Wednesday, November 30, 2011

हिन्दी में सिमट गई ‘वारदात’

shiv-sena-riot

का मयाब घुसपैठिया कौन है? ज़ाहिर है जो मनचाही जगह में प्रवेश भी कर जाए और किसी को कानोकान ख़बर न हो। साथ ही उसका कुछ नुक़सान भी न हो। मगर समझदार घुसपैठिया इस कामयाबी के लिए बिना ज्यादा बोझ उठाए दूसरे की हद लांघता है। बहुत सारे बोझ के साथ घुसपैठ करने में कामयाबी नहीं मिलती। कई बार शक्ल भी बदलनी पड़ती है, बहुरूपिया बनना पड़ता है। एक भाषा से दूसरी भाषा में शब्दों की आवाजाही भी कुछ इसी अन्दाज़ में होती है। नई भाषा में घुसपैठ करने वाले शब्द की अर्थवत्ता कई बार वह नहीं रह जाती जो उसकी मूल भाषा में थी। वारदात भी ऐसा ही एक शब्द है। कुछ घटिन होने के सन्दर्भ में हिन्दी में आमतौर पर वारदात का प्रयोग होता है। वारदात के अरबी निहितार्थ कुछ और थे मगर हिन्दी में इस शब्द में अर्थसंकोच हुआ है।
वारदात सेमिटिक मूल का शब्द है और अरबी भाषा से फ़ारसी में होते हुए हिन्दी में आ समाया है। अरबी में वारदात की अर्थवत्ता व्यापक है मगर हिन्दी में इसे सीमित अर्थों में इस्तेमाल किया जाता है। वारदात घटना है, मगर इस शब्द का प्रयोग सामान्य घटना के तौर पर नहीं होता। वारदात शब्द का प्रयोग हिन्दी में आमतौर पर आपराधिक गतिविधि के सन्दर्भ में होता है। जैसे चोरी, डकैती, हत्याकाण्ड, लूटमार, गिरफ्तारी आदि। चुनावी सभा में नेता का मंच से गिर जाना वारदात नहीं है, मगर इसी सभा में नेता पर हमले की घटना वारदात की श्रेणी में आती है। वारदात सेमिटिक धातु व-र-द से बना है। बदावी और हलीम की अरेबिक-इंग्लिश कुरानिक डिक्शनरी के मुताबिक इसमें व्याप्त होने, जाने, आने, गति करने, फूल का खिलना, फूलना, विकसित होना, पुष्पगुच्छ, नुमांया होना जैसे भाव भी हैं। इसके अलावा इसमें समूह, झुण्ड, एकत्रित होने, प्रविष्ट होने जैसे आशय भी हैं। कुल मिला कर व-र-द एक समूह वाची धातु भी है। किसी भी घटना में ज़ाहिर है, यही क्रियाएँ होती हैं। अरबी में इससे वारिद शब्द बनता है जिसका बहुवचन है वारिदा या वरादा। हिन्दी-फ़ारसी में इसका रूपान्तर वारिदात या वारदात होता है।
सेमिटिक धातु व-र-द में जो व्याप्त होने, आने और गति का जो भाव है उससे बने वारिदा / वरादा का अर्थ है घटना, प्रवेश या आमद। व-र-द के समूहवाची आशय पर ध्यान देते हुए बतौर घटना, इसकी अर्थवत्ता और स्पष्ट होती है। किसी घटना में बहुत सी चीज़ें एक साथ होती हैं और वहाँ क्रिया और प्रतिक्रिया दोनो नज़र आते हैं। उल्कापात सिर्फ़ उल्का का गिरना नहीं है, बल्कि उसके गिरने से उत्पन्न स्थितियाँ उसे घटना बनाती हैं। अरबी में यह वारिदा है, मगर हिन्दी में यह बड़ी घटना ही होगी, न कि वारदात। अलबत्ता वारदात में समूहवाची सारी बाते हैं। लोगों का आना-जाना, समूह का होना, किसी परिस्थिति का निर्माण होना जैसी बातें ही घटना होती हैं। दुर्घटना में भी यही सारी स्थितियाँ होती हैं। हाँ, संयोग-दुर्योग जैसी बातें भी वारदात में शामिल हैं मगर इन अर्थों में भी इसका प्रयोग हिन्दी में नहीं होता।कुल मिलाकर अरबी की व्यापक अर्थवत्ता वाली वरादा क्रिया हिन्दी में वारदात बनकर सिमट गया। हिन्दी में वारदात का अर्थ सिर्फ़ आपराधिक घटना है और यह पुलिस रोज़नामचे और अख़बारों में इसे ख़ास रुतबा मिला हुआ है।

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Monday, November 28, 2011

नीमहकीम और नीमपागल

Padahastasana 

स बार एक मराठी शब्द से सफ़र की शुरुआत। मराठी में आधा के अर्थ में निम्म, निम्मा, निम, निमा, निम्या जैसे शब्द बोलचाल की भाषा में सनाई पड़ते हैं। अक्सर कहा जाता है कि शिवाजी के काल में राजकाज की भाषा फ़ारसी थी और मराठी पर फ़ारसी का असर उसी दौर की देन है। मगर यह सरलीकरण है। राजकाज की भाषा होने से सिर्फ़ प्रशासनिक शब्दावली का लोक-व्यवहार बढ़ने की बात समझ में आती है। मुहम्मद तुग़लक से भी पहले से चौदहवीं सदी से पूर्व, तुर्क-मुसलमानों का दक्षिण भारत में मुकाम हो चुका था। समूचे देश में आज जो भाषाएँ बोली जा रही हैं उनके साथ फ़ारसी का सम्बन्ध निश्चित ही मुस्लिम शासन की देन है और यह रिश्ता सात-आठ सदी पुराना है। मगर देखा जाए तो भारत-फ़ारस सम्बन्ध तो ईसापूर्व से चले आ रहे हैं। ईरान में फ़ारसी से पहले पहलवी अस्तित्व में थी, उससे पहले अवेस्ता थी, तो इन भाषाओं का प्रभाव भी भारतीय भाषाओं पर रहा ही होगा। जब हम हिन्दी या मराठी पर फ़ारसी प्रभाव की बात करते हैं तो उस फ़ारसी से आशय होता है जो अरबी की छाप और इस्लामी संस्कार के साथ राजभाषा के रूप में भारत आई।
हिन्दी में नीम से जुड़े कुछ शब्द काफ़ी प्रचलित हैं जैसे- नीमहकीम यानी यानी अधकचरा ज्ञान रखने वाला। नीमपागल यानी आधा पागल,  नीमबेहोश यानी अर्धतंद्रा में, नीमशब यानी आधी रात वगैरह वगैरह। कुछ दशक पहले तक नीम से बने सामासिक शब्दों का प्रयोग हिन्दी में खूब होता था मगर बाद में इनका इस्तेमाल घटता चला गया जैसे नीमरोज़ यानी आधा दिन, नीमआस्तीन यानी आधी बाँहों वाला वस्त्र, नीमख्वाब अर्थात निन्द्रालस नेत्र, सपनीली आँखें, नीमबिस्मिल यानी अधमरा, जिसका गला आधार रेता गया हो, नीमकश यानी जिसे आधा खींचा गया हो, जो आधा धँसा हो, जैसे तीरे-नीमकश, नीमनिगाह यानी कनखियों से देखना, नीमबाज यानी मादक नेत्र वगैरह वगैरह। इसके विपरीत मराठी में नीम अर्थात निम से बने कई शब्द आज भी प्रचलित हैं जैसे निमकंठीदार यानी अंगरखा। भाव है ऐसा वस्त्र जो आधे गले का हो। ज़ाहिर ऐसी पोशाक सामने से खुली होती है। उसे जैकेट की तरह ही पहना जाता है। निमपट, निमशाई यानी आधा। निमसार यानी आधा महसूल, निमा यानी जैकेट, निमताजीम यानी आधा सम्मान देना, निमखाई यानी व्यापारिक या कृषि उत्पाद का आधा, निमगुंडीचा यानी जैकेट या अंगरखा, निमगोणी या निमकगोणी यानी कर या राजस्व सम्बन्धी या फिर आधी बोरी अनाज, निमगोरा यानी साँवला या गेहूँआ, निमगोल यानी चपटा या अर्धवलयाकार, निमचा यानी बरछी या छोटी तलवार, निमजरी यानी सोने-चांदी की आधी बुनावट का वस्त्र वगैरह वगैरह।
हरहाल बात मराठी के निम या निम्म शब्दों की हो रही थी। फ़ारसी के नीम मे ‘न’ के साथ दीर्घ स्वर लगता है जबकि मराठी में इसका रूप ह्रस्व हो जाता है। मद्दाह कोश के मुताबिक फ़ारसी में नीम के दो रूप हैं। पहला है नीमः जिसका अर्थ है आधा या एक प्रकार का ऊँचा पजामा। दूसरे रूप में विसर्ग नहीं लगता अर्थात नीम जिसमें अल्प, न्यून, थोड़ा या आधा जैसे भाव हैं। फ़ारसी में नेम की आमद पहलवी के निम्क से हुई है जिसका आशय अर्धांश ही है। उत्तर पूर्वी ईरान की सोग्दियन भाषा में भी निम्क का यही अर्थ है। निम्क का एक रूपान्तर पारसिग भाषा में नेम या नेमग भी होता है। यहाँ गौरतलब है कि मराठी में किन्ही शब्दो में ‘निमका’ का इस्तेमाल भी हुआ है जिससे ज़ाहिर होता है कि इसकी आमद महाराष्ट्र में इस्लाम के शुरुआती दौर में ही हो गई थी। नीम के निम्क रूप से स्पष्ट होता है कि पहलवी या पारसिग का शुद्ध रूप तब भी बाकी था। इस्लाम के आगमन के बाद ईरान की मूल पारसी संस्कृति को बहुत नुकसान पहुँचा। फ़ारसी में अरबी शब्दों का रेला घुस आया। मूल पहलवी धीरे धीरे गायब होने लगी। पहलवी का एक नाम पारसिग भी है। ईरान में बचे-खुचे अग्निपूजक पारसी पारसिग के संरक्षण और विकास के लिए काम कर रहे हैं।
रानी भाषाओं में नीम के जितने भी रूपान्तर हैं वे अवेस्ता के नएम naema से उत्पन्न माने जाने चाहिए। अवेस्ता के नएम का अर्थ है अर्धांश, हिस्सा, या हाशिया आदि। ये सभी अर्थ नएम के संस्कृत रूप नेम से मिलते हैं। या यूँ कहें कि फ़ारसी का जो नीम है वही संस्कृत का नेम है। यह ज़रूर है कि जहाँ अवेस्ता के नएम और संस्कृत के नेम की अर्थवत्ता व्यापक है वहीं फ़ारसी तक आते आते इसके नीम रूपान्तर में अर्थसंकोच की प्रवृत्ति दिखाई देती है और इसमें थोड़ा, न्यून, अल्प या आधा जैसे भाव रह जाते हैं। संस्कृत के नेम का एक अर्थ है अर्ध अर्थात आधा। यह नेम उपसर्ग की तरह जब चन्द्र के आगे लगता है तब बनता है नेमचन्द्र अर्थात नवचन्द्र, नया चाँद, न्यूमून आदि। हिन्दी में नेमचन्द्र व्यक्तिनाम होता है। इसके अलावा नेम में परिधि, घेरा, अंश, थोड़ा, पार्ष्व, बगल, बाजू, किनारा, दायरा, काल, अवधि, आधार, नींव, छिद्र, blue-moon-1सन्ध्या, जड़ और चावल आदि। इतनी विस्तृत अर्थवत्ता के बावजूद नेम के अन्दर जो प्रमुख अर्थ है वह है अंश या भाग जिसका रूढ़ अर्थ है अर्ध या आधा। नेम के भीतर जो भाव है वह सम्पूर्णता का है। अंश कभी निरपेक्ष नहीं हो सकता। अंश निश्चित ही किसी सम्पूर्ण आकार की इकाई या हिस्सा है। मिसाल के तौर पर अर्धचन्द्र के आकार को देखें। आसमान में जब नया चान्द नज़र आता है तो हँसिये जैसी आकृति के बावजूद उसके चारों और वलयाकार दीप्ति स्पष्ट दिखती है यानी प्रकृति भी यह स्पष्ट करती है कि अर्धचन्द्र अपने आप में पूर्णचन्द्र का अंश है।
नेम की मूल धातु है नम्। ध्यान रहे यह वही नम् है जिससे नमस्कार, नमन, नमामि, नम्रता, नमिता जैसे शब्द बने हैं जिनमें विनय सम्मान में झुकने का भाव हैं। झुकने आदि के लिए हिन्दी में प्रचलित नमना या नवांना ( शीश नवांना ) जैसे शब्द भी नम् धातु से ही बने हैं । झुकने के अर्थ में ही नत् या नत शब्द भी है जो नम् से ही निकले हैं।  विनत, विनती और बिनती जैसे देसी शब्द जो प्रार्थना के अर्थ में खूब प्रचलित हैं। प्रणत, प्रणति, प्रणिपात आदि शब्द भी इसी कड़ी में आते हैं। नमनि, नमनीय और यहां तक की नमस्कारना जैसे शब्द भी विभिन्न बोलियों में चलते है। नम् धातु में झुकने, घूमने, मुड़ने, मोड़ने जैसे अर्थों पर गौर करें। योग मुद्राओं में नमनीयता का महत्व है क्योंकि इसमें शरीर को विभिन्न तरह से मोड़ा जाता है। सामान्य नमस्कार में भी शरीर मुड़ता है, झुकता है। नमना इसे ही कहते  हैं। इस अवस्था में शरीर के स्पष्ट रूप से दो भाग होते हैं। कमर से ऊपर का हिस्सा ज़मीन की ओर झुका होता है। ये दो भाग शरीर को आधे आधे या दो हिस्से में विभक्त करते हैं। यही भाव नम् से बने ‘नेम’ में और फिर फ़ारसी के ‘नीम’ में विस्तारित हुए हैं यानी आधा, हिस्सा, अंश आदि। वर्तुल, घेरा, दायरा जैसे अर्थं के मूल में मोड़ या घेरा ही है।
संस्कृत की कल् धातु में गणना का भाव निहित है। कल् का एक अर्थ काल की इकाई भी है। समूचा वक्त छोटे-छोटे अंशों में विभक्त है। ये अंश मिल कर ही काल बनते हैं। इसी तरह भाग्य का एक अर्थ काल भी है। भज् धातु से भाग्य बना है। बख्त, वक्त जैसे इसके रूपान्तर भी हैं जिनका अर्थ भी समय या काल ही है। भज् धातु का अर्थ भी मूलतः अंश ही है। यानी भज् से बना भाग्य। यहाँ भी अंश-अंश से सम्पूर्ण होने वाली बात स्पष्ट है। प्रसंगवश भज् से ही बना है भक्त जिसका अर्थ भी अंश ही है। इसका दूसरा अर्थ है आराधक। भक्त परमशक्ति यानी ईश्वर का अंश ही है। विभक्त यानी दूर होने की वजह से परमशक्ति में लीन होने की इच्छा, चाहना ही भक्ति है। चावल को भी भक्त कहते हैं। भात इससे ही बना है। नेम का एक अर्थ चावल भी है, मुझे लगता है यह बाद में भात के आधार पर ही नेम के लिए भी भात शब्द का प्रयोग विद्वानों ने कहीं किया होगा। बाद में किसी कोशकार ने इस अर्थ को भी चुन लिया होगा।

