Friday, September 23, 2011

घर-गिरस्ती की रस्सियाँ

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शु और मनुष्य का साहचर्य शब्दों के सफ़र में भी विविध रूपों में नजर आता है। यह उपभोक्ता और उत्पाद के रूप में भी है और पारिवारिक-आध्यात्मिक धरातल पर भी है। सर्वप्रथम मनुष्य की सत्ता पशुओं पर ही कायम हुई। उसने खुद को मानवेतर जीव-जगत का नियंता स्वयं को स्थापित किया। तात्पर्य यह कि अधिकार, स्वामित्व और सम्पत्ति का बहुआयामी बोध अगर किसी ने मनुष्य को कराया है तो वे पशु ही हैं। भाषा में भी यह रिश्ता साफ नज़र आता है। उर्दू –हिन्दी का एक आम शब्द है “माल” जो मूल रूप से सेमेटिक भाषा परिवार का है। माल का अर्थ होता है सम्पत्ति। व्यापक तौर पर धन-दौलत, सामान, भंडार, कीमती सामग्री, वस्तुएं आदि भी आती हैं। यह बना है “माल” अर्थात mwl से जिसका अर्थ होता है पशुओं का रेवड़। खासतौर पर जो दुधारू पशु पालतू हों। सेमेटिक परिवार की हिब्रू, अरबी, सीरियक, आरमेइक आदि कई भाषाओं में इस धातु की व्याप्ति इसी अर्थ में हैं। जाहिर सी बात है कि पशु ही प्राचीन इन्सान की सबसे बड़ी सम्पत्ति थे इसीलिए पशुधन जैसा शब्द हिन्दी में प्रचलित हुआ। साफ है कि माल यानी पशु। प्रचलित अर्थ में यही पशुधन ऐश्वर्य सामग्री, धनसम्पत्ति और दौलत है। जिसके पास माल है वह मालदार है अर्थात ऐश्वर्य वान है, धनी है, श्रीमंत है। माल-असबाब, मालमत्ता और मालामाल जैसे शब्द युग्म भी माल की ही देन हैं। लेनदेन अथवा व्यवसाय के तौर पर मुद्रा की भूमिका सबसे पहले पशुधन ने ही निभाई।
बसे पहले “माल-असबाब” की बात। विभिन्न शब्दकोशों में असबाब का अर्थ रोजमर्रा के काम की वस्तु होता है। दरअसल “असबाब” अरबी भाषा से फ़ारसी होते हुए उर्दू-हिन्दी में दाखिल हुआ। बुनियादी तौर पर यह अरबी के “सबब” sbb शब्द का बहुवचन है। सबब में अरबी का “अ” उपसर्ग लगने से बनता है “असबाब”। सबब के प्रचलित अर्थ हैं वजह, निमित्त, कारण, अभिप्राय, प्रयोजन, आशय, सुयोग, मौका अवसर आदि। सबब से बना बेसबब शब्द भी हिन्दी में प्रचलित है जिसका अर्थ है अकारण। मगर माल-असबाब के संदर्भ में इन अर्थों से बात नहीं बनती है और कोश इससे ज्यादा कुछ नहीं बताते। अरबी के पुराने संदर्भों में “सबब” का अर्थ रस्सी या तम्बू भी होता है “असबाब” में भी रस्सी और तम्बू के बहुवचन का भाव है। यह तम्बू “असबाब” के संदर्भ को और ज्यादा स्पष्ट करता है। कारण, वजह, प्रयोजन जैसे अर्थों का विकास बाद में हुआ। सभ्यता के अत्यंत प्रारम्भिक युग में इनसान के कुछ खास उपकरणों में रस्सी भी थी। इसी के साथ डण्डा और छाजन भी प्रमुख उपकरण थे जिनके जरिए वह आश्रय से लेकर आत्मरक्षा और पशुपालन जैसे कार्यों का कुशलतापूर्वक सम्पादन कर पाता था।
गौर करें रस्सी बँटी हुई, गुँथी हुई रचना का नाम है। कुरान की अरबी के विशेषज्ञ मार्टिन आर ज़ैमिट के मुताबिक “सबब” में गूँथने, बँटने का भाव भी निहित है। वे सेमिटिक भाषा परिवार की अन्य भाषाओं के कुछ शब्दों से भी समानता सिद्ध करते हैं जिनमें घूमने, गोलाई, मुड़ने और चक्कर लगाने के भाव हैं। गूँथना और बँटना में यही क्रियाएँ होती हैं। जैमिट के मुताबिक सीरियक में शबा, आरमेइक में सबा, हिब्रू का सबाब और फोनेशियन में सब्ब जैसे शब्द हैं। ध्यान रहे रस्सी एक माध्यम है। किन्ही दो बिन्दुओं के बीच किसी प्रयोजन को सिद्ध करने का ज़रिया। रस्सी का माध्यम या ज़रिया बनना महत्वपूर्ण है। रस्सी में कड़ी या माध्यम का भाव है जो दो बातों, दो बिन्दुओं, दो वस्तुओं को जोड़ने की वजह बनती है। हैन्स व्हेर, जे मिल्टन कोवैन की डिक्शनरी ऑफ मॉडर्न रिटन अरेबिक में भी “सबब” के प्राचीन मायने रस्सी

