Friday, August 7, 2015

।।हाथ कंगन को आरसी क्या।।



मारी शिक्षा पद्धति की सबसे बड़ी मुश्किल ज्ञान को सरल और आसान न बना पाने की अक्षमता है। ऐसा अनेक मिसालों से साबित होता रहता है। ऐसा ही मामला है कहावतों, मुहावरों का अर्थ न समझना। जिसकी वजह से लोग उनका प्रयोग तीर-तुक्के की तरह करते हैं। सही बैठ जाए तो ठीक नहीं तो जब उसके मायने पूछे जाएँ तो बगलें झाँकने की नौबत आनी तय है। ऐसी कहावतों, मुहावरों की लम्बी फ़ेहरिस्त में “हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या” वाली कहावत भी है जिसकी दोनों पंक्तियों की आपसी रिश्तेदारी उलझन भरी है।

यह जानना ज़रूरी है कि इस कहावत के दो पद हैं। पहला पद है “हाथ कंगन को आरसी क्या” दूसरा पद है “पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या”। इन दोनों पदों की भाषा का गठन आधुनिक हिन्दी है। अगर आरसी शब्द को छोड़ दें तो कहावत का एक भी शब्द ऐसा नहीं है जिसे समझने में मुश्किल हो। आरसी यानी आईना, मिरर, शीशा। हिन्दी में में अब आरसी शब्द का प्रचलन नहीं रहा अलबत्ता मराठी में इसका रूप आरसा होता है और यह खूब प्रचलित है। तो “हाथ कंगन को आरसी क्या” वाला पूर्वपद अपने आप में पूरी कहावत है।

मूलतः यह प्राकृत-संस्कृत परम्परा की उक्ति है और फ़ारसी के उत्कर्ष काल से भी सदियों पहले यह कहावत प्रचलित थी। इसका प्राकृत रूप देखिए- “हत्थकंकणं किं दप्पणेण पेक्खि अदि”। इसी बात को संस्कृत में इस तरह कहा गया है- “हस्ते कंकणं किं दर्पणेन”। यह नहीं कहा जा सकता कि संस्कृत उक्ति के आधार पर प्राकृत रूप बना या प्राकृत उक्ति के आधार पर संस्कृत उक्ति गढ़ी गई। कहावतें सार्वजनीन सत्य की अभिव्यक्ति का आसान ज़रिया होती हैं इसलिए वही कहावत जनमानस में पैठ बनाती हैं जो लोकभाषा में होती हैं। इस सन्दर्भ में आठवीं-नवीं सदी के ख्यात संस्कृत साहित्यकार राजशेखर के प्रसिद्ध प्राकृत नाट्य ‘कर्पूरमंजरी’ में “हत्थकंकणं किं दप्पणेण पेक्खि अदि” का उल्लेख मिलता है।

रूप-सिंगार के लिए आईना होना बेहद ज़रूरी है, किन्तु सजन-सँवरने की सभी क्रियाओं के लिए आईना हो, ये ज़रूरी नहीं। मसलन हाथों में कंगन पहनना है तो यूँ भी पहना जा सकता है, उसके लिए आईने की ज़रूरत क्या? इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि चेहरा देखना हो तो शीशा आवश्यक है किन्तु हाथ-पैर के गहने देखने के लिए आईने की क्या ज़रूरत। वो तो यूँ भी देखे जा सकते हैं। कोई स्त्री अपने हाथों के कंगन या मेहँदी की सज्जा आईने में नहीं देखती। आशय है प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम्।

इस कहावत के दूसरे पद को समझने के लिए इसकी बुनियाद समझना ज़रूरी है। मुस्लिम काल की राजभाषा फ़ारसी थी। जिस तरह ब्रिटिश राज में अंग्रेजी जानने वाले की मौज थी और तत्काल नौकरी मिल जाती थी उसी तरह मुस्लिम काल में फ़ारसी का बोलबाला था। हिन्दू लोग फ़ारसी नहीं सीखते थे क्योंकि यवनों, म्लेच्छों की भाषा थी। हिन्दुओं के कायस्थ तबके में विद्या का वही महत्व था जैसा बनियों में धनसंग्रह का। कायस्थों का विद्याव्यवसन नवाचारी था। नई-नई भाषाओं के ज़रिये और ज्ञान का क्षेत्र और व्यापक हो सकता है यह बात उनकी व्यावहारिक सोच को ज़ाहिर करती है। उन्होंने अरबी भी सीखी और फ़ारसी भी। नवाबों के मीरमुंशी ज्यादातर कायस्थ ही होते थे। रायज़ादा, कानूनगो, मुंशी, बहादुर यहाँ तक की नवाब जैसी उपाधियाँ इन्हें मिलती थी और बड़़ी बड़ी जागीरें भी।