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Sunday, November 27, 2011

खेती भी वर्ज़िश है

farm land

प्रा चीन समाज में कृषि-कर्म ही मूलतः श्रम का पर्याय था। यूँ काम के दायरे में बहुत सी क्रियाएँ आती हैं, मगर वह श्रम जो मूलतः रोज़ी रोटी से जुड़ा है, कर्म-संस्कृति में उसका महत्व सनातन काल से सर्वाधिक है। उदर-पोषण के लिए किए गए श्रम को अनादिकाल से ईश्वर आराधना से जोड़ा जाता रहा है। विभिन्न भाषा परिवारों में अनेक शब्दों का एक सा विकास, उनके अर्थान्तर की प्रक्रिया को देखते हुए इसे समझा जा सकता है। हिन्दी में व्यायाम के लिए फ़ारसी से आए हुए वर्ज़िश शब्द का प्रयोग भी होता है। वर्ज़िश मे शारीरिक श्रम ही खास है। वर्ज़िश को कसरत भी कहते हैं। आमतौर पर वर्ज़िश में उस श्रम को रखा जाता है जिसके ज़रिए शरीर को स्वस्थ बनाया जाता है। वर्ज़िशी-बदन या वर्ज़िशी-जिस्म में व्यायाम से प्राप्त शारीरिक सौष्ठव का आशय ही उभरता है। कुल मिला कर ऐसा शारीरिक कर्म जिसके ज़रिए शरीर को स्वस्थ और बलवान बनाया जाए, वर्जिश कहलाता है। मगर पूर्व वैदिक काल में वर्जिश में मेहनत का भाव तो था, मगर इसमें अखाड़े में की गई क़सरत की बजाय खेत में पसीना बहाने का भाव अधिक था।
र्ज़िश भारोपीय भाषा परिवार का शब्द है जो मूलतः भारत-ईरानी परिवार से ताल्लुक रखता है। दरअसल प्राचीन भारतीय संस्कृति में कर्म को ही पूजा कहा गया है। वर्ज़िश शब्द बना है अवेस्ता के वरेज़ा से जिसका अर्थ है कार्य, क्रिया, कर्म आदि। जूलियस पकोर्नी ने वरेजा को उसी वर्ग werg धातुमूल से व्युत्पन्न माना है जिससे अंग्रेजी का वर्क work निकला है जो पोस्ट जर्मनिक के werkan से सम्बद्ध है। इसकी तुलना स्लोवानी, फ्रैंच,डच के आदि रूपों और आज की जर्मन के werk से की जा सकती है। गौरतलब है कि इन सभी शब्दों में कर्म या क्रिया का ही भाव है। वर्ग/werg का रिश्ता अंग्रेजी के अर्ज urge से भी है जिसकी आमद लैटिन के urgere मानी जाती है जिसमें दबाने, ज़ोर लगाने या मेहनत करने का भाव है। ग्रीक का ergon भी इसी मूल का है जिससे अंग्रेजी का ऑरगन शब्द बना है जिसका अर्थ है शरीर के अवयव या अंग।
मूल बात यह कि भारोपीय धातु वर्ग/werg का सुदूर ईरान में एक अन्य रूप बन रहा था और जिसमें के स्थान पर ध्वनि थी। भारोपीय भाषाओं में और का रूपान्तर सामान्य बात है। अवेस्ता के वरेज़ा का एक रूप फ़ारसी में वर्ज़ होता है जिसका अर्थ भी कर्म, कसरत और मेहनत है। वर्ज़ में यूँ तो निर्माण और कर्म का भाव है मगर इसका मूलार्थ है खेत। कर्म के सन्दर्भ में रोटी बनाने के लिए आटा गूँधने की क्रिया को वर्ज़-दादन कहते हैं। वैसे फ़ारसी में खेत को वर्ज़ कहते हैं। अमरकोश के रचयिता अमरसिंह (पाँचवी सदी) अपने इस प्रसिद्ध ग्रन्थ के द्वितीय काण्ड के भूमिवर्ग में वरिवस्या शब्द का उल्लेख करते हैं जिसका अर्थ है परिचर्या, सेवा, सुश्रुषा और उपासना। इस शब्द का रिश्ता आराधना से जोड़ा गया है-वरिवस शब्दः पूजार्थ। उन्नीसवीं सदी के महान भाषाविद् अल्बर्ट पाइक (1809–1891) ने अवेस्ता के वरेज़ा का रिश्ता वैदिक शब्द वरिवस्या से रिश्ता जोड़ा है जो कम व्याख्या के बावजूद तार्किक लगता है। पाइक लिखते हैं कि यह मूलतः कर्म है। आराधना करना भी कर्म है। गौर करें कि प्राचीन समय में कृषि कर्म के सभी आयाम अर्थात बुवाई, सिंचाई, बिनाई, कटाई आदि के वक्त याज्ञिक-अनुष्ठान होते थे। हमारा ऋतुचक्र इसी कृषि-संस्कृति से संचालित था। कृषि संस्कृति से जुड़े ये कार्य ही मूलतः श्रम की प्राचीन परिभाषा मे आते थे और इस तरह वरिवस्या शब्द का रूपान्तर या सहयोगी विकास अवेस्ता में वरेज़ा होना तार्किक लगता है। वरिवस्या को क्षेत्रपूजा के रूप में देखा जा सकता है। वरिवस्या से अवेस्ता में वरिवज्जा > वरेजा > वर्ज जैसे रूपान्तर मुमकिन हैं जिनमें खेत और खेती जैसे भाव हैं। सस्कृत की कृष् धातु में निहित खींचने का भाव ही कृषि शब्द के क्रिया रूप में अभिव्यक्त होता है। क्षेत्र से खेत बनता है और फिर उसके क्रिया रूप खेती का विकास होता है।
प्राचीन समय में कृषि कर्म के सभी आयाम अर्थात बुवाई, सिंचाई, बिनाई, कटाई आदि के वक्त याज्ञिक-अनुष्ठान होते थे। हमारा ऋतुचक्र इसी कृषि-संस्कृति से संचालित था। कृषि संस्कृति से जुड़े ये कार्य ही मूलतः श्रम की प्राचीन परिभाषा मे आते थे…pan
वेस्ता के वरेज़ा से फ़ारसी में कुछ नए शब्द बने मसलन वर्ज़ीदन यानी काम करना, वर्ज़ यानी खेत, कर्म, वर्ज़ाव यानी ताक़तवर गाय, वर्ज़िश यानी क्रियाशीलता, खेती-बाड़ी, कृषि-कर्म, व्यायाम, खेल-कूद आदि। गौरतलब है कि भारोपीय भाषाओं में ब और व में अदला-बदली होती है। फ़ारसी में वर्ज़ का रूपान्तर बर्ज़ भी हुआ। विशाल खेतों को भी वर्ज़ कहते हैं और यह शब्द श्रम के अर्थ में भी है। वर्ज़ीदन है तो बर्ज़ीदन भी है। प्रो. दाऊद एन. राहनी का एक आलेख कहता है कि बर्ज़िग-गार का अर्थ है बुवाई का मौसम, जो अक्सर बारिश में ही होती है। वर्ज़ या बर्ज़ का अर्थ है विशाल कृषि भूमि। भावुक अन्दाज़ में कह जा सकता है- सुजलाम सुफलाम् शस्य श्यामलाम् मातरम्। कुल मिला कर धरती माता हमें धारण करती है, पालन करती है, पोषण देती है इसीलिए वर्ज़ शब्द में ये सब है। फ़ारसी में वर्ज़नामा, बर्ज़नामा खेती सम्बन्धी ग्रन्थों के लिए प्रयुक्त होते हैं।
खेती का वर्ज़िश से रिश्ता तो बहुत कुछ साफ़ हो चुका है, मगर लगता है कि हिन्दी और बुन्देली में भी वरेज़ा का रूपान्तर मौजूद है। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश  में पान की खेती वाले इलाकों में पान की बाड़ियों को भी बरेजा कहते हैं। सम्भावना के तौर पर इसकी साम्यता फ़ारसी के वर्ज़, बर्ज़ या अवेस्ता के वरेज़ा से कर के देखिए...पान की बेलें जिन लम्बे चौड़े बाड़ों में ज़मीन से सात-आठ फुट ऊपर बाँस से बने ढाँचों पर लगाई जाती है, उसे कहते हैं, बरेजा। यानी कहने को यह भी खेत ही है, मगर कुछ ऊँचा खेत। अवेस्ता डिक्शनरी के मुताबिक बरेजा शब्द का एक अर्थ ऊँचा भी होता है। क्यों न हो, वर्ज़, बर्ज़, वरेज़ा, या वरिवस्या के ज़रिए हम ज़िस उपासना की बात कर रहे हैं, उसका उपास्य तो सबसे ऊपर ही है !!! जॉन प्लैट्स पान-बरेजा की व्युत्पत्ति संस्कृत के वृति [वृ+ज?] से होने की सम्भावना जताते हैं। गौर करें कि संस्कृत के वृत्ति में वृत् धातु है जिससे वृत्त बना। इसका रिश्ता ‘ऋ’ से है जिसमें मुड़ने, घूमने, घुमाने, चक्रगति का भाव है। बात यह है कि दुनिया की हर संस्कृति में ईश्वर आराधना के तौर पर, उपासना के तौर पर सर्वशक्तिमान प्रतीक के इर्द-गिर्द घूमने की प्रथा है। भारतीय-ईरानी परिवेश में अग्निपूजा के यज्ञ अनुष्ठान में भी अग्नि-पीठ के इर्द-गिर्द प्रदक्षिणा दरअसल आराध्य की उपासना का ही प्रावधान है। यही नहीं, सामान्य तौर पर रोज़ाना घरों में हम जो आरती करते हैं उसमें ईश्वर के चारो और अग्नि घुमाई जाती है। यह जो वर्तन का भाव है वही वरिवस्या के वर् में भी है और बरेजे में भी है। यानी घिरा हुआ, सुरक्षित, संरक्षित क्षेत्र।  पान बरेजा तो सचमुच  बाड़ा और कई बरेजों का संकुल होता है। बरेजा और वरेजा में बस ऊपर, नीचे का ही अन्तर है!