tent... तम्बू को खड़ा करने में रस्सी और डण्डे की बड़ी भूमिका है। इसी तरह मवेशियों को बांध कर रखने में भी रस्सी एक ख़ास ज़रिया है। तम्बू ही बद्दुओं का आश्रय था। तम्बू में ही गृहस्थी की अर्थवत्ता समायी है अर्थात दुनियादारी की सभी वस्तुएँ...

या तम्बू ही बताए गए हैं मगर “प्रयोजन, वजह, कारण, हेतु” जैसी अर्थवत्ता इनमें कैसे विकसित हुई होगी, इसका स्पष्टीकरण नहीं मिलता।
म्पत्ति, गृहस्थी, साज़ो-सामान, कीमती पदार्थ, जमाजत्था, झोला-डण्डा जैसे अर्थों के पर्याय के रूप में अगर माल-“असबाब” पर विचार करें तो प्राचीन अरब समाज का जन-जीवन उभरता है। अरब के विस्तीर्ण मरुस्थलों में बद्दु जाति के लोग अपने मवेशियों के साथ सतत यायावरी करते थे और दाना-पानी मिलने पर यहाँ-वहाँ डेरा जमा लेते थे। अरबी में माल का अर्थ होता है पशु और असबाब यानी शिविर, तम्बू। इन दोनों से मिल कर बनता है माल-असबाब जिसमें समूची गृहस्थी या कीमती वस्तुओं का समावेश हो जाता है। प्राचीन घूमंतू जनजातियों के जीवन का सबसे बड़ा आधार ही उनके पशु और उनका तम्बू होता था। कबाइली जनजातियों के लिए खानाबदोश जैसी उपमा से भी यह स्पष्ट होता है। “खाना” का अर्थ होता है प्रकोष्ठ या आश्रय। यहाँ तम्बू का भाव स्पष्ट है। “दोश” यानी कंधा अर्थात अपने कंधों पर अपना घर लिए फिरने वाले लोग यानी बेदुइन ही खाना-ब-दोश हुए। तम्बू को खड़ा करने में रस्सी और डण्डे की बड़ी भूमिका है। इसी तरह मवेशियों को बांध कर रखने में भी रस्सी एक ख़ास ज़रिया है। तम्बू ही बद्दुओं का आश्रय था। तम्बू में ही गृहस्थी की अर्थवत्ता समायी है अर्थात दुनियादारी की सभी वस्तुएँ। हिन्दी के झोला-डण्डा, झोला-रस्सी जैसे शब्दयुग्म में समूची गृहस्थी की अर्थवत्ता समायी हुई है।
स्पष्ट है कि “माल-असबाब” में सबब के प्रचलित अर्थ यानी कारण, वजह, प्रयोजन की अर्थवत्ता महत्वपूर्ण न होते हुए इसके प्राचीन भाव का ज्यादा महत्व है। यूँ कारण, वजह, प्रयोजन जैसे अर्थ भी रस्सी की अर्थवत्ता से ही विकसित हुए हैं। रस्सी में समाए माध्यम के भाव का विस्तार हुआ। वस्तुओं, पदार्थों, साज़ो-सामान, जमाजत्था जैसे अर्थ अकारण विकसित नहीं हुए। दरअसल दैनंदिन काम में आने वाली चीज़ें, उपकरण भी माध्यम हैं, एक जरिया हैं। प्रयोजन सिद्ध करने का माध्यम हैं। हमारे इर्दगिर्द जो असबाब है दरअसल वही जीवन का निमित्त है। जीवन का स्थूल अर्थ अब गृहस्थी के साधन जुटाना ही रह गया है सो साज़ोसामान के अर्थ में असबाब का प्रयोजन होना यहाँ सिद्ध है। जॉन प्लैट्स के कोश में  औपनिवैशिक दौर की हिन्दुस्तानी ज़बान में प्रचलित  असबाब के  उदाहरण  दिए हुए हैं जैसे असबाब ए पेशा अर्थात व्यवसायगत वस्तुएँ, असबाब ए जंग यानी युद्ध का साज़ोसामान, असबाब ऐ खानादारी यानी बैठकखाने की चीजें-फ़र्निचर, असबाब ए सफ़र यानी यात्रा की ज़रूरी चीज़ें।
ब बात “मालमत्ता” की। माल का अर्थ तो ऊपर स्पष्ट है। “मत्ता” दरअसल अरबी से आया शब्द है और हिन्दी में इसकी स्वतंत्र उपस्थिति न होकर“मालमत्ता” में ही देखने को मिलती है। अरबी में इसका शुद्ध रूप है “माअता” और इसे “मताआ” भी उच्चारा जाता है। अरबी मे प्रश्नवाचक सर्वनाम है “मा” जिसका अर्थ होता है- यह क्या है। इंडो-ईरानी भाषा परिवार में जिस तरह प्रश्नवाची सर्वनाम “की” के फ़ारसी रूपान्तर “ची” में पदार्थ की अर्थवत्ता आ जाने से “ची” का चीज़ रूपान्तरण हुआ और इसका अर्थ वस्तु हुआ ठीक वैसे ही अरबी सर्वनाम “मा” के साथ हुआ। “माअता” शब्द का अर्थ भी वस्तु ही होता है। “मताआ” में हर उस आमफ़हम चीज़ का शुमार है जो जीवन जीवन निर्वाह के लिए ज़रूरी है। उर्दू शायरी में “मता” शब्द का प्रयोग पढ़ने को मिलता है जैसे मता ए बाज़ार यानी बाज़ार में बिकने वाली वस्तु। मता ए ग़ैर यानी किसी और की चीज़।

