बुस् धातु हैं। जॉन प्लैट्स के अनुसार यह बुष् है और हिन्दी शब्दसागर, वृहत् हिन्दी कोश या अलायड चैम्बर्स ट्रान्सलिट्रेटेड हिन्दी अंग्रेजी कोश के मुताबिक इसका मूल बुस् है। बुस् में घास-पात, तृण, तिनका, खर-पतवार अथवा कूड़ा-कर्कट आदि जैसे भाव निहित हैं। वाशि आप्टे के संस्कृत कोश में बुस् धातु का अर्थ छोड़ना, उगलना, उडेलना भी इसका अर्थ बताया गया है। स्पष्ट है कि बुस् क्रिया के जरिये उस चीज़ की ओर संकेत है जो त्याज्य है, अनुपयोगी है और जिसे बाईप्रॉडक्ट ( उपोत्पाद ) या उपजात श्रेणी में रखा जा सकता है।

बुषम् या बुसम् का अर्थ है बूर, भूसी, कूड़ा-गंदगी, गायका सूखा गोबर आदि। आप्टेकोश में बुषम् का एक अन्य अर्थ धन-दौलत भी बताय है। कृपा कुलकर्णी के मराठी व्युत्पत्ति कोश में संस्कृत के बुसिका से इसकी रिश्तेदारी बताई गई है। बुस् से पाली में भुस, प्राकृत में बुसिआ, बांग्ला में बुशी, गुजराती में भुसो, भुस, पंजाबी में भुस, हिन्दी में कहीं कहीं भूस भूसा में अनुस्वार लगाकर भूंस, भूंसा भी लिखा जाता है और फूस शब्द भी प्रचलित है जैसे घास-फूस या फूस का छप्पर आदि। सिन्धी में का बदलाव मे होता है इस तरह भूस का बूह या बुहा जैसे रूपान्तर सामने आते हैं। भुस या भूसा से हिन्दी के कुछ प्रचलित मुहावरे भी जन्मे हैं जैसे खाल में भुस भरना यानी एक तरह से जान से मारने की धमकी। लाक्षणिक अर्थ किसी काम का न रहने देना। भुस की दीवार यानी अविश्वसनीय या काल्पनिक बात। भुस फटकारना यानी व्यर्थ श्रम करना। भुस में आग लगाकर तमाशा देखना अर्थात व्यर्थ का टंटा खड़ा करने के बाद तमाशाई की मुद्रा में आ जाना। जिस स्थान पर भूसे का भण्डारण होता है उसे भूसा या भुसौरा कहते हैं ।
न्हीं अर्थों में पुआल शब्द का प्रयोग भी हिन्दी में खूब होता है। भूसा और पुआल मूलतः एक ही हैं। पुआल का एक रूप पयाल भी है जो पूर्वी बोलियों में ज्यादा प्रचलित है। घास के तिनकों का गठ्ठर या समूह को मालवी राजस्थानी में पूला कहते हैं जो इसी पुआल का रिश्तेदार। पुआल मूलतः किसी भी अनाज जैसे जौ, गैहूँ या मक्का के बचे हुए वे डण्ठल हैं जिनसे दाने अलग कर लिए गए हैं। पयाल या पुआल बना है संस्कृत के पलालः से जिसका अर्थ है पुआल या अनाज की भूसी। पलालः बना है संस्कृत की पल् धातु से जिसमें विस्तार का भाव है। मराठी में रोटी के लिए पोळी शब्द है जो बना है
strawhut"पल्ली मूलतः आबादी, बसाहट का सूचक है। पट्ट या पत्त से बने पट्टण या पत्तन की तरह ही इसका विकास हुआ है। पत्त यानी पत्ता अर्थात पत्तों से बना छप्पर ही मूलतः पट्टण या पत्तन का आदिरूप है। छप्पर ही प्राचीन आश्रय था."
इसी पल् धातु से जिसमें विस्तार, फैलाव, संरक्षण का भाव निहित है इस तरह पोळी का अर्थ हुआ जिसे फैलाया गया हो। बेलने के प्रक्रिया से रोटी विस्तार ही पाती है। पत्ते को संस्कृत में पल्लव कहा जाता है जो इसी धातु से बना है। पत्ते के आकार में पल् धातु का अर्थ स्पष्ट हो रहा है अर्थात वृक्ष के अन्य उपांगों की तुलना में पत्ता चौड़ा, सुविस्तारित और चपटा होता है। हरी सब्जियों को भाजी-पाला कहा जाता है । प्रसिद्ध शाक 'पालक' को भी इसी क्रम में देखें ।  हिन्दी का पेलना, पलाना जैसे शब्द जिनमें विस्तार और फैलाव का भाव निहित है इसी श्रंखला में आते हैं।
राठी मे पुआल से पुवाळणें जैसी क्रिया भी बनती है। हिन्दी में इसका रूप बनेगा पुआलना जिसका अर्थ है पुचकारना, शांत करना। भाषा की अर्थवत्ता किस तरह बदलती है, यह उसका उदाहरण है। पुआल अपने आप में अनाज के डण्ठल को कहते हैं जो पशुओं का चारा है। जीवधारियों की आदिम शंका है भूख का निवारण होना अन्यथा वह उधम मचाता है। मनुष्य हो या पशु, अगर उसे खाना दे दिया जाए तो वह शांत हो जाता है। इस अर्थ में पुवाळणे जैसी क्रिया में भोजन देकर पुचकारने, शांत करने का भाव विलक्षण है। पल् से ही बना है भागने, फ़रार होने या किसी काम को छोड़ने के संदर्भ में पलायन जैसा शब्द। गौर करें पलायन में निहित भागने के भाव पर। पलायन दरअसल एक बिन्दु से दूर जाना ही है। दूर जाना ही विस्तार है। एक स्थानवाची शब्द है जो विभिन्न बस्तियों के पीछे प्रत्यय की तरह लगा नज़र आता है जैसे पल्ली।  यह पल्ली मूलतः आबादी, बसाहट का सूचक है। पट्ट या पत्त से बने पट्टण या पत्तन की तरह ही इसका विकास हुआ है। पत्त यानी पत्ता अर्थात पत्तों से बना छप्पर ही मूलतः पट्टण या पत्तन का आदिरूप है। छप्पर ही प्राचीन आश्रय था, बाद में  इन्हीं आश्रयों के इर्दगिर्द बसाहटें हुईं। पट्टण, पत्तन या पल्ली नामधारी आबादियाँ बड़े व्यावसायिक केंद्र हुईं। पल्ली मे्ं भी पल् से जुड़े विस्तार का भाव है। पल् से पल्लव और फिर पत्तों का छाजन यानी झोपड़ी। फूस की छोपड़ी या छाजन को इस पल्ली में पहचानें तो अपने आप त्रिचनापल्ली, तिरुचिरापल्ली, गंगापल्ली या पाली जैसे नामों का अर्थ भी स्पष्ट हो जाता है।
लना, पालना जैसे शब्दों में भी यही पल् धातु है। पालन-पोषण जैसे शब्द में पल में निहित विस्तार का भाव साफ़ है। किसी बच्चे की परवरिश उसके विकास से जुड़ी है। यही पालन है। पालना यानी बड़ा करना अर्थात विकसित करना या विस्तार देना। पालनकर्ता को पालक कहा जाता है । झूले को पलना कहते हैं। शिशु का शुरुआती जीवन पलने में ही बीतता है अर्थात उसका पालन पलने में होता है इसलिए शिशु की शैया को पलना कहते हैं। वैसे पलना का अर्थ ऐसी शैया है जिसे पलाया, फैलाया अर्थात झुलाया जा सके। पलंग, पालकी जैसे कुछ अन्य शब्द हैं जो इसी पल् धातु से जुड़े हैं। ढाक के पेड़ को पलाश भी कहते हैं। इस वृक्ष के पत्ते खूब चौड़े होते हैं। पलाश भी इसी मूल से जन्मा है। काल की ईकाई क्षण के लिए एक अन्य लोकप्रिय शब्द है पल जो इसी कतार में खड़ा है। समय लगातार परिवर्तनशील है और विस्तार पाता रहता है। काल की सबसे छोटी ईकाई होने के नाते सर्वप्रथम पल को ही विस्तार मिलता है। इसलिए क्षण को पल भी कहा जाता है।
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6 कमेंट्स:

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुंदर कड़ी। भूसा तो जीवन ही प्रदान करता है। भूसा जानवरों के लिए खाद्य है, जीवन का आधार। मृत देह के चर्म के भीतर भूसा भर कर उसे जीवन्त आकार दिया जा सकता है। वहाँ भी वह जीवन का भ्रम ही उत्पन्न करता है।
यह दूसरी बात है कि जीवित प्राणी के अंदर भूसा भरना एक धमकी के तौर पर प्रयोग किया जाता है। क्यों कि इस में जीवन छीनने की क्रिया मौन रहती है।

shyam gupta said...

ओह तो अब पता चला राष्ट्रपति बुस् क्यों इतना कूडा करकट, अनुपयोगी , त्याज़्य थे...नामारूप...

नीरज मुसाफ़िर said...

भुस का विश्लेषण?

Mansoor ali Hashmi said...

'बुषम'; कूड़ा भी कहाए और 'दौलत' भी कही,
यानी दौलत को अगर 'कूड़ा' कहे चल जाएगा !

['पुआलना' को गुजराती में 'पंपोलना' [appeasement] भी कहते है. राजनीति में यह एक महत्वपूर्ण हथियार है इन दिनों, ख़ास कर 'अल्पसंख्यक' सन्दर्भ में.]

जो 'पुआले'जाते है,अक्सर तो'काम'* आ जाते है *[as a Vote bank]
काम जो न आ सके , फिर 'फूस' बन जल जाएगा!

-mansoor ali hashmi
http://aatm-manthan.com

विजय कुमार मल्होत्रा said...

प्रिय अजित,
शब्दों का यह सफ़र कितना रोचक और ज्ञानवर्धक हो सकता है,इसका अंदाज़ा इस पड़ाव से हो जाता है.
सफ़र के इस पड़ाव में बात भुस भरने से शुरू हुई और लगा कि बात दूर तलक जाएगी और सचमुच तुमने
पाथेय के रूप मराठी पोळी का स्वाद भी चखा दिया और अंत में पल्ली में जाकर विश्राम की व्यवस्था भी कर दी.
तुमने सचमुच गागर में सागर समेट लिया है.
शतशः बधाई और आशीष !!!

प्रवीण पाण्डेय said...

बस यही एक पल है।

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