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Thursday, November 24, 2011

फ़ानूस की फ़ंतासी

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वि देशी भाषाओं से भारतीय भाषाओं में समाए शब्दों में ‘फ़ानूस’ और ‘फंतासी’ का शुमार भी होता है। फ़ानूस यानी छत से लटकता विशाल कंदील जिसमें शमा (ज्योति) के इर्दगिर्द शीशे का जारनुमा आवरण होता है जो उसे बुझने से बचाता है और रोशनी को कई गुना बढ़ा देता है। फिल्मों और नाटकों में कल्पनालोक को मूर्त रूप देने में रोशनियों का बेहद खूबसूरत प्रयोग होता है। झाड़ियों, पेड़ों से फूटती रंगबिरंगी रोशनियाँ दर्शकों को एक ऐसी रम्य-मरीचिका में ले जाती हैं जहाँ सब कुछ सुहाना लगता है। यही फंतासी है। हालाँकि सिर्फ़ दृष्यविधान ही फ़ंतासी नहीं होता बल्कि कथाविधान भी फंतासी है। फ़ानूस और फ़ंतासी का रिश्ता यूँ ही नहीं है। गौरतलब है कि ये दोनों शब्द क्रमशः फैंच और अंग्रेजी से हिन्दी में आए हैं। फानूस शब्द जहाँ सैकड़ों बरसों से भारतीय बोलियों में रचा-बसा है वहीं फंतासी बहुत पुराना नहीं है। ग्रीक ट्रैजेडी के लिए त्रासदी, कॉमेडी के लिए कामदी की तरह ही फैंटेसी का फंतासी रूपान्तर बीसवीं सदी के भारतीय रंगकर्म की देन है, ऐसा मुझे लगता है।
बसे पहले ‘फ़ानूस’ की बात। प्रो. पी.डी. गुणे के मुताबिक ‘फ़ानूस’ बरास्ता फ्रैंच, मराठी में दाखिल हुआ। अपनी किताब-इन्ट्रोडक्शन ऑफ कॉम्पेरिटिव फ़िलोलॉजी में वे लिखते हैं कि फ्रैंच भाषा से फ़ैशन और सैन्य प्रबन्ध सम्बन्धी अनेक शब्द दिए हैं और उसी कड़ी में ‘फ़ानूस’ शब्द भी आता है। लालटेन के लिए इसका रूप फाणस है तो साधारण लैम्प के लिए फाणूस है। समझा जा सकता है कि दक्खनी शैली की हिन्दी में इसका रूप ‘फ़ानूस’ ही था। इस मत के बावजूद प्रो. गुणे फ़ानूस के लिए मूल फ्रैंच शब्द क्या था, इसका उल्लेख नहीं करते हैं। कई सन्दर्भों को टटोलने के बाद भी मुझे फ्रैंच भाषा में फ़ानूस शब्द नहीं मिला। अनुमान है कि‘फ़ानूस’ शब्द बरास्ता फ्रैंच ज़बान भारतीय भाषाओं में दाखिल नहीं हुआ बल्कि इसकी आमद अरबी, फ़ारसी, दक्खनी और उर्दू के ज़रिए ही हुई है। फ्रैंच लोगों के समुद्री रास्तों से हिन्दुस्तान दाखिल होने से पहले ही मुग़लकाल में फ़ानूस यहाँ आ चुका था। अरबी में फ़ानूस का बहुवचन फ़ानिस होता है। 
फ़ानूस सेमिटिक भाषा परिवार का शब्द न होते हुए भी अरबी से ही हिन्दी में आया है। अरब में भी इसका रूप ‘फ़ानूस’ ही हैं और यह ग्रीक भाषा के ‘फ़ैनोस’ से बना है। अरबी और ग्रीक भाषाओं में पुरानी रिश्तेदारी रही है। ग्रीक फ़ैनोस का मतलब होता है लालटेन, दीपक, दीया, चिराग़ मगर ग्रीक ज़बान में फ़ैनोस का अर्थ मशाल है। यह मूलतः इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द है और भारोपीय धातु ‘भा’ (bha) बना है जिसका आशय है चमक, प्रकाश। मोनियर विलियम्स के मुताबिक समकक्ष संस्कृत धातु है ‘भा’, ‘भात्’ जिसमें जगमग, स्वच्छ, पारदर्शकता, चमक जैसे भाव हैं। दुनिया को अपनी रोशनी से चकाचौंध कर देने वाले सूर्य का नाम ‘भास्कर’ इसी वजह से है। चमक, तेज जैसे भावों के लिए प्रभा और आभा में भी इस भा की मौजूदगी देखी जा सकती है। फ़ैनोस का रिश्ता ग्रीक ‘फॉस’ phos से भी है जिसमें किरणें बिखेरने का भाव है।
र्व-त्योहारों हमारे उल्लास की ही अभिव्यक्ति हैं। इसलिए रोशनियों के ज़रिये इसे नुमायाँ करने की परम्परा दुनियाभर में है। ग्रीक फ़ैनोस सबसे पहले इजिप्शियन अरबी में दाखिल हुआ जहाँ ईसापूर्व मिस्र के प्रसिद्ध शासकों ‘फराओं’ के ज़माने से पांच दिवसीय विशिष्ट प्रकाशोत्सव मनाने की परम्परा रही थी। बाद में यह परिपाटी क्रिसमस-पर्व की विशिष्टता बन गई। तब यरुशलम में शहर को रोशनियों से सराबोर करने के लिए रास्तों के किनारे खम्भों पर कंदील टाँगे जाते थे। तब भी इन्हें फ़ानूस कहा जाता था क्योंकि पड़ौसी ग्रीस में मधुमक्खी के छत्तों से बनी मोमबत्तियों को ‘फैनोस’ कहा जाता था। इस्लामी दौर में फराओं की यही परम्परा मुस्लिम दौर के फ़ातमिद शासकों के काल में फलीफूली। भारत में फ़ानूस शब्द के साथ साथ ‘झाड़ फ़ानूस’ टर्म भी प्रचलित है। यह झाड़ क्या है? ऐसा लगता है छत से लटकते कंदील को कांच के जिस गिलाल में जलाया जाता है, उसे जार भी कहते हैं। अंग्रेजी में जार-लैम्प जैसी टर्म मौजूद है। कागज के आवरण वाले कंदील को सामान्य फ़ानूस कहाजाता होगा और जब कांच के कवच वाले फ़ानूस 4b799587dadebप्रचलित हुए तो उन्हें ज़ार फ़ानूस कहा जाने लगा होगा। मगर इस विचार का प्रमाण मुझे नहीं मिला। हालाँकि अंग्रेजी का जार शब्द अरबी से आया है। दरअसल लटकते हुए कंदील फ्रांसीसी सैनिक असबाब का एक ख़ास हिस्सा थे। मैदानों, जंगलों, रेगिस्तानों में जब सैनिक पड़ाव होते थे, तब पेड़ों पर या पेड़नुमा जंगलों पर  लालटेनों को लटका कर बड़े क्षेत्र को प्रकाशित किया जाता था। दरअसल पुरानी फ्रैंच में candeltreow शब्द दीपाधार के लिए प्रयुक्त होता था। बाद में अंग्रेजी में इससे कैंडल-ट्री कहा जाने लगा। मुझे लगता है इस कैंडल-ट्री की तर्ज पर ही फ़ानूस के साथ ट्री के अर्थ में झाड़ शब्द लगाकर हिन्दी में झाड़-फ़ानूस पद प्रचलित हुआ होगा।
ब आते हैं फंतासी पर। इसका मूल है फैंटेसी और यह फैंटेसिया से आ रहा है। फैंटेसी का आशय ऐसी प्रस्तुति से है जो ऐंद्रजालिक हो, अद्भुत हो, कल्पनाशील हो। फैंटेसी दरअसल मायालोक जैसा प्रदर्शन है। यह फैंटेसिया उसी फैनोस के संज्ञा रूप निकला है जिससे फ़ानूस बना है। संज्ञा रूप में फ़ैनोस का अर्थ होता है प्रकाश और इसके क्रियारूप फैनो का अर्थ है सबके सामने आना। फ़िनॉमिनॉन इसी मूल का है जिसमें इसी अद्भुत प्रस्तुति का आशय है। ध्यान रहे कोई चीज़ तभी नज़र आती है जब उस पर रोशनी पड़ती है, यह सामान्य प्रस्तुति है। लेकिन फैंटेसी दरअसल ऐसा आविर्भाव है जो चकाचौंध से भरा और चकित कर देने वाला है। फैंटेसी का हिन्दीकरण फंतासी भी खूब लोकप्रिय है।
प्रचलित अर्थों में फ़ानूस सिर्फ दीया अथवा रोशनी का ज़रिया नहीं बल्कि यह कंदील है जिसका अभिप्राय ऐसे दीये से है जिसकी लौ के इर्द-गिर्द हवा से बचाव के लिए शीशे का आवरण या कागज का कवच लगाया जाता है। एक प्रसिद्ध शेर में भी यही बात है- फानूस बनकर जिसकी हिफाज़त हवा करे। वो शम्अ क्या बुझे जिसे रोशन खुदा करे।। यहाँ फानूस का अर्थ रोशनी नहीं बल्कि लैम्प-शेड है। लालटेन, कंदील या फ़ानूस दरअसल दीये के ऐसे ही प्रकारों के नाम हैं जिसके चारों ओर शीशे का आवरण होता है और जिसकी जोत को घटाया-बढ़ाया जा सकता है। जॉन शेक्सपीयर की हिन्दुस्तानी डिक्शनरी में शैन्डेलियर (फ्रैंच भाषा का शब्द जिसका अर्थ लटकने वाला लैम्पशेड ही है) को फानूस कहा गया है। लालटेन, कंदील को भी फ़ानूस कहा है। साथ ही झाड़-फानूस का अर्थ भी उसमें शैन्डेलियर बताया गया है।
हिन्दी में खूब प्रचलित कंदील शब्द अंग्रेजी के कैंडल का रूपान्तर है। यह भारोपीय भाषा परिवार का शब्द है और मूल kand से इसकी व्युत्पत्ति हुई है जिसमें चमक, प्रकाश का भाव है। खास बात यह कि प्रखरता, चमक में अगर ताप का गुण है तो शीतलता का भी। भारोपीय धातु कंद kand का एक रूप cand चंद् भी होता है। इससे बने चंद्रः का मतलब भी श्वेत, उज्जवल, कांति, प्रकाशमान आदि है। चंद्रमा, चांद, चांदनी जैसे शब्द इससे ही बने हैं। लैटिन के कैंडिड से जिसमें सच्चाई, सरलता और निष्ठा जैसे भाव निहित हैं। इसका प्राचीन रूप था कैंडेयर candere जिसका अर्थ है श्वेत, चमकदार, निष्ठावान। कैंडेयर से ही बना है मशाल, ज्योति के अर्थ मे अंग्रेजी का कैंडल शब्द जिसके हिन्दी अनुवाद के तौर पर मोमबत्ती शब्द सामने आता है। त्योहारों पर छत से रोशनी के दीपक लटकाए जाते हैं जिन्हें कंदील कहते हैं। यह शब्द अरबी से फारसी उर्दू होते हुए हिन्दी में दाखिल हुआ। अरबी में यह लैटिन के कैंडिला और Candela ग्रीक के कंदारोस kandaros से क़दील में तब्दील हुआ।
लालटेन तो हिन्दी में सबसे ज्यादा प्रचलित वस्तुओं और शब्दों में शुमार है। कमनज़र आदमी को भी कभी कभी लालटेन कह दिया जाता है। लालटेन में पढ़ना जैसी मुहावरेदार अभिव्यक्ति का आशय संघर्षों के बीच राह बनाने से है। लालटेन शब्द अंग्रेजी के लैन्टर्न से बना है। एटिमऑनलाइन के मुताबिक अंग्रेजी में इसकी आमद मध्यकालीन फ्रैंच के लैन्टर्ने से हुई। ग्रीक भाषा के लैम्पीन शब्द है, जिसमें चमक, द्युति का भाव है। इससे बने लैम्टर से लैटिन का लैन्टर्ना बना। गौरतलब है कि लैन्टर्ना, लैटिन के ही लुसर्न के आधार पर बना है जिसका अर्थ प्रकाश है। स्विट्ज़रलैण्ड के लुसर्न शहर का नाम भी इसी मूल से निकला है। अंग्रेजी के लैम्प शब्द की व्युत्पत्ति भी लैम्पीन से ही हुई है। लैम्प भी हिन्दी में प्रचलित है।

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Monday, November 21, 2011

शून्य में समृद्धि है…

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शू न्य की एक हक़ीकत तो क़रीब क़रीब हर पढ़ेलिखे व्यक्ति पर उजागर है कि अंकगणित की दुनिया के इस हीरो, जिसे अंग्रेजी में ज़ीरो कहा जाता है, का जन्म भारत में हुआ था। दुनिया को दाशमिक प्रणाली की सौगात भारत ने ही क़रीब डेढ़ हजार साल पहले दी थी और यही शून्य था जिसकी वजह से यह प्रणाली जन्म ले पायी और जिसके बिना अंक गणित की कल्पना भी मुश्किल है। इसके बावजूद आज बोलचाल की हिंदी में शून्य से ज्यादा इस्तेमाल अंग्रेजी के जीरो या सिफर का होता है। मजे़ की बात यह कि दोनो शब्दों के पीछे संस्कृत का शून्यम् हैं। आज इस शून्य को जीरो अंडा कह दिया जाता है। मूर्ख व्यक्ति के दिमाग को सिफर की उपमा दी जाती है। तंत्रिका तंत्र जब काम नहीं करता तो उसे सुन्न होना कहते हैं। जहाँ निविड़ एकांत होता है उसे सूनसान कहते हैं। सूना शब्द भी इसी अर्थ में प्रयोग होता है। ये सभी शब्द शून्य से ही जन्में हैं। संस्कृत के शून्यम् का अर्थ होता है खोखला, खाली या रिक्त स्थान, निर्वात यानी वेक्यूम अथवा आकाश, अंतरिक्ष। इस खोखलेपन में जो अकेलापन, खालीपन या नकारात्मकता का भाव है उसी वजह से मूर्ख व्यक्ति के दिमाग़ को खाली अण्डा, ज़ीरो अण्डा या कद्दू कहा जाता है। मराठी में कद्दू को भोपळा कहते हैं और वहाँ शून्य को भोपळा भी कहा जाता है। कद्दू के आकार पर अगर ध्यान दें तो यह नामकरण अजीब नहीं लगेगा। आखिर अण्डा भी तो गोल ही होता है ! कम समझ रखने वाले को उलाहना दिया जाता है- सिर है या कद्दू!! यहाँ खाली दिमाग़ वाली लक्षणा पर ध्यान देना चाहिए। शून्य के अन्य अर्थों में एकांत निर्जन, वीरान स्थान भी हैं। खिन्नमन, तटस्थता, उदासी, भी शून्य की श्रेणी में आती है। आकाश, अंतरिक्ष, बिंदु आदि भी शून्य हैं।
गौरतलब है कि शून्य की कल्पना के पीछे भारतीय मनीषा की विलक्षणता ही नज़र आती है। शून्य दरअसल क्या है? शून्य के आकार पर गौर करें। गोलाकार मण्डल की आकृति यूँ ही नहीं है। उसके खोखलेपन, पोलेपन पर गौर करें। एक सरल रेखा के दोनों छोर एक निर्दिष्ट बिन्दु की ओर बढ़ाते जाइए और फिर उन्हें मिला दीजिए। यह बन गया शून्य। यह शून्य बना है संस्कृत की ‘शू’ धातु से जिसमें फूलने, फैलने, बढ़ने, चढ़ने, बढ़ोतरी, वृद्धि, उठान, उमड़न और स्फीति का भाव है। मोनियर विलियम्स और आप्टे कोश में ‘शू धातु की तुलना संस्कृत के ही ‘श्वि’ से भी की जाती है जिसमें विकसन, फलना-फूलना, समृद्ध होना जैसे भाव हैं। ये एक ही कड़ी में हैं। ‘श्वि’ से बना एक संस्कृत शब्द है ‘शून’ जिसमें सूजा हुआ, बढ़ा हुआ, उगा हुआ या समृद्ध जैसे ही भाव हैं। स्पष्ट है कि शू से बने शून्य में बाद में चाहे निर्वात, सूनापन, अर्थहीन, खोखला जैसे भाव उसकी आकृति की वजह से समाविष्ट हुए हों, मगर दाशमिक प्रणाली को जन्म देने वालों की निगाह में शून्य में दरअसल फूलने-फैलने, समृद्धि का आशय ही प्रमुख था। इसीलिए यह शून्य जिस भी अंक के साथ जुड़ जाता है, उसकी क्षमता को दस गुना बढ़ा देता है, अर्थात अपने गुण के अनुसार उसे फुला देता है। जब इसके आगे से अंक या इकाई गायब हो जाती है, तब यह सचमुच खोखलापन, निर्वात, शून्यता का बोध कराता है। शून्य के आकार में भी यही सारी विशेषताएँ समाहित हैं। गोलाकार, वलयाकार जिसमें लगातार विस्तार का, फैलने का, वृद्धि का बोध होता है। दरअसल शून्य ही समृद्धि और विस्तार का प्रतीक है।
भारतीयों की ही तरह गणित और खगोलशास्त्र में अरब के विद्वानों की भी गहन रुचि थी। भारतीय विद्वानों की शून्य खोज का जब अरबों को पता चला तो उन्होंने अरबी भाषा में इसके मायने तलाशे। उन्हें मिला सिफ्र (sifr) जिसका मतलब भी रिक्त ही होता है। बारहवीं तेरहवीं सदी के आसपास योरप को जब दाशमिक प्रणाली का पता चला तो अरबी के सिफ्र ने यहां दो रूप ले लिए। पुरानी फ्रेंच में इसे शिफ्रे ( chiffre ) के रूप में जगह मिली जबकि अंग्रेजी में आने से पहले इसका लैटिनीकरण हुआ। पुरानी लैटिन में सिफ्र ने जे़फिरम का रूप लिया। बाद में यही zephirum या zephyrum > zeuero> zepiro> zero छोटा होकर ज़ीरो बन गया। बाद में फ्रेंच के रास्ते से अरबी के cifra का एक और  रूपान्तर cifre हुआ। यही सिफ्र एक बार फिर बदला और भाषा-समाज को मिला एक और नया लफ्ज सिफर।  गौरतलब है कि हिंदी में हम अंग्रेजी के सिफ़र cipher का उच्चारण करते हैं न कि अरबी, उर्दू के सिफ्र का। वैसे सिफ्र की व्युत्पत्ति सेमिटिक धातु sfr से भी मानी जाती है जिसका मतलब होता है उत्कीर्ण करना, लिखना, अंकन करना, गणितीय गणना आदि।
जूलियस पकोर्नी द्वारा खोजी गई इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की मूल धातुओं में शून्य शब्द की स्थिति को देखना भी दिलचस्प होगा। पकोर्नी के मुताबिक शून्य भी उसी आदिमूल  keu / *keue से उद्भूत है जिससे इंडो-ईरानी और इंडो-यूरोपीय परिवार की भाषाओं के कई अन्य शब्द निकले हैं। डॉ अली
pumpkin1...सब कुछ शून्य  से ही प्रकट हुआ है और  शून्य में ही विलीन हो जाना है…
नूराई द्वारा बनाए रूट चार्ट से पता चलता है कि इस धातु का सम्बन्ध लात्वियाई भाषा के कुरोस से है जिसका अर्थ है सुराख। इसी तरह लैटिन के कुनोस शब्द का अर्थ होता है फूला हुआ, फैला हुआ। अवेस्ता में छिद्र के लिए सुरा sura शब्द है जो इसी मूल का है। पहलवी में इसका रूप surak होता है और फ़ारसी में आते आते सुराख़ साफ नज़र आने लगता है। लैटिन में cavea, cavus और अंग्रेजी के केव cave का अर्थ गुफा होता है, मगर इस धातु से रिश्तेदारी स्पष्ट है जिसमें खोखलापन साफ नज़र आ रहा है। इसी कड़ी में आगे शून्य आता है। डॉ अली नूराई आगे अरबी के सिफ़्र, लैटिन के ज़ेफिरम आदि का उल्लेख भी अपनी तालिका में करते हैं मगर सिर्फ सन्दर्भ बताने के लिए। । हालाँकि सिफ्र घोषित तौर पर संस्कृत के शून्य से प्रभावित होकर किया गया आनुवादिक शब्द है।
शून्य शब्द का दार्शनिक महत्व भी है। प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने शून्यवादी दर्शन की स्थापना की थी जिसके मुताबिक सृष्टि में किसी पदार्थ की सत्ता नहीं है बल्कि शून्य की सत्ता है। जीव, ईश्वर आदि की सत्ता को स्वीकार नहीं करने की वजह से इस मत को शून्यवाद नाम मिला। वैसे इसे वैनाशिक मत भी कहते थे। उनका मानना था कि पदार्थ के अस्तित्व को लेकर चार तरह के मत हो सकते हैं। अस्ति या नास्ति। अर्थात है अथवा नहीं। इसके बाद आता है तदुभयम अर्थात हो भी सकता है और नहीं भी। चौथा है नोभयम अर्थात तदुभयम का विलोम। नागार्जुन के मुताबिक परमसत्य इन चारों से हटकर है। सो इस विचार को शून्यवाद कहा गया। यह विचार इतना प्रसिद्ध हुआ कि बौद्धों या नास्तिकों को ही शून्यवादी कहा जाने लगा। यूँ ईश्वर की कल्पना को अगर छोड़ दिया जाए तो खगोल विज्ञान संबंधी आधुनिक खोजों से शून्य से सृष्टि के जन्म की बात को बल मिलता है। सब कुछ शून्य से प्रकट हुआ है और शून्य में विलीन हो जाना है।

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Saturday, November 12, 2011

अश्लील में ‘श्री’ की तलाश

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हि न्दी में किन्हीं विशिष्ट भावों को व्यक्त करने के लिए ‘अश्लील’ का प्रयोग होता है। ‘अश्लील’ का कोई ठोस पर्याय भी हिन्दी में नहीं है। सबसे पहले देखते हैं, ‘अश्लील’ क्या है। इसे भाषा के उदाहरण से समझते हैं। हर भाषा में असभ्य और फूहड़ शब्दावली होती है। ऐसी धारणा है कि जो कुछ प्राकृत है, पहले से बना हुआ है, वह सब अनघड़, विरूप या भद्दा है। मिसाल के तौर पर खदान से निकला हीरा और सामान्य पत्थर एक दूसरे से बहुत अलहदा नहीं होते। तराशने, चमकाने के बाद ही हीरे को अपनी असली पहचान मिलती है। भाषा के सन्दर्भ में एक और मिसाल देखते हैं। पेड़ के लिए ‘रुक्ख’ प्राकृत रूप है और ‘वृक्ष’ परिनिष्ठित रूप है। आमतौर पर नागरी भाषा परिनिष्ठित होती क्योंकि उसकी शब्दावली में तत्सम शब्द ज्यादा होते हैं। इसके विपरीत ग्रामीण बोलियाँ प्राकृत शब्दावली से प्रभावित होती हैं। ग्रामीण भाषा को इसलिए गँवारू कहा जाता है। नागरी बोलियों में जो सलीका होता है वह शब्द के मूल स्वरूप को सही ढंग से उच्चारने की वजह से आता है। उच्चारण की शुद्धता ही नागरी बोली की प्रमुख खासियत है। देशी बोली में उच्चारण अपने ठेठ अन्दाज़ में सामने आता है। दरअसल इसी ठेठपन, गँवारूपन, फूहड़ता को अश्लीलता कहते हैं। पंडितों की निगाह में यह भाषा श्रीहीन है। मगर ‘अश्लील’ के प्रचलित आशय से यह विवेचन मेल नहीं खाता।
हिन्दी में ‘अश्लील’ शब्द का प्रयोग एक खास सन्दर्भ में ही किया जाता है। काम (SEX) सम्बन्धी बुरी, घटिया सी कोई बात, कुत्सित मानसिकता से रची गई कोई कृति, उन्मुक्त यौनाचरण की रचना, किन्हीं व्यक्तियों के यौन सम्बन्धों पर अशोभनीय टिप्पणी, अपशब्द या गाली-गलौज समेत लज्जाजनक, फूहड़ और गंदी बातचीत या सामग्री का प्रदर्शन अश्लीलता की श्रेणी में आता है। यौन भावनाओं को उभारने के लिए देह का नग्न प्रदर्शन भी अश्लीलता है। इन अर्थों से हट कर कही गई कोई भी बात घटिया, भद्दा, गँवारू, असभ्य, अशिष्ट कह दी जाती है। मगर प्रचलित अर्थों में ‘अश्लील’ को अभिव्यक्त करने के लिए अगर ‘अश्लील’ का प्रयोग न किया जाए तब तो अशोभनीय, गंदी या लज्जाजनक जैसे शब्दों का ही प्रयोग करना पड़ता है। इसके बावजूद ‘अश्लीलता’ का भाव उजागर नहीं होता। ‘अश्लील’ शब्द की व्याप्ति जबर्दस्त है और हिन्दीभाषियों ने हर क्षेत्र में ‘अश्लील’ का प्रयोग अपनी अभिव्यक्ति के लिए किया है जैसे वस्तु, संवाद, शब्द, भाषा, कला, विचारधारा, सोच, लोग, ग्रन्थ, संकेत, अभिव्यक्ति, शिक्षा वगैरह वगैरह।
श्लील बना है ‘अश्रीर’ से। बोलचाल की भाषा में ‘र’ के स्थान पक ‘ल’ उच्चारने में लोगों को सुविधा होती है। अक्सर बालक या ग्रामीणजन ऐसा करते हैं क्योंकि शुद्ध उच्चारण से अधिक अभिव्यक्ति की उन्हें जल्दी रहती है। इसीलिए संस्कृत में उक्ति है- रलयोः अभेदः। ‘अश्रीर’ से बने ‘अश्लील’ में भी यही हो रहा है। ‘अश्रीर’ में अ + श्री स्पष्ट है। संस्कृत में ‘श्री’ का अर्थ है सौन्दर्य, वैभव, मांगल्य अथवा गुणकारी। मंगल, कल्याण, ऐश्वर्य और श्रेष्ठत्व से जुड़े सभी भाव “श्री” में समाहित हैं। ‘श्री’ तो स्वयंभू है। “श्री” का जन्म संस्कृत की ‘श्रि’ धातु से हुआ है जिसमें धारण करना और शरण लेना जैसे भाव हैं। जाहिर है समूची सृष्टि के मूल में स्त्री शक्ति ही है जो सबकुछ धारण करती है। इसीलिए उसे “श्री” कहा गया अर्थात जिसमें सब आश्रय पाए, जिसके गर्भ से सब जन्मे हों। सर्वस्व जिसका हो। ‘श्री’ आदि शक्ति है, मातृशक्ति है। प्रकृति ‘श्री’ है और वसुधा भी ‘श्री’ है।
blue_film_rollहिन्दी में मंगलकारी, वैभवकारी, सुंदर जैसे अर्थों में अकले ‘श्लील’ या ‘श्रीर’ का प्रयोग नहीं होता। ‘अ’ युक्त ‘श्लील’ यानी ‘अश्लील’को ही हिन्दी ने अपनाया क्योंकि ‘श्लील’ से जुड़े भावों को अभिव्यक्ति करनेवाली एक सुदीर्घ शब्दावली पहले से उसके पास थी।
स तरह देखें तो लक्ष्मी, समृद्धि, सम्पत्ति, धन, ऐश्वर्य आदि सब कुछ श्रीमय है। सत्ता, राज्य, सम्मान, गौरव, महिमा, सद्गुण, श्रेष्ठता, बुद्धि आदि भाव भी इसमें समाहित हैं। धर्म, अर्थ, काम भी इसमें शामिल हैं। वनस्पति जगत, जीव जगत इसमें वास करते हैं। अर्थात समूचा परिवेश श्रीमय है। भगवान विष्णु को ‘श्रीमान’ या ‘श्रीमत्’ की सज्ञा भी दी जाती है। गौरतलब है कि “श्री” स्त्रीवाची शब्द है। उपरोक्त जितने भी गुणों की महिमा “श्री” में है, उससे जाहिर है कि सारा संसार “श्री” में ही आश्रय लेता है। अर्थात समस्त संसार को आश्रय प्रदान करनेवाली “श्री” के साथ रहने के कारण भगवान विष्णु को ‘श्रीमान’ कहा गया है। इसलिए वे ‘श्रीपति’ हुए। इसीलिए ‘श्रीमत्’ हुए। भावार्थ यही है कि ईश्वर कण-कण में व्याप्त हैं। “श्री” और ‘श्रीमान’ शब्द अत्यंत प्राचीन हैं। इनमें मातृसत्तात्मक समाज का स्पष्ट संकेत है। विष्णु सहस्रनाम के विद्वान टीकाकार पाण्डुरंग राव के अनुसार समस्त सृष्टि में स्त्री और पुरुष का योग है। ‘श्रीमान’ नाम में परा प्रकृति और परमपुरुष का योग है।
हाँ “श्रीर” का अर्थ स्पष्टतः ‘श्री’ से युक्त समझ में आ रहा है। जिसमें ‘श्री’ से जुड़े सभी गुण हैं। विपुलता, वैभव, समृद्धि, सौभाग्यपूर्ण, मंगलकारी जैसे भाव हैं। इस महिमायुक्त “श्री” से पहले जब नकारात्मक उपसर्ग ‘अ’ लगता है तो “श्री” की महिमा श्रीहीन हो जाती है। अश्रीर का अर्थ हुआ अशोभनीय, लज्जाजनक, पतित, अमंगलकारी। ऐसी भाषा या शब्द जिनसे फूहड़ता, अभद्रता, अंमगल, अकल्याण की अभिव्यक्ति होती हो। निर्लज्जता की पराकाष्ठा, अश्रवणीय वचन या अश्रवणीय दृष्य या कृति सभी कुछ ‘अश्रीर’ है। इस तरह ‘श्रीहीन’ ही ‘अश्लील’ है। बोली भाषा में ‘श्रीर’ का ‘श्लील’ हुआ। संस्कृत के पौराणिक साहित्य में ये दोनों ही रूप हैं और समकालीन हैं।  मोनियर विलियम्स कोश के मुताबिक ब्राह्मण साहित्य अर्थात ऐतरेय ब्रह्मण, शाङ्खायन ब्राह्मण आदि में इनका प्रयोग मिलता है। मगर लकारयुक्त ‘श्लील’ का प्रचलन अधिक हुआ। हिन्दी में मंगलकारी, वैभवकारी, सुंदर जैसे अर्थों में अकले ‘श्लील’ या ‘श्रीर’ का प्रयोग नहीं होता। ‘अ’ युक्त ‘श्लील’ यानी ‘अश्लील’को ही हिन्दी ने अपनाया क्योंकि ‘श्लील’ से जुड़े भावों को अभिव्यक्ति करनेवाली एक सुदीर्घ शब्दावली पहले से उसके पास थी। बहरहाल, अश्लील में चाहे ‘श्री’ की महिमा से रहित होने का भाव है फिर भी इसमें ‘श्री’ मौजूद है।

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Friday, November 11, 2011

लाम पर जाना, लामबन्द होना

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लि खत-पढ़त और बोलचाल की हिन्दी में प्रयोग होने वाला एक शब्द लामबन्द भी है। क्रिया रूप में लामबन्द होना या लामबन्दी का इस्तेमाल होता है जिसमें किसी उद्धेश्य या मुहिम के लिए तैयार होने, एकजुट होने, इकट्ठा होने, गोलबन्द होने का भाव है। लामबन्द शब्द लाम+बन्द से मिल कर बना है। हिन्दी में लाम शब्द उर्दू-फ़ारसी की फौजी शब्दावली से आया है। मोटे तौर पर इसका आशय फ़ौज या सेना से है। इसका एक दूसरा अर्थ है फौजी मोर्चा या युद्ध स्थल। फौजी जमावड़े को भी लाम कहा जाता है क्योंकि जमावड़ा वहीं होता है जहाँ मोर्चा लगाया जाता है। लाम पर जाना जैसे मुहावरे का अर्थ युद्ध पर जाना ही होता है। लाम बांधना मुहावरे में लड़ाई के लिए एकत्रित होने, तैयार होने या मोर्चाबंदी का भाव है। आज़ादी से पहले तक लाम शब्द इन्हीं अर्थों में हिन्दी में खूब प्रचलित था, बाद में इसका चलन कम होता गया। मगर इससे ही बना लामबन्दी शब्द वामपंथियों, समाजवादियों की शब्दावली में स्थान पा गया और राजनीतिक अर्थों में ही इसका प्रयोग अब तक होता चला आ रहा है।
लाम यूँ तो सेमिटिक मूल का शब्द है और इसकी मूल धातु l-m-m (ल-म-म) है जो समूहवाची धातु है और इसमें गोलबन्द होने, इकट्ठा होने, जमा होने का भाव है। मगर इसकी व्युत्पत्ति को लेकर कोशों में कुछ भ्रम की स्थिति भी दिखती है। मिसाल के तौर पर जॉन प्लैट्स इसे फ्रैंच शब्द लार्मे larmee से आया होने की सम्भावना बताते हैं। गौरतलब है कि ओल्ड फ्रैंच में इसका रूप armée है। मूलतः यह इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द है। अर्थ और ध्वनि के हिसाब से यह व्युत्पत्ति सही लग सकती है मगर इसमे पेच है। फ्रैंच शब्द की फ़ारसी में आमद कैसे हुई होगी? ब्रिटिश औपनिवैशिक काल में ईरान में कभी फ्रान्सीसी फौजी जमावड़ा नहीं रहा जिससे फौज के अर्थ में लार्मे से लाम शब्द बनने की सम्भावना को बल मिलता।
लाम शब्द के बारे में श्यामसुंदर दास के हिन्दी शब्दसागर के कोशकार भी जॉन प्लैट्स की बताई व्युत्पत्ति से प्रभावित जान पड़ते हैं। शब्दसागर में लाम को फ़ारसी का शब्द बताते हुए इसका मूल उच्चारण लार्मे बताया गया है, जबकि प्लैट्स ने लाम शब्द की प्रविष्टि के आगे fr.larme का सम्भावित रूपान्तर बताया है। निश्चित ही शब्दसागर में इसे फ़ारसी का लिखा जाना सम्पादन की त्रुटि है। मुझे लगता है fr को फ़ारसी का संक्षेपीकरण समझ लिया गया होगा। यह कहा जा सकता है कि फ़ारसी का लाम दरअसल फ्रैंच लार्मे का रूपान्तर है। ऐसा मानना इसलिए सही नहीं होगा, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, ओल्ड फ्रैंच में इसका रूप armée है। अंग्रेजी का आर्मी भी इसका सहोदर है। मूलतः यह इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का समूहवाची शब्द है। आर्मी शब्द के बारे में शब्दों का सफ़र में लिखा जा चुका है। आर्मी army बना है आर्म arm से जिसमें शरीर के हिस्से या अंग का भाव है। आर्म का मतलब भुजा भी होता है। इसका मूल भारोपीय धातु अर् है जिसमें जुड़ने का भाव है।
प्रयोग के आधार पर लाम पर जाना वाक्य में लाम का अर्थ मोर्चा या जंग होता है। लाम बांधना जैसे वाक्य में युद्ध के लिए फौज को सज्जित करने का भाव है। इसमें युद्ध की खातिर गोलबंद होने या घेराबन्दी करने का अर्थ भी निहित है। उधर प्लैट्स लाम का अर्थ कतार, पद, फौजी टुकड़ी आदि बताते हैं। मद्दाह साहब के उर्दू-हिन्दी कोश के अनुसार लाम ध्वनि वाले कुछ शब्द हैं जिनकी अर्थसाम्यता से पता चलता है कि ये एक ही परिवार के हैं और मूलतः हिन्दी में जो लाम है वह अरबी मूल से ही आया है। कड़ियों वाले फौजी कवच या जिरह के लिए मद्दाह के कोश में लामः शब्द है। लाम का अर्थ होता है कवच-समूह। बाद में इसका अर्थ सुसज्जित फौज हुआ होगा। लाम का अर्थ एक किस्म की टोपी भी होता है जिसे भिक्षुक ओढ़ते हैं। दरवेशों के चोगे के तौर पर प्लैट्स भी लाम का उल्लेख करते हैं। दरवेश भी माँग कर ही अन्न ग्रहण करते थे।
प्लैट्स के कोश में चोगा या अंगरखानुमा पोशाक को भी लाम बताया गया हैं। लाम का अर्थ कमरबन्द भी होता है और छल्ला या अंगूठी भी। ध्यान रहे, छल्ला, अंगूठी भी गोल होती है और कमरबंद में भी घेरने का भाव है। अरबी में इस लाम lam का एक रूप lamm भी है। अरबी में दरअसल लाम का अर्थ गोलबंद होना है। इसे प्राचीन कबीलाई समाज के परिप्रेक्ष्य मे देखा जाना चाहिए। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी मैदान साफ़ करने के

army_soldier...चक्रव्यूह जैसी युद्धरचना इसी देशी तरकीब से उपजी है। अरब में भी चाहे सामूदायिक कार्य हो या शिकार, अथवा किसी मनुष्य को सज़ा देना, यही तरीका अपनाया जाता था। ‘लाम बांधना’ के मूल में यही आशय है। दरअसल घेरबन्द लोगों के समूह का भाव ही इसमें खास है...

लिए घेरदार मानवशृंखला बनाई जाती थी। लोग अपने आगे के कंकर-पत्थर खेत या मैदान के मध्य में फेंकते जाते हैं और इस तरह घेरा संकुचित होता जाता है। बाद में इस ढेर को एक साथ हटा दिया जाता है। सामाजिक कार्य की यही पद्धति बाद में युद्धनीति बनी। चक्रव्यूह जैसी युद्धरचना इसी देशी तरकीब से उपजी है। अरब में भी चाहे सामूदायिक कार्य हो या शिकार, या किसी मनुष्य को सज़ा देना, यही तरीका अपनाया जाता था। लाम बांधना के मूल में यही आशय है। दरअसल घेरबन्द लोगों के समूह का भाव ही इसमें खास है।
सेमिटिक धातु l-m-m से घेरे के इसी अर्थ से बाद के दौर में अंगरखा, अंगूठी, कमरबन्द जैसी वस्तुओं को भी लाम कहा जाने लगा। पुराने ज़माने फौजी पोशाक एक अंगरखा ही होती थी। कमरबन्द, जिरह-बख्तर या कवच जैसी फौजी पोशाक की ज़रूरी चीज़ें शरीर के साथ बान्धी ही जाती हैं। कमर कसना जैसा मुहावरा फौजी कार्य-व्यवहार से ही पैदा हुआ है जिसका आशय है मोर्चे पर जाने के लिए सज्ज होना और बाद के दौर में लाम बांधना जैसा मुहावरा युद्ध के लिए मुकाबले के लिए तैयार होने के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। हैन्स व्हेर, जे मिल्टन कोवैन की डिक्शनरी ऑफ मॉडर्न रिटन अरेबिक के मुताबिक लाम में जुटने, जुड़ने, इकट्ठा होने, मिलने, फिर से एक होने, कतार लगाना, साथ साथ होना जैसे भाव है। अरबी लाम के साथ फ़ारसी का बन्द प्रत्यय लगने से लामबन्द या लामबन्दी जैसे शब्द बने जिसमें भी अस्त्र-शस्त्रों और दूसरी जंग के हर्बो-हथियार इकट्ठा करने का भाव है। लाम के घेरे वाले अर्थ में लामबन्द में घेरने का आशय भी स्पष्ट होता है।

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Wednesday, November 9, 2011

समझ से परे यानी दुरूह

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हि न्दी शब्दों के बरताव में होने वाली सामान्य गलतियाँ वर्तनी की भी होती हैं और अर्थ सम्बन्धी भी। ऐसे कई शब्द बोलचाल में प्रचलित हैं जिनका आशय कुछ और है मगर जिन्हें किसी अन्य अर्थ में प्रयोग किया जाता है। वजह वही है, शब्दयात्रा से, शब्द की व्युत्पत्ति से अपरिचित रहना। शब्द की आत्मा को समझने के लिए शब्दों की परतें खोलना ज़रूरी होता है। ऐसा ही एक शब्द है ‘दुरूह’ । लम्बे समय से इसे मुश्किल, कठिन, विकट के अर्थ में भी प्रयोग किया जाता है। शब्दकोशों ने भी इस गलती को बढ़ाने में योगदान दिया है क्योंकि इस शब्द का सही अर्थ बताते हुए उन्होंने वहाँ कठिन जैसा पर्याय भी दे दिया। लोगों ने कठिन को आसान मान कर ‘दुरूह’ को भी कठिन मान कर खुद एक आसान विकल्प चुन लिया। जबकि ‘दुरूह’ के माएने इससे कहीं अलग हैं। ‘दुरूह’ का सही अर्थ है दुर्बोध, समझ से परे, जो समझ न आ सके, कठिनाई से समझा या समझाया जा सकने वाला।
किसी रास्ते का मुश्किल होना उसे ‘दुर्गम’ बनाता है। दार्शनिक अर्थों में राह को लें तो राह भी ‘दुरूह’ हो सकती है, मगर चलने जैसी भौतिक क्रिया के अर्थ में राह कठिन, मुश्किल, दुर्गम हो सकती है, मगर दुरूह नहीं। हिन्दी के नामवर लोग भी ‘दुरूह’ का कठिन के अर्थ में ही इस्तेमाल करते हैं। ठाठ से लिखते हैं- “यह रास्ता दुरूह है।” जबकि लिखना चाहिए, “यह रास्ता दुर्गम है।” दुरूह बना है दुर् + ऊह से। संस्कृत के ‘दुर्’ उपसर्ग नकारात्मक भाव प्रकट करता है। कठिन, कष्टसाध्य जैसे भाव प्रकट करने के लिए मुख्य सर्ग से पहले इसे लगाया जाता है। संस्कृत की ऊह् धातु में चर्चा, तर्क वितर्क, अटकलबाजी जैसे भाव शामिल हैं। हिन्दी का एक और आम शब्द है ‘ऊहापोह’ जो ऊह+ अपोहः से बना है। ‘अपोह’ का अर्थ होता है तार्किक आधार पर समस्या का निराकरण। ‘ऊहापोह’ का हिन्दीवाले अक्सर गलत प्रयोग करते हैं। आमतौर पर इसका प्रयोग असमंजस, अधरझूल या निष्कर्ष तक न पहुँचने की स्थिति से लगाया जाता है जबकि इसका आशय किसी विषय पर सम्यक तार्किक चर्चा करने से है। ऊहापोह का मुहावरे की तरह जब प्रयोग होता है तो उसका अभिप्राय यही होता है सोच-विचार में पड़ना। दुर् +ऊह का अर्थ हुआ समझ से परे, न समझा जा सकने वाला।
तो स्पष्ट है दुरूह में सिर्फ़ कठिनाई नहीं है बल्कि यह कठिनाई विचार-विमर्श के सन्दर्भ में है। ‘दुरूह’ का अर्थ हुआ जिस पर विचार करने में कठिनाई हो, ऐसी बात जो समझ में न आ सके। कोई विषय दुरूह हो सकता है, व्यक्ति ‘दुरूह’ हो सकता, समस्या दुरूह हो सकती है, वार्तालाप ‘दुरूह’ हो सकता है, चिन्तन के स्तर पर राह या रास्ता ‘दुरूह’ हो सकता है क्योंकि इन तमाम सन्दर्भों में ‘दुरूह’ का प्रयोग दुर्बोध होने या न समझ सकने सम्बन्धी है। किसी रास्ते का खराब होना उसे दुरूह नहीं, दुर्गम बनाता है। जैसे- “शहर की सड़कें दुर्गम हैं।” यहाँ ‘दुर्गम’ की जगह ‘दुरूह’ का प्रयोग सही नहीं होगा। तरीका, प्रणाली, तरकीब या युक्ति के अर्थ में जब राह या रास्ते का मुहावरेदार प्रयोग होता है, तब ‘दुरूह’ का इस्तेमाल सही कहा जाएगा जैसे- “कर्ज़ से बचने की यह राह दुरूह थी।”
हाँ तक ‘दुर्गम’ का प्रश्न है यह बना है दुर+गः या दुर+गम् से। ‘दुर्’ एक प्रसिद्ध उपसर्ग है जिससे संस्कृत-हिन्दी के दर्जनों शब्द बने हैं। इसमें मुख्यतः कठिनाई, कष्ट और अलभ्य या अप्राप्ति का भाव है। ‘गम्’ का अर्थ होता है जाना या पाना। अर्थात जिसे आसानी से न पाया जा सके। या जहाँ जाने में कठिनाई हो। गौर करें कि समतल सतह की तुलना में पहाड़ों पर चलना हमेशा कठिन होता है। इसी लिए उन्हें दुर्ग या दुर्गम कहा जाता है। इसीलिए किलों को ‘दुर्ग’ कहा जाता है अर्थात जहाँ जाना अथवा जिन्हें पाना कठिन हो। स्पष्ट है कि सिर्फ़ मुश्किल, दुष्कर या कठिन के अर्थ में ‘दुर्गम’ या ‘दुरूह’ का प्रयोग ग़लत है।

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Monday, November 7, 2011

अच्छा…हाँ हाँ…

संबंधित कड़ी-होनहार भूत और अनहोनी hindi-ki-bindi

सु बह से शाम तक सामान्य बोलचाल में ऐसे कितने ही शब्द हैं जो क़रीब क़रीब प्रत्येक वार्तालाप या संवाद का ज़रूरी हिस्सा होते हैं। ‘अच्छा’ और ‘हाँ’ का शुमार भी इनमें है। प्रायः सम्बोधित किए जाने वाले प्रत्येक वाक्य के बाद सुनने वाले का प्रत्युत्तर या प्रतिक्रिया ‘अच्छा’ या ‘हाँ’ में होती है। अगर कोई किस्सा, प्रसंग या प्रबोधन चल रहा हो तो भी ‘अच्छा’ ही कहा जाता है। इस ‘अच्छा’ / ‘हाँ’ में संतुष्टि का भाव भी रहता है और यह स्वीकार और सम्मति सूचक शब्द भी है। इसके अलावा इसमें सुनाई पड़ने का संकेत भी निहित है जैसे हूँ, ‘हाँ’ करना। निर्देशात्मक, आदेशात्मक सम्बोधन के बाद सुनने वाले पक्ष की ओर से प्रायः स्वीकार सूचक ‘हाँ’ का प्रयोग सामान्य शिष्टाचार में शामिल है। वाक्यरचना के विशिष्ट रूपों के मद्देनज़र यह क्रिया विशेषण (अव्यय) हैं। किन्हीं वाक्यों में एक साथ ये दोनों अ्व्यय होते हैं जैसे कुछ याद आने का विस्मय और फिर उसकी स्वीकारोक्ति वाले वाक्य जैसे-अच्छा…हाँ हाँ, याद आया।
बसे पहले ‘हाँ’ की बात। सामान्य वार्तालाप के दौरान अगर इस ‘हाँ’ का इस्तेमाल न किया जाए तो संवाद आगे ही नहीं बढ़ सकता। ‘अच्छा’ से भी ज्यादा इस ‘हाँ’ की अहमियत है। किसी संवाद के दौरान अगर यह ‘हाँ’ सुनाई नहीं पड़े तो समझिए कि बहरा होने का उलाहना अब मिलने ही वाला है। ‘हाँ’ की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘आम्’ से मानी जाती है और इस अव्यय को विद्वानों ने अलग अलग नाम दिए हैं, मगर मूल भाव एक ही है-स्वीकृति, सहमति, समर्थन आदि का। आम् के मूल में विद्वानों का मानना है कि हिन्दी का ‘हाँ’ अव्यय संस्कृत के आम् से बना है। इसका विकासक्रम यूँ रहा है-सं.आम् >(पाली) आम > (प्राकृत) अम्ह। आंचलिक रूपों में ‘म्’ की अनुनासिकता ‘ह’ में समा गई। फिर ‘अ’ स्वर भी ‘ह’ से जुड़ गया। यह क्रम कुछ यूँ रहा-(प्राकृत) अम्ह > अहँ > हआँ > ‘हाँ’। मोनियर विलियम्स और आप्टे कोश के मुताबिक आम् संस्कृत अव्यय है। आप्टे लिखते हैं कि यह विस्मयादि द्योतक अव्यय है और अंगीकरण, स्वीकृति जैसे भावों अर्थात ओह, ‘हाँ’ को अभिव्यक्त करता है। उदय नारायण तिवारी इसे सम्मतिसूचक अव्यय कहते हैं तो वाशि आप्टे, भोलानाथ तिवारी इसे विस्मयबोधक अव्यय मानते हैं। इन तमाम अर्थों में ‘हाँ’ का प्रयोग सिर्फ़ ‘हाँ’ कह कर भी किया जाता है अथवा ‘हाँ’ के साथ वाक्य के जरिए। मिसाल के तौर पर- आपने कुछ खाया? जवाब में सिर्फ़ ‘हाँ’ भी कहा जा सकता है और ‘हाँ’, अभी कुछ देर पहले ही...” भी कहा जा सकता है। विशेष स्थितियों में ‘हाँ’ के प्रयोग से भी वार्तालाप का सिरा पकड़ा जाता है जैसे, ‘हाँ’, बताइये...या फिर, ‘हाँ’, क्या कह रहे थे आप...।
सी तरह दूसरा स्वीकृति सूचक अव्यय है ‘अच्छा’। आप्टे कोश के मुताबिक प्राप्ति के द्योतन वाला यह अव्यय संस्कृत के ‘अच्छ’ से बना है। व्युत्पत्तिमूलक अर्थ देखें तो ‘अच्छ’ में विशुद्ध, निर्मल, उज्ज्वल, पारदर्शी जैसे भाव हैं अर्थात जो कुछ स्वच्छ है, वही ‘अच्छ’ है। अब अव्यय के रूप में सहमतिसूचक या कहे विस्मयादिबोधक के तौर पर ‘अच्छ’ के इन व्युत्पत्तिमूलक भावों की क्या व्याख्या हो सकती है? आमतौर पर सहमति, स्वीकृति या अनुमोदन करते हुए- ‘अच्छा’, तो ऐसा ही करते हैं, ‘अच्छा’, अब और कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है या ‘अच्छा’, देखते हैं और क्या कर सकते हैं। इन तमाम वाक्यों में यह ‘अच्छा’ शब्द सिर्फ़ संवाद के उपसंहार की औपचारिकता के लिए नहीं बोला गया है बल्कि इसमें यह निश्चय भी झलक रहा है कि बात पूरी तरह स्पष्ट हो चुकी है। ‘अच्छा’ में जो पारदर्शिता, निर्मलता या उज्ज्वलता है, अव्यय के रूप में ‘अच्छ’ में उसका अभिप्राय स्पष्टता से है। यानी संवाद के बाद जब ‘अच्छा’ कहा जाता है तब यह संकेत होता है कि सब कुछ स्पष्ट हो गया है।
च्छ में जो ‘छ’ है वह ‘छत’ अर्थात ‘छाया’ का प्रतीक है। संस्कृत छाया का ही फारसी रूप साया है। मगर हिन्दी के ‘छाया’ में अब सिर्फ़ परछाईं का भाव रह गया है वहीँ फारसी के साया में परछायी के साथ साथ ‘छत’ का भाव भी बरकरार है। संस्कृत की ‘छद्’ धातु में छत, छाया, ढके होने का भाव है। मोनियर विलियम्स के कोश के मुताबिक यह अ+च्छ है। इसमें जो ‘च्छ’ है वह ‘छद्’ से आ रहा है। इस तरह ‘अच्छ’ का अर्थ हुआ जो ढका हुआ न हो, जो उजागर है, पूरी तरह स्पष्ट है, पारदर्शी है, साफ है। इस तरह संवाद होने के बाद अन्त में जब ‘अच्छा’ कहा जाता है तब अभिप्राय यही होता है कि अब सब कुछ स्पष्ट है, कुछ भी छुपा हुआ नहीं है। “अच्छी बात है, चलते हैं” का अर्थ यह नहीं कि कोई बहुत बढ़िया बात कही गई है और जाने की इजाज़त मांगी जा रही है। इसका अर्थ है- “सब कुछ स्पष्ट है, अब कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। अब वार्तालाप में जो कुछ तय हुआ है उस पर अमल किया जाएगा।” कृपा कुलकर्णी के मराठी कोश में तो ‘अच्छा’ का अर्थ ही अत्यर्थम् या स्वच्छम् बताते हुए स्वचछ्म् की व्युत्पत्ति सु+अच्छम् बताई है। अच्छम् यानी जो शुद्ध है। ज़ाहिर है शुद्धता का बड़ा गुण निर्मलता ही है। निर्मलता में ही स्पष्टता है।
विशेषण के तौर पर तो ‘अच्छा’ का अर्थ रूप, गुण और योग्यता में औरों से बढ़ कर या काबिलेतारीफ़ वाला भाव है जैसे ‘अच्छा’ शहर। शुभ मुहूर्त को ‘अच्छा’ दिन कहा जाता है। यहाँ ‘अच्छा’ में मंगलकारी भाव है। कई बार निर्दोष वस्तु के तौर पर भी ‘अच्छा’ का प्रयोग होता है जैसे ‘अच्छा’ वस्त्र, ‘अच्छा’ खाना। क्रिया विशेषण या अव्यय के रूप में हमेशा ‘अच्छा’ ही प्रयोग होता है, वैसे ‘अच्छा’ का बहुवचन अच्छे होता है जैसे अच्छे बच्चे, अच्छे लोग। व्यंग्य या नकारात्मक भाव के तौर पर भी अच्छे का प्रयोग होता है जैसे, काम बिगाड़ देने वाले के लिए कहा गया जुमला- बहुत अच्छे ! ‘अच्छा’ की अभिव्यक्ति हिन्दी समेत अनेक भाषाओं में होती है। टर्नर कोश के मुताबिक, कश्मीरी में यह ओछू है, सिन्धी में अछो है, तो बांग्ला में आच्च्छा, राजस्थानी में आछो, कुमाऊनी में आछो है। ‘अच्छा’ के इस्तेमाल में ‘ह’ का प्रयोग भी मिलता है जैसे लहँदा और पंजाबी में ‘अच्छा’ (हच्छा) है तो पहल्वी की पश्चिमी शैली या भद्रवाही में हच्च्छो सुनाई पड़ता है।

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Saturday, November 5, 2011

बेहिचक शराबी की हिचकियाँ

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बोलचाल की हिन्दी का एक क्रियारूप हिचकिचाना या हिचकिचाहट खूब इस्तेमाल होता है। ‘हिचकिचाना‘ यानी संकोच करना, खुद में सिमट जाना, किसी काम में जुटने से कतराना, दुविधा में पड़ना वगैरह वगैरह। ‘हिचकिचाना‘ के मूल में ‘हिचकिच’ है जो ‘हिचक’ से बना है। ‘हिचक’ भी हिन्दी में खूब प्रचलित है। संकोच, दुविधा, असमंजस जैसे भाव ही हिचक में भी हैं। रोज़मर्रा इस्तेमाल होने वाले शब्दों में कई शब्द ऐसे होते हैं जो ध्वनिअनुकरण के आधार पर प्रचलित होते हैं। ‘हिचक’ शब्द की रिश्तेदारी भी ऐसे ही एक शब्द से है। हिचक शब्द में निहित हिचकिचाने के भाव पर गौर करें। इसमें करने या न करने का भाव है।
हिचकिचाना क्रिया का रिश्ता एक महत्वपूर्ण शारीरिक क्रिया, ‘हिचकी’ से है जिसका रिश्ता शारीरिक क्रिया से है। मसालेदार भोजन, तेज़ हँसने जैसे कारणों से हुई उत्तेजना के चलते भोजन नली में हवा फँस जाती है। यह अस्वाभाविक स्थिति होती है। सामान्य श्वासप्रक्रिया को जारी रखने के लिए फेंफड़ों की पेशियाँ उत्तेजित होकर ज्यादा हवा खींचती है, जिसकी वजह से झटके का आभास होता है। यही हिचकी है। शरीर तंत्र इसे सामान्य बनाने के लिए जब नाडियों को सक्रिय करता है तो यह हवा गले के रास्ते झटके के साथ बाहर आती है। इसे ‘डकार’ कहा जाता है। झटके के साथ जारी श्वास प्रक्रिया के दौरान ‘हिक्क’ जैसी ध्वनि निकलती है।
राब भी स्नायुतंत्र को उत्तेजित करती है जिसके चलते हिचकियों की स्थिति बनती है। शराबी के अभिनय में हिचकी होना उसे प्रामाणिक बनाता है। शराब की शुरूआत भी हिचक के साथ ही होती है, हिचक जब खत्म हो जाती है तो हिचकियाँ शुरू हो जाती हैं। सामाजिक जीवन में हिचकिचाने वाले, कतराने वाले लोग शराब पीकर बेहिचक हो जाते हैं। हिचक में जहाँ संकोज का भाव है वहीं एक मर्यादा भी है। हिचक के आगे जब फारसी का ‘बे’ उपसर्ग  लगता है तब बेहिचक बनता है। अक्सर ‘आप-आप’ वाली बेहद मर्यादित और संस्कारी भाषा बोलने वाले लोग शराब के असर में ‘अबे-तुबे’ की ज़बान बोलते हुए बेहिचक के साथ बेपरवाह, बेशऊर और बेशर्म भी हो जाते है। यहाँ ‘बे’ की महिमा दिखती है।
हरहाल, ‘हिचकी’ में शरीर ऊर्ध्व दिशा में झटके से उठता है, इसे हल्का झटका भी कह सकते हैं। यह क्रिया कुल मिलाकर व्यवधान या रुकावट ही पैदा करती है। इस अवस्था में इनसान कुछ और करने की स्थिति में नहीं रहता। बोलते-बोलते आने वाली इस रुकावट को इस ध्वनि की वजह से ‘हिचकी’ नाम मिला। कोई काम हाथ में लेने से पहले की अनिच्छा के पीछे भी कोई मानसिक व्यवधान होता है। इसलिए कुछ करने या कहने का संकोच, कतराना जैसे भावों के लिए ‘हिचकिचाना‘  जैसी क्रिया बनी। इसका एक रूप हिचमिचाना भी है। संशय या झिझक की स्थिति के लिए ‘हिचर-मिचर’ भी कहा जाता है। ‘हिचकी’ में व्यवधान का जो भाव है, गति के सम्बन्ध में ‘हिचकोला’ या हिचकोला खाना जैसी क्रियाएँ उससे ही बनी हैं। फैलन के कोश में इसका उर्दू रूप ‘हचकोला’ बताया गया है।
सामाजिक जीवन में हिचकिचाने वाले, कतराने वाले लोग शराब पीकर बेहिचक हो जाते हैं item_3765
मोनियर विलियम्स और आप्टे कोश में ‘हिचकी’ की मूल धातु हिक्क् बताई गई है। इसका निर्धारण ध्वनि-अनुकरण के आधार पर ही हुआ है। इसे कण्ठ से आती अनियमित ध्वनि कहा गया है। संस्कृत में ‘हिक्किका’ जैसा शब्द है और’ हिचकी’ इससे ही निकला है। जिसे अक्सर हिचकी आती हो, उसे ‘हिक्काश्वासिन’ , यानी हिचकियों के साथ साँस लेने वाला कहते हैं। किसी की याद आने के सम्बन्ध में हिचकी आना एक मुहावरा भी है। रोने की एक अवस्था ऐसी भी होती है जब भावावेश में आवाज़ रुँध जाती है, इसे हिचकियाँ ले लेकर रोना कहते हैं। अंग्रेजी में भी इसे हिकप hiccup कहते हैं भाव किसी रुकावट या हिचकी का ही है। वहाँ भी ध्वनि अनुकरण प्रभाव के चलते ही इसे यह नाम मिला है।
हिचकी का रिश्ता आदि काल से ही कवियों ने दूरदराज बसे किन्हीं अपनों की स्मृति से जोड़ा है। यादों की घाटी से आती एक सुहानी सदा का नाम है हिचकी। मुझे लगता है कि हिचकी  जैसी किसी हद तक कष्टदायी प्रक्रिया की असहज अनुभूति को भुलाने के लिए मानवीय संवेदना ने इसे अपनों की याद से जोड़ा। आमतौर पर बच्चों को हिचकी मिटाने का तरीका बताने के बावजूद वे उन्हें नहीं आज़माते, वरन कल्पना करते हैं कि कौन उन्हें याद कर रहा होगा। संचार के आधुनिक साधनों के जाल में अब हिचकी आना अपनों को याद करने का शग़ल नहीं रहा। कोई अपना अब हिचकी के जरिए नहीं बल्कि मोबाइल फोन के जरिये याद करता है। हिचकी अब एक शारीरिक क्रिया भर रह गई है, वर्ना पहले के ज़माने में आँख फड़कना अगर असगुन था तो ‘हिचकी’ शगुन थी। कवियों की कल्पनाशीलता ने हिचकी को शृंगाररस का विषय बना दिया था।
-जारी

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