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9 कमेंट्स:

चंदन कुमार मिश्र said...

इस बार की यात्रा ठीक लगी। वैसे असबाब का अर्थ, जैसा कि मुझे सुनने को मिलता है, अशर्फ़ी या महंगी चीज से जुड़ा लगता है। मैंने भोजपुरी में इसका प्रयोग देखा है एक-दो बार, तो ऐसा लगा कि इसका अर्थ मूल्यवान वस्तुओं आदि से जुड़ा होना चाहिए।

प्रवीण पाण्डेय said...

तम्बू तो जीवन भर के लिये गड़ जाता है यहाँ पर।

Rahul Singh said...

क्‍या कहें, बस गजब यानि गजब.

अशोक सलूजा said...

अजित जी, मैं अक्सर यहाँ आता हूँ ,और बहुत कुछ यहाँ से ले के जाता हूँ |पर टिप्पणी के लायक अपने को नही पाता| मन ही मन आप का आभार करता हूँ | पर आज लिख कर करने की हिम्मत कर रहा हूँ | इस उम्र मैं बहुत कुछ सीख रहा हूँ ,यहाँ से ....
आभार और आशीर्वाद !

Mansoor ali Hashmi said...

# 'उसको' भी हमने 'माल' कहा था कभी ए दोस्त,
जिसके 'सबब' हम आज कहाए कंगाल है.

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जिस 'माल'* ने बनाया हमें 'मालामाल' है, *पशु-धन
किस दर्जा आज देखो तो वो पाएमाल है.

....... आगे और भी ...http://aatm-manthan.com पर.

Asha Joglekar said...

गो धन, गज धन, वारि धन और रतन धन खान
जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान ।
आप के इस पोस्ट से पशुओं को धन मानने की बात का बढिया खुलासा हो गया । सबब, असबाब इनका तंबू और रस्सी से रिश्ता भी आपने खूब बताया । आपकी हर पोस्ट नये नये विषयों की व्यवस्थित जानकारी देती है । आपके किताब की एक कॉपी मेरे लिये जरूर सुरक्षित रखें । नवंबर १६ के बाद जरूर लेना चाहूंगी जब भारत वापिस पहुंचना होगा ।

daanish said...

रोचक और ज्ञानवर्द्धक
जानकारी के लिए
शुक्रिया .

विष्णु बैरागी said...

आपकी इस पोस्‍ट ने जानकारियों, सन्‍दर्भों और सूचनाओं से मालामाल कर दिया। शुक्रिया अजित भाई। आपको पढना सुखद और अपने अधूरेपन को कम करनवाला होता है।

Anonymous said...

ज़ौक का एक शेअर हाज़िर है यहाँ असबाब शब्द कारण के अर्थों में आया है.:
नाम मकबूल हो तो फैज़ के असबाब बना
पुल बना, चाह बना, मस्जिद-ओ-तालाब बना
मताअ शब्द पंजाबी में इस्तेमाल होता है, खाने वाली खास चीज़ के लिए लेकिन कुछ सीमित से सन्दर्भ में जैसे ,'क्या बैंगन के पीछे पड़ा है, यह कोई मताअ है.'
-बलजीत बासी

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