तो इस तरह मुस्लिम दौर में फ़ारसीदाँ होना और पढ़ा-लिखा होना परस्पर पर्याय था। जब शिक्षा का माध्यम ही फ़ारसी हो, तब किसी शख़्स का यह कहना कि उसे फ़ारसी नहीं आती ग़ैरमुमकिन सी बात थी। इसे यूँ भी कह सकते हैं उस दौर के तमाम उदार हिन्दू तबके ने फ़ारसी सीखी जो बदलते दौर में अपना और अपनी क़ौम के बेहतर भविष्य का सपना देखता था। कायस्थों, ब्राह्मणों, वणिकों यहाँ तक कि क्षत्रियों में भी ऐसे तमाम लोग थे। ग्यारहवीं-बारहवीं सदी तक हिन्दू समाज से ऐसे तमाम लोग फ़ायदे में रहे जिन्होंने अरबी-फ़ारसी सीखी।

इस पृष्ठभूमि में देखें कि हिन्दुस्तान में फ़ारसी का दौर बारहवी-तेरहवीं सदी से शुरू होता है। “हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या” इस पूरी कहावत का गढ़न आज की हिन्दी का लगता है। हिन्दी में प्रचलित अनेक प्राचीन कहावतें सीधे-सीधे फ़ारसी समेत अवधी, बृज, बुंदेली, राजस्थानी व अन्य देसी भाषाओं से आती है। लेकिन यह भी सच है कि बारहवीं सदी से ही हिन्दी ने वह रूप लेना शुरू कर दिया था जिसकी बुनियाद पर आज की हिंदी खड़ी है। चौदहवीं –पन्द्रहवीं सदी की हिन्दी के अनेक प्रमाण उपलब्ध है जो आज की हिन्दी से मेल खाते हैं। मुमकिन है कि “हत्थकंकणं किं दप्पणेण पेक्खि अदि” खुसरो काल तक आते-आते इस रूप में ढल गई हो। पर यह तय है कि उस वक्त तक भी समूची कहावत का पहला पद ही प्रचलित रहा होगा।

बतौर सरकारी भाषा मुस्लिमों से इतर समाज के प्रभावशाली तबके में भी फ़ारसी सीखने की वृत्ति बढ़ी दूसरा पद तभी प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम् के अर्थ में “हाथ कंगन...” वाली उक्ति को और प्रभावशाली बनाते हुए इसके साथ जुड़ा होगा क्योंकि इसमें आरसी को फ़ारसी से मिलाने वाली स्वाभाविक तुक है। यह कहना मुश्किल है यह दूसरा पद किस दौर में “हाथ कंगन...” के साथ चस्पा हुआ, पर ये दोनों अलग अलग उक्तियाँ हैं। पहली उक्ति कम से कम डेढ़ हज़ार साल पुरानी है जबकि दूसरी उक्ति तो स्वतः साबित करती है कि वह फ़ारसी के राजकाज वाले उत्कर्ष की रचना है। ज़ाहिर है मुग़ल दौर में ही यह मुमकिन हुआ होगा।
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4 कमेंट्स:

Unknown said...

कहावतें कोई कोई तो कथ्य को और दिलचस्प बना देती हैं
ये ऐसी ही है और मजेदार भी।

Om Digital Study said...

बहुत मजेदार आज इस कहावत के रहस्य को जान पाएँ

Anonymous said...

कृपया करके र,ऱ, रु,रू का प्रयोग ,अंतर आदि ऐसे कितने शब्द,विमोचन और प्रकाशन आदि की जानकारी देने का कृपा करें।

Prasoon Naik said...

Ati uttam, par pade likhe ko farasi kya ka arth purnataha pehli pankti se mel khata nahi dikh raha he, kya aap kripya is par prakash dalenge